मस्त था मैं, भ्रमर-सा दीवाना था मैं
लेखनी प्रेयसी बन गई थी मेरी
ऑंसुओं की अमानत संजोई बहुत
जुल्म से जंग-सी ठन गई थी मेरी
एक दिन प्रेयसी मुझसे कहने लगी
मेरे प्रीतम ये क्या कर दिया आपने
मेरे बचपन को क्यों रक्त-रंजित किया
मांग में रक्त क्यों भर दिया आपने
क्यों शवों के नगर में मुझे लाए हो
मेरी मासूमियत तुमने देखी नहीं
घात-आघात की बात करते सदा
तुमने यौवन की लाली समेटी नहीं
शोक विधवा का, पीड़ा जगत् की दिखी
मेरे दिल के ज़ख़म ना दिखे आपको
सारी दुनिया के ऑंसू समन्दर लगे
मेरे ऑंसू सनम ना दिखे आपको
मेरे भीतर ज़रा झाँक कर देख लो
प्यार के गीत बनते चले जाएंगे
मेरे ऑंचल से ऑंसू अगर पोंछ लो
सब समन्दर सिमटते चले जाएंगे
मैं रहा मौन, मन ने मगर ये कहा
तेरे बचपन को मैंने क़तल कर दिया
तुझको खूँ से रंगा हर पहर, हर घड़ी
तुझको यौवन से भी बेदख़ल कर दिया
जब कभी तेरे यौवन पे लाली चढ़ी
मुझको बेवाओं की मांग दिखने लगीं
जब कभी तेरे ऑंचल में मोती जड़े
दिल में भूखी निगाहें सिसकने लगीं
तेरी मासूमियत कैसे देख्रू भला
भूखे बच्चे बिलखते नज़र आ रहे
ऐसे मौसम में क्या प्यार को शब्द दँ
जब ग़रीबों के बच्चे ज़हर खा रहे
क़ातिलों के शहर में खड़ा है कवि
हर तरफ़ मौत का घर नज़र आएगा
प्यार का गीत कैसे लिखेगा कोई
प्यार भी मौत की भेंट चढ़ जाएगा
© चिराग़ जैन