“छोड़ ना यार, क्या फरक पड़ता है।” -यह वाक्य कोरा तकियाक़लाम ही नहीं, अपितु अरुण जी के जीवन का मूल सिद्धान्त भी है। जीवन की बड़ी से बड़ी भँवर से भी वे इसी एक वाक्य की डोर थामकर किनारे आ लगते हैं। पहले मुझे ऐसा लगता था कि वे दूसरों की समस्या को छोटा समझते हैं, इसीलिए सामनेवाले की परिस्थिति और तनाव के पहाड़ को अपने इस एक वाक्य से छोटा साबित करने की कोशिश करते हैं। लेकिन बाद में मैंने देखा कि वे ख़ुद की समस्याओं को भी अपने इसी एक वाक्य से छोटा साबित कर देते हैं।
उन्हें जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण लगता है अपना कम्फर्ट ज़ोन। इसीलिए ज्यों ही उनके कम्फर्ट ज़ोन में कोई तनाव प्रवेश करने लगता है तो वे ‘किसी भी कीमत पर’ उससे अपने कम्फर्ट को सुरक्षित निकाल लाते हैं। अपने कम्फर्ट ज़ोन की रक्षा के लिए वे धन, सिद्धान्त, यश, लाभ और एक सीमा के बाद सम्बन्ध तक से मोहभंग कर लेते हैं। कई बार मुझे उनके मापदण्ड बदलने पर बहुत आश्चर्य होता था, लेकिन अब महसूस होता है कि समय की किसी एक इकाई में किसी एक मापदण्ड की अनदेखी कर देने से यदि आप एक लम्बी अवधि के तनाव से मुक्त हो जाते हैं, तो यह सौदा खरा कहा जा सकता है, बशर्त उसका उद्देश्य किसी को धोखा देना न हो।
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अरुण जैमिनी जी से पहली बार मैं उस कवि-सम्मेलन में मिला था, जो एक श्रोता और कवि, दोनों रूपों में मेरा पहला कवि-सम्मेलन था। उसके बाद उनके कवि-सम्मेलनीय कद के कारण आगे से बढ़कर उनसे सम्पर्क बढ़ाने में संकोच होता रहा। लेकिन उनका व्यक्तित्व और उनके चेहरे की कांति मुझे हमेशा आकृष्ट करती थी। कई वर्ष तक मैं उनके अस्तित्व को दूर से ही देखता रहा, फिर न जाने कब वे मित्र हो गए; न जाने कब उन्होंने मेरे संकोच की दीवार गिराकर अपनत्व का सूत्र बांध लिया।
मुझे जहाँ तक याद है, वर्ष 2011 में जब मैंने जम्मू में नौकरी की थी, तब अरुण जी से मेरा रिश्ता सुदृढ़ होने लगा। 2012 में जब नौकरी छोड़कर आया, तो वह स्थिति जन्मी कि हम दिन में कम से कम एक बार बात ज़रूर करते थे। तब से अब तक यह क्रम अनवरत ज़ारी है। जीवन के उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख... सब कुछ हम परस्पर साझा कर लेते हैं।
मेरी सर्जरी के दौरान उन्होंने जिस शिद्दत से मित्रता निर्वहन किया, वह मैं कभी नहीं भूल पाता। मुझे याद है कि जब मेदांता में वे मुझसे मिलने आए तो मैंने कहा कि मेरे कारण सब परेशान हो रहे हैं। इस पर वे भावुक होकर बोले - ‘अर तू जो सबके लिए परेशान होता है हमेशा!’
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अरुण जी के साथ एक बात ख़ास है, वो ये कि वे एक बार में एक ही काम करते हैं। और जो काम करते हैं, उसे पूरी शिद्दत से करते हैं। जैसे उन्हें एक बार यह बात समझ आ गई कि कवि-सम्मेलन समिति के अधिवेशन में सबको गले में आईकार्ड ज़रूर लटकाना है तो इसके बाद वे मुख्य अतिथि को भी बिना कार्ड के अधिवेशन हाॅल में एंट्री नहीं करने देंगे। काम महत्वपूर्ण है या नहीं, ये अलग बात है, लेकिन अगर उसकी ड्यूटी अरुण जैमिनी ने ली है तो वह होगा ज़रूर। अपने हिस्से काम वे उतना ही लेते हैं, जितना वे कर सकें। और अरुण जी कितना काम कर सकते हैं, ये उन्हें जानने वाले अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन जितना काम वे करते हैं, उसमें कोई कमी नहीं निकल सकती।
जून 2023 में मेरी और मनीषा की शादी थी। मैंने कहा, चाचा, अबकी बार मुझे अधिवेशन की तैयारी से मुक्त कर दो। अरुण जी का डायरेक्ट जवाब था, शादी में तैने क्या करना है। सब हो जाएगा। मैंने कहा, ‘भाईसाहब सबको निमंत्रण भेजना है, सारी तैयारी करनी है...।’ उन्होंने पूरी ज़िम्मेदारी उठाते हुए कहा- ‘तेरी शादी में कवियों के निमंत्रण की ज़िम्मेदारी मेरी।’ उन्होंने इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी ले ली तो मुझे थोड़ा सहारा मिला। मैंने हर वर्ष की तरह पूरा समय लगाकर जोधपुर अधिवेशन सम्पन्न किया। और कवि-परिवार से इतर सबको निमन्त्रण के लिए व्यवस्थित रूप से सूची बनाकर विवाह का निमन्त्रण भी भेजता रहा। 25 जून को विवाह का रिसेप्शन था। समय से पहले अरुण जी और भाभी आयोजन स्थल पर उपस्थित थे। कवि-परिवार भी प्र्याप्त संख्या में उपस्थित था, लेकिन अनेक महत्वपूर्ण नाम दिखाई नहीं दिये। ...मैंने अरुण जी से कुछ लोगों के न आने का कारण पूछा तो पता लगा कि अरुण जी ने कवियों के व्हाट्सएप ग्रुप पर सबको सामूहिक निमंत्रण दे दिया था कि चिराग़ और मनीषा के ब्याह में सभी आमंत्रित हैं, चिराग़ बहुत व्यस्त है, अलग से निमंत्रण का इंतज़ार न करें।’
अब जो-जो उस ग्रुप में था, वो-वो निमंत्रित हो गया और जो जो उस ग्रुप में नहीं था, वो आज तक मुझे ताना देता है। ...मुझे अरुण जी की इस हरक़त पर क्रोध नहीं आया क्योंकि मैंने देखा है कि वे अपने घर के ब्याह-टेलों में भी कवि-समाज को निमंत्रित करने का ‘दायित्व’ ऐसे ही निभाते हैं।
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उनका किरदार उनकी सादगी से पोषित होता है। पंच और डांस को रोकने में वे हमेशा असमर्थ रहे हैं। मुझे याद है एक बार गौरव शर्मा और मैं काठमांडू के एक कार्यक्रम में थे। अरुण जी को इसी कार्यक्रम में कहीं और से आना था, तो वे दो घण्टे बाद होटल पहुँचे। होटल पहुँचने पर गौरव ने उन्हें बताया कि चाचा, चिराग़ ने रास्ते में मुझे बहुत शानदार गीत सुनाया।
गौरव की बात सुनकर चाचा के चेहरे पर भय मिश्रित आश्चर्य तैर गया। आँखें बड़ी हो गईं, फिर धीमे स्वर में गौरव से पूछा- इतनी देर में इसने गीत भी सुना दिया।
गौरव उनके व्यंग्य को समझकर झट से रुआँसा होकर बोला- ‘हाँ चाचा, एक नहीं तीन-तीन।’
अरुण जी ने चेहरा लाल करके मुझसे कहा- ‘साले, इन्हीं हरकतों से एक दिन तू अपने सारे दोस्त खो देगा।’
ठहाके का ऐसा निर्माण होता मैं पहली बार देख रहा था।
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कुल मिलाकर, तनाव से रहित जीवन जीने का जीवन्त उदाहरण है मेरा चाचा। आज ये सारी बातें इसलिए याद आ रही हैं क्योंकि आज चाचा का जन्मदिन है और चाचा अमरीका में है। अगर भारत में होते तो इतना लम्बा लेख लिखने का समय ही नहीं देते।
हैप्पी बर्थडे चाचा... लव यू।