पंक्ति अक्षर-शरों भरी तूणीर दिखाई देती है
दर्द भरे दिल में दुनिया की पीर दिखाई देती है
हास्य कहो या व्यंग्य कहो, शृंगार कहो या शौर्य कहो
हर कविता में मानव की तस्वीर दिखाई देती है
✍️ चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Monday, November 25, 2002
Monday, November 4, 2002
दीपावली
अमावस के आकाश में रौशनी का खेल
माटी के दीपकों में फुँकता हुआ तेल
चौराहों पर बिखरी बंगाली मिठाई
और आग में जलती देश की कमाई
मेरे मन में कुछ प्रश्न भर जाती है
और मुझे सोचने पर विवश कर जाती है
क्या ग़रीब के घर से ज़्यादा अंधकारमय है आकाश?
क्या निर्धनकाया से ज़्यादा रूखापन है दीपकों के पास?
क्या सड़क को भूखों से ज़्यादा भूख लगती है?
क्या मेरे देश में फूँकने के लिये भी कमाई बचती है?
काश,
ये सारे प्रश्न
हमारी राहों से सदा-सदा के लिये मिट जायें
इसी कामना के साथ संभव हैं
दीपावली की शुभकामनाएँ।
✍️ चिराग़ जैन
माटी के दीपकों में फुँकता हुआ तेल
चौराहों पर बिखरी बंगाली मिठाई
और आग में जलती देश की कमाई
मेरे मन में कुछ प्रश्न भर जाती है
और मुझे सोचने पर विवश कर जाती है
क्या ग़रीब के घर से ज़्यादा अंधकारमय है आकाश?
क्या निर्धनकाया से ज़्यादा रूखापन है दीपकों के पास?
क्या सड़क को भूखों से ज़्यादा भूख लगती है?
क्या मेरे देश में फूँकने के लिये भी कमाई बचती है?
काश,
ये सारे प्रश्न
हमारी राहों से सदा-सदा के लिये मिट जायें
इसी कामना के साथ संभव हैं
दीपावली की शुभकामनाएँ।
✍️ चिराग़ जैन
Friday, November 1, 2002
स्वार्थ
तीर कोरे स्वार्थ के जब तरकशों से जुड़ गए
बाम पर बैठे कबूतर फड़फड़ाकर उड़ गए
स्वार्थ शामिल हो गया जब से हमारी सोच में
पग हमारे ख़ुद-ब-ख़ुद राहे-गुनाह पर मुड़ गए
✍️ चिराग़ जैन
बाम पर बैठे कबूतर फड़फड़ाकर उड़ गए
स्वार्थ शामिल हो गया जब से हमारी सोच में
पग हमारे ख़ुद-ब-ख़ुद राहे-गुनाह पर मुड़ गए
✍️ चिराग़ जैन
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