तलवे याद न रख सकें, मिट्टी का अहसास
इतना ऊँचा मत रखो सपनों का आकाश
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Wednesday, February 5, 2003
Saturday, February 1, 2003
सरस्वती वंदना
हम सरिता सम बन जाएँ
कविता-सरगम-ताल-राग के सागर में खो जाएँ
सात सुरों के रंगमहल में साधक बनकर घूमंे
नयनों से मलहार बहे माँ, दादर पर मन झूमे
भोर भैरवी संग बिताएँ, सांझहु दीपक गाएँ
हम सरिता सम बन जाएँ
हे वीणा की धरिणी, हमको वीणामयी बना दो
ज्ञानरूपिणी मेरे मन में ज्ञान की ज्योत जगा दो
कण्ठासन पर आन विराजो इतना ही वर चाहें
हम सरिता सम बन जाएँ
© चिराग़ जैन
कविता-सरगम-ताल-राग के सागर में खो जाएँ
सात सुरों के रंगमहल में साधक बनकर घूमंे
नयनों से मलहार बहे माँ, दादर पर मन झूमे
भोर भैरवी संग बिताएँ, सांझहु दीपक गाएँ
हम सरिता सम बन जाएँ
हे वीणा की धरिणी, हमको वीणामयी बना दो
ज्ञानरूपिणी मेरे मन में ज्ञान की ज्योत जगा दो
कण्ठासन पर आन विराजो इतना ही वर चाहें
हम सरिता सम बन जाएँ
© चिराग़ जैन
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