Wednesday, February 5, 2003

आकांक्षाएँ

तलवे याद न रख सकें, मिट्टी का अहसास
इतना ऊँचा मत रखो सपनों का आकाश

© चिराग़ जैन

Saturday, February 1, 2003

सरस्वती वंदना

हम सरिता सम बन जाएँ
कविता-सरगम-ताल-राग के सागर में खो जाएँ

सात सुरों के रंगमहल में साधक बनकर घूमंे
नयनों से मलहार बहे माँ, दादर पर मन झूमे
भोर भैरवी संग बिताएँ, सांझहु दीपक गाएँ
हम सरिता सम बन जाएँ

हे वीणा की धरिणी, हमको वीणामयी बना दो
ज्ञानरूपिणी मेरे मन में ज्ञान की ज्योत जगा दो
कण्ठासन पर आन विराजो इतना ही वर चाहें
हम सरिता सम बन जाएँ

© चिराग़ जैन