महानगर में इस तरह, बदला हर त्यौहार
अब तोरण करते नहीं, खड़िया का शृंगार
रेडिमेड में ढँक गया, सारा हर्ष-किलोल
सोन बनाती बेटियाँ, खड़िया-गेरू घोल
ना मोली की सौम्यता, ना रेशम की डोर
अब राखी पर दिख रहा, प्लास्टिक चारों ओर
कितना डेवलप हो गया, ये पुरख़ों का देस
चॉकलेट ने कर दिया, बरफ़ी को रिप्लेस
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Monday, August 30, 2004
Tuesday, August 24, 2004
वायरस
जब से डाउनलोड की है
तुम्हारे नाम की फाइल
बार-बार हैंग होता है
दिल का सिस्टम
…शायद फाइल में वायरस था
जिसने सबसे पहले
डी-एक्टिवेट किया
ब्रेन का एंटी-वायरस
और फिर
करप्ट कर दिया
ऑपरेटिंग सिस्टम
..स्लो कर दी
मेमोरी
…शायद
इंस्टॉल करनी पड़ेगी
नई विंडो
© चिराग़ जैन
तुम्हारे नाम की फाइल
बार-बार हैंग होता है
दिल का सिस्टम
…शायद फाइल में वायरस था
जिसने सबसे पहले
डी-एक्टिवेट किया
ब्रेन का एंटी-वायरस
और फिर
करप्ट कर दिया
ऑपरेटिंग सिस्टम
..स्लो कर दी
मेमोरी
…शायद
इंस्टॉल करनी पड़ेगी
नई विंडो
© चिराग़ जैन
Labels:
Blank Verse,
Chirag Jain,
Love,
Poetry,
Relations,
Romanticism,
Satire,
Science,
छन्दमुक्त,
पद्य
Wednesday, August 11, 2004
लफ्ज़ों के शोर में
हालात ने जब-जब भी माजरा बढ़ा दिया
जीने की हसरतों ने हौसला बढ़ा दिया
लफ्ज़ों के शोर में ये समन्दर ख़मोश थे
चुप्पी ने शाइरी का दायरा बढ़ा दिया
यूँ ख़त्म हो चुका था रात को ही मसअला
सुब्ह की सुर्ख़ियों ने मामला बढ़ा दिया
कुछ पहले ही लज़ीज़ थीं चूल्हे की रोटियाँ
फिर माँ की उंगलियों ने ज़ायक़ा बढ़ा दिया
मंज़िल थी मिरे रू-ब-रू, रस्ता था दो क़दम
अपनों की क़ोशिशों ने फासला बढ़ा दिया
© चिराग़ जैन
जीने की हसरतों ने हौसला बढ़ा दिया
लफ्ज़ों के शोर में ये समन्दर ख़मोश थे
चुप्पी ने शाइरी का दायरा बढ़ा दिया
यूँ ख़त्म हो चुका था रात को ही मसअला
सुब्ह की सुर्ख़ियों ने मामला बढ़ा दिया
कुछ पहले ही लज़ीज़ थीं चूल्हे की रोटियाँ
फिर माँ की उंगलियों ने ज़ायक़ा बढ़ा दिया
मंज़िल थी मिरे रू-ब-रू, रस्ता था दो क़दम
अपनों की क़ोशिशों ने फासला बढ़ा दिया
© चिराग़ जैन
Labels:
Chirag Jain,
Ghazal,
Media,
Mother,
Motivation,
Poetry,
Positivity,
Relations,
Satire,
ग़ज़ल,
पद्य
Subscribe to:
Posts (Atom)