Tuesday, May 30, 2006

परोक्ष

किसी का क़द ज़रा उठ जाए तो सब देख लेते हैं
किसी का पद ज़रा उठ जाए तो सब देख लेते हैं
कहाँ गहराई है किसकी यही सबको नहीं दिखता
कोई बरगद ज़रा उठ जाए तो सब देख लेते हैं

© चिराग़ जैन 

Tuesday, May 9, 2006

इक अदद इन्सान

मैंने कब चाहा कि सिर पर ताज होना चाहिए
बस मिरे माथे पे माँ का इक दिठोना चाहिए

दिल में बेशक़ इक बड़ा अरमां संजोना चाहिए
चंद क़तरे ऑंख में पानी भी होना चाहिए

घर में ख़ुशियों के लिए कालीन या मखमल नहीं
एक छोटा-सा मुहब्बत का बिछोना चाहिए

ऑंसुओं की मूक भाषा को समझने के लिए
हर बशर में इक अदद इन्सान होना चाहिए

प्यार से इनक़ार भी कर दो तो ख़ुश हो जाएगा
कौन कहता है कि बचपन को खिलोना चाहिए

ज़िन्दगी बेशक़ ज़माने को अता कीजे मगर
दो घड़ी ख़ुद के लिए भी वक्त होना चाहिए

ज़िन्दगी को मंच कहते हो तो फिर इस मंच पर
आपका भी तो कोई किरदार होना चाहिए

महफ़िलें केवल ठहाकों के लिए तय हैं यहाँ
ऑंसुओं का जश्न ख़ुद के साथ होना चाहिए

बिन कलम बिन रोशनाई भी ग़ज़ल हो जाएगी
सिर्फ दिल में दर्द का सैलाब होना चाहिए

अश्क़ जब ऑंखों की हद को लांघ जाएँ तो ‘चिराग़’
अपनी बाँहों में सिमट जी भर के रोना चाहिए

© चिराग़ जैन