दीपोत्सव केवल पर्व नहीं अंधियारे को झुठलाने का
ये दिव्य अलौकिक अवसर है, अंतस के दीप जलाने का
भीतर के गहन अंधेरे में जब आशा दीप जलायेगी
जीवन में उजियारा होगा, दीवाली शुभ हो जाएगी
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Thursday, October 19, 2006
Monday, October 9, 2006
मेरे गीतों की दिव्य प्रेरणा
मेरे अन्तर्मन की पावन-सी कुटिया में
मेरे गीतों की दिव्य प्रेरणा बसती है
उसकी ऑंखों से बहती हैं ग़ज़लें-नज्में
कविता होती है जब वो खुलकर हँसती है
हर भाषा, संस्कृति, काल, धर्म और धरती की
हर उपमा उस सौंदर्य हेतु बेमानी है
सारे नष्वर लौकिक प्रतिमानों से ऊपर
सुन्दरता की वो शब्तातीत कहानी है
वो पावनता की एक अनोखी उपमा है
ज्यों गंगाजल से सिंचित तुलसी की क्यारी
वो शबरी के बेरों से ज्यादा पावन है
मन झूम उठे उससे मिल, वो इतनी प्यारी
सारे छल-बल से दूर प्रपंचों से ऊपर
उसके लहजे में इक भोली चालाकी है
शब्दों में वेदऋचा सी पावन सच्चाई
और संवादों में मीठी-सी बेबाकी है
वात्सल्य, प्रेम, अपनत्व, समर्पण से भरकर
उसने मेरी जीवन वसुधा महकाई है
मीरा, राधा, रुक्मणि, यषोदा की मिश्रित
जैसे कान्हा ने मूरत एक बनाई है
दुनिया भर के बौने सम्बन्धों से ऊँचा
मेरा उससे इक अलग अनोखा नाता है
ये नाता इतना पावन, इतना निष्छल है
शृंगार इसे छूकर वन्दन हो जाता है
जब कभी नेह आपूरित नयनों से भरकर
वो छठे-चौमासे मुझको अपना कहती है
तो रोम-रोम खिल उठता है और कानों में
इस सम्बोधन की गूंज देर तक रहती है
वो है मेरी प्रेरणा; इसी कारण शायद
मेरी रचनाओं में वैभत्स्य नहीं मिलता
शृंगार, हास्य, वात्सल्य झलकते हैं लेकिन
फूहड़ता का कोई भी दृष्य नहीं मिलता
उसके जीवन से जीवन ऊर्जा हासिल कर
मैं दुनिया भर की पीड़ाएँ सह लेता हूँ
तूफानी संघर्षों की थकन मिटाने को
मैं कुछ पल इस गंगा तट पर रह लेता हूँ
जब सब थोथे ग्रंथों से मन भर जाता है
तो चुपके से उसका चेहरा पढ़ लेता हूँ
सुन्दरता की सब उपमाएँ जब बौनी हों
तो गीतों में उसकी प्रतिमा गढ़ लेता हूँ
© चिराग़ जैन
मेरे गीतों की दिव्य प्रेरणा बसती है
उसकी ऑंखों से बहती हैं ग़ज़लें-नज्में
कविता होती है जब वो खुलकर हँसती है
हर भाषा, संस्कृति, काल, धर्म और धरती की
हर उपमा उस सौंदर्य हेतु बेमानी है
सारे नष्वर लौकिक प्रतिमानों से ऊपर
सुन्दरता की वो शब्तातीत कहानी है
वो पावनता की एक अनोखी उपमा है
ज्यों गंगाजल से सिंचित तुलसी की क्यारी
वो शबरी के बेरों से ज्यादा पावन है
मन झूम उठे उससे मिल, वो इतनी प्यारी
सारे छल-बल से दूर प्रपंचों से ऊपर
उसके लहजे में इक भोली चालाकी है
शब्दों में वेदऋचा सी पावन सच्चाई
और संवादों में मीठी-सी बेबाकी है
वात्सल्य, प्रेम, अपनत्व, समर्पण से भरकर
उसने मेरी जीवन वसुधा महकाई है
मीरा, राधा, रुक्मणि, यषोदा की मिश्रित
जैसे कान्हा ने मूरत एक बनाई है
दुनिया भर के बौने सम्बन्धों से ऊँचा
मेरा उससे इक अलग अनोखा नाता है
ये नाता इतना पावन, इतना निष्छल है
शृंगार इसे छूकर वन्दन हो जाता है
जब कभी नेह आपूरित नयनों से भरकर
वो छठे-चौमासे मुझको अपना कहती है
तो रोम-रोम खिल उठता है और कानों में
इस सम्बोधन की गूंज देर तक रहती है
वो है मेरी प्रेरणा; इसी कारण शायद
मेरी रचनाओं में वैभत्स्य नहीं मिलता
शृंगार, हास्य, वात्सल्य झलकते हैं लेकिन
फूहड़ता का कोई भी दृष्य नहीं मिलता
उसके जीवन से जीवन ऊर्जा हासिल कर
मैं दुनिया भर की पीड़ाएँ सह लेता हूँ
तूफानी संघर्षों की थकन मिटाने को
मैं कुछ पल इस गंगा तट पर रह लेता हूँ
जब सब थोथे ग्रंथों से मन भर जाता है
तो चुपके से उसका चेहरा पढ़ लेता हूँ
सुन्दरता की सब उपमाएँ जब बौनी हों
तो गीतों में उसकी प्रतिमा गढ़ लेता हूँ
© चिराग़ जैन
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