Tuesday, November 28, 2006

गर्व से कहो हम भ्रष्ट हैं

ओलंपिक हो या आस्कर, क्रिकेट हो या हाॅकी और विज्ञान हो या तकनीक; हमारा देश हमेशा ‘नम्बर वन’ बनने से चूक जाता है। पिछले दिनों एक उम्मीद तब बंधी जब एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने विश्व के सबसे भ्रष्ट राष्ट्र का चयन करने का निश्चय किया।

भ्रष्टाचार हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। न जाने कितने ही मीर ज़ाफरों और जयचंदों ने अपने-अपने समय में ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता की सत्ता को ललकारते हुए विपरीत परिस्थितियों में भी इस कला को जीवित रखने के लिए जान की बाज़ी लगाई थी। मंथरा, शकुनि, वीरभद्र और कंस जैसे अनेक भ्रष्ट शिरोमणियों से हमारे देश की धरती सदैव धन्य होती रही है। इसलिए मुझे विश्वास था कि भ्रष्ट राष्ट्रों की फेहरिस्त में तो हमारा देश अव्वल रहेगा ही। लेकिन हाय रे दुर्भाग्य! 158 देशों के इस सर्वेक्षण में भारत सत्तरवें स्थान पर रहा। हालांकि जापान, चीन और दक्षिण कोरिया जैसे बड़े राष्ट्रों को हमने धता बता दिया लेकिन पाकिस्तान, बांग्लादेश, वियतनाम, फिलीपिन और नेपाल जैसे मुट्ठी भर देश हमें पछाड़ कर आगे बढ़ गए। 

रिपोर्ट पढ़ कर मेरा सिर शर्म से गड़ गया। एक क्षण में ही हमारे राजनेताओं, म्युनिसिपल कमेटियों, लालफीताशाहों, पुलिस, इंजीनियरों, डाॅक्टरों, सरकारी कर्मचारियांे और अध्यापकों के अथक प्रयासों पर पानी फेर दिया गया। अपने देश की महान विभूतियों का ऐसा अपमान देखकर जिस्म के रोमानी प्रदेशों में भयंकर अग्नि धधकने लगी। यह तो गनीमत है कि हमारे समाचार पत्रों का सर्कुलेशन अभी नर्क तक नहीं पहुंच सका है अन्यथा हमारे पूर्वज इस रिपोर्ट को पढ़कर हमें धिक्कारते। इस घटना ने हमें अपने पूर्वजों को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा। एक रिपोर्ट ने हमारे सारे काले कारनामों पर पानी फेरकर हमें धवल तिलक लगा दिया। हमें इस सफेद धब्बे को अपनी काली चादर पर से मिटाना होगा।

मैं अक़्सर कल्पना करता हूँ एक ऐसे भारत की जिसे ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में सर्वाधिक भ्रष्ट राष्ट्र होने का गौरव प्राप्त होगा। चारों ओर भ्रष्टतंत्र का बोलबाला होगा। देश में शांति, सत्य, न्याय, सौहार्द, अहिंसा और सद्भाव जैसे बेकार पड़े मूल्यों के स्थान पर छल-कपट, धोखाधड़ी, ठगी, लूट, रिश्वतखोरी, जालसाजी, कालाबाज़ारी और मिलावट जैसे आदर्श तथा समसामयिक मूल्यों की स्थापना होगी।

बातें करने से क्रांति नहीं आती। इसलिए इस सपने को सच करने के लिए हमें मिलजुल कर देश का नक्शा बदलने के प्रयास करने होंगे। बाज़ार, घर, परिवार, शिक्षण संस्थान और मंदिरों से लेकर गांव, शहर, महानगर, प्रशासन, शासन और संसद आदि में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन करने होंगे ताकि परम आदरणीय, प्रातः स्मरणीय, लोकहितकारी श्री भ्रष्टाचार महोदय देश मंे अपने विराट रूप में अवतार ले सकें।

संसद भवन के भीतरी स्वरूप में कोई विशेष परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है लेकिन बाह्य परिसर में जो स्वतंत्रता सेनानियों और संविधान निर्माताओं की ‘ऊबसूरत’ मूर्तियाँ ‘अशोभायमान’ हो रही हैं; वहाँ हर्षद मेहता जी, रोमेश शर्मा जी, बंगारू लक्ष्मण जी, दिलेर मेहंदी जी, सलमान खुर्शीद जी, ए राजा जी, सुरेश कलमाड़ी जी, राबर्ट वाड्रा जी, ओमप्रकाश चैटाला जी और सलमान खान जी जैसे महान लोगों की ‘खूबसूरत’ मूर्तियां सुशोभित होंगी। जहाँ अम्बेडकर संविधान लेकर संसद की ओर उंगली किए खड़े हैं वहां तेलगी जी हाथ में अपने हाथ से छापे हुए स्टाॅम्प पेपर के सेम्पल लिए मोबाइल पर बात करते दिखाई देंगे। उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश की कुर्सी के पीछे महात्मा गांधी की जगह नटवर लाल का चित्र होगा जिसके नीचे ‘सत्यमेव जयते’ जैसे अव्यवहारिक वाक्य के स्थान पर लिखा होगा ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’। इस प्रकार की व्यवस्था में लोग आत्मनिर्भर बनेंगे तथा अपने दम पर जीवन जीना सीखेंगे।

स्कूलों में बच्चों को जो किताबें पढ़ाई जाएंगी वे होंगी- ‘चाल भारती’, ‘आओ जुगाड़ सीखें’, ‘केस और उनकी निकासी’ तथा ‘हमारे घोटाले’ इत्यादि। राजनीति, चिकित्सा, अध्यापन, आध्यात्म, सुरक्षा, बीमा, परिवहन और यहाँ तक कि केन्द्रीय जाँच ब्यूरो जैसे नास्तिक सम्प्रदायों के लोेग भी एक मत से विराट भ्रष्ट पुरुष के अपावन चरणों में स्वयं को अर्पित कर ‘धननीय’ हो जाएंगे।

जैसे भला करने वालों को हमेशा बुराई ही मिलती है, ठीक इसी प्रकार हमें विश्व में एक गरिमामय पहचान दिलाने वाले आदरणीय भ्रष्टाचार जी को देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा बताया जा रहा है। कितने निकृष्ट हैं हम; अहसान-फरामोश। जब भी कोई हमारे देश की पहचान विश्व में स्थापित करने के लिए आगे बढ़ता है तो हम उसकी टांग खींचने लगते हैं। लेकिन ‘जा को राखे साइयां, मार सके न कोय’। यही कारण है कि सारे विरोध और तिरस्कार के बावजूद महान भ्रष्टाचार जी को कोई उनके पथ से डिगाने में कामयाब न हो सका। तमाम आलोचनाओं को अनदेखा करते हुए एक सच्चे साधक की तरह भ्रष्टाचार महोदय अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ते जा रहे हैं। डाॅ.कुंअर बेचैन का एक शेर है- ‘चलने को एक पांव से भी चल रहे हैं लोग, पर दूसरा भी साथ दे तो और बात है।’ यही स्थिति भ्रष्टाचार जी के साथ भी है।

भ्रष्टाचार जी लोकतंत्रात्मक शासन पद्धति के घोर समर्थक हैं। जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए हमारे उन्होंने भाषण, जलसे और रैलियों जैसे चालू माध्यमों का सहारा न लेकर एक महान शिक्षक की तरह अपने आचरण से यह सिद्ध किया कि उनके साथ रहकर मानव कैसे महान बन सकता है। उन्होंने राजनीति, प्रशासन, खेल, बाज़ार और मंदिरों में ऐसे उदाहरण पेश किए जो उनके बताए पथ पर चलकर रातों रात धनवान तथा मीडियावान बन गए। कहते हैं कि प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। जब जनता जनार्दन ने बंगारू लक्ष्मण जी, तेलगी जी और रोमेश शर्मा जी की कथा मीडिया रूपी व्यास से सुुनी तो अपने घर में भी भ्रष्टाचार भगवान की कथा कराने का निर्णय किया।

धीरे-धीरे मनुष्यों को समझ आने लगा कि कर्तव्य, नैतिकता, भाईचारा, इमानदारी, सच्चाई और मर्यादा जैसे घिसे-पिटे नियमों का पालन तो तुच्छ प्राणी करते हैं, या यूं कहें कि इनका पालन करके मनुष्य तुच्छ हो जाता है। लेकिन जो प्राणी अपना तन-मन-जीवन भ्रष्ट देवता को समर्पित कर देता है उसके गद्दे, कमरे, दीवान, कनस्तर और यहां तक कि सोफे तक भी धन के स्पर्श से पवित्र हो जाते हैं। लक्ष्मी उनकी दासी हो जाती है। घर स्वर्ग बन जाता है, और प्राणी अपने परिवार के साथ अपनी निजि इन्द्रसभा में बैठकर ब्रांडेड सुरा का पान करता है तथा अंतरा, धूपिया, लियोने और बिपाशा जैसी मल्लिकाओं का पावन नृत्य देखता है।

कहते हैं जिस समस्या का कोई समाधान न हो उस समस्या को ही समाधान समझ लेना चाहिए। यूँ तो भ्रष्टाचार स्वयं में कोई समस्या नहीं है लेकिन कुछ असामाजिक तत्वों की बात मान कर यदि एक क्षण के लिए इसे समस्या मान भी लिया जाए तो पिछले छः दशकों से हम अपनी ऊर्जा इस महान कला का विरोध करने में खर्च करते रहे हैं, लेकिन अब समय आ गया है कि इसकी अनुमोदना की जाए तथा इस जुगाड़ यज्ञ में अपने भ्रष्ट कार्यों की आहुति दें।

इससे अनेक लाभ हैं। एक तो देश का नाम पूरे विश्व में रोशन हो सकेगा साथ ही जितना धन जाँच ब्यूरो, न्याय प्रक्रिया, प्राशासनिक कार्यवाहियों तथा आलोचनाओं पर खर्च होता है उसकी बचत होगी। संसद का समय किसी की निजि संपत्ति तथा व्यक्तिगत ज़िंदगी में बर्बाद होने से बच जाएगा और साथ ही साथ उस व्यक्ति विशेष की ज़िंदगी भी बर्बाद होने से बच जाएगी। रिश्वत जैसे हमारी शास्त्रीय परंपरा; जिसे एक प्रोपेगेंडा के तहत बुरा सिद्ध कर दिया गया है; उसका सम्मान बढ़ेगा। लोग एक दूसरे की सहायता के लिए अपने रेट फिक्स कर लेंगे। इससे सरकारी कार्यालयों की कार्यशैली में सुधार होगा तथा कोई भी बेहिचक अपना काम करवाने के लिए वास्तविक तरीके से अवगत हो सकेगा। विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक रिश्वत से हमारी वार्षिक आय केवल 210 अरब रुपये है। इस रकम में बढ़ावा होगा।

जाली नोट बनाना, ड्रग्स बेचना, कालाबाज़ारी, चोरबाज़ारी, लूटपाट, हफ़्ता वसूली आदि मजबूत स्तंभों पर एक नया इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा होगा और बेरोज़गारी की समस्या से निजात मिलेगा। नकली स्टाॅम्प पेपर और सिक्के गलाने जैसे कुटिर उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा।

एक भ्रष्टाचार को स्वीकार करने से कितने सारे लाभ हैं और हमारे समाज के असामाजिक तत्व इस विराट पुरुष को धक्के मार कर बाहर निकालना चाहते हैं। हमारी तरक्की से जलने वाली विदेशी ताकतों के इशारों पर ये लोग जब परम श्रद्धेय भ्रष्टाचार महोदय को गाली देते हैं तो इससे हमारी आत्मा को बहुत ठेस पहुँचती है। ऐसे लोगों ने हमारी भावनाओं को आहत किया है और हमें इस अपराध के लिए उन्हें मुंह तोड़ जवाब देना होगा। आओ देश के होनहार नागरिकों आज यह शपथ लें कि- ‘हम भारत के लोग भारत को एक भ्रष्टसत्ता सम्पन्न, सम्पूर्ण जुगाड़वादी, लूटतंत्रात्मक राज्य बनाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे......’

© चिराग़ जैन

Sunday, November 19, 2006

दिल की ज़मीं

आज उस चेहरे पे मंज़िल की ख़ुशी भी देखी
और उन आँखों में कल तक की नमी भी देखी
लोग बस जिस्म तक आते थे चले जाते थे
इक मगर तूने मेरे दिल की ज़मीं भी देखी

© चिराग़ जैन

Thursday, November 9, 2006

प्रभु की वन्दना

नानक, कबीर, महावीर, पीर, गौतम को
पंथ-देश-जातियों का नाम मत दीजिए
जिनने समाज की तमाम बेड़ियाँ मिटाईं
उन्हें किसी बेड़ी का ग़ुलाम मत कीजिए
मन के फ़कीर अलमस्त महामानवों को
रूढ़ियों से जोड़ बदनाम मत कीजिए
प्राणियों के प्रति प्रेम ही प्रभु की वन्दना है
भले किसी ईश को प्रणाम मत कीजिए

© चिराग़ जैन

Monday, November 6, 2006

सम्मान नहीं, अपनापन दो!

अभिनन्दन की मालाओं के फूलों की गंध नहीं भाती
अनुशंसा और प्रशंसा से मुख पर मुस्कान नहीं आती
कोई अभिलाषा शेष नहीं, यश-वैभव-कीर्ति प्रसारण की
ये दुनियादारी की बातें मन को न घड़ी भर ललचाती
या पूर्ण समर्पित होने दो, या मुझको पूर्ण समर्पण दो
सम्मान नहीं, अपनापन दो!

झूठे अनुशंसी शब्दों में भावों का तत्व नहीं मिलता
झूठी चिपकी मुस्कानों में अन्तस् का सत्व नहीं मिलता
माना पत्तल के भोजन से उत्तम हैं छप्पन भोग मगर
दुर्योधन के आमंत्रण में, वैसा अपनत्व नहीं मिलता
मेरे भीतर के कान्हा को निश्छल निस्पृह वृंदावन दो
सम्मान नहीं, अपनापन दो!

मेरे भीतर के बालक को मुखरित कर दे; कोई ऐसा हो
अभिभावक बन मेरे सिर पर कर तल धर दे; कोई ऐसा हो
बौद्धिकता के झंझावातों से जीवन शुष्क हुआ सारा
मेरी चंचलता की वंशी में स्वर भर दे; कोई ऐसा हो
मेरी कृत्रिम तस्वीर हटा, मुझको अन्तस् का दर्पण दो
सम्मान नहीं, अपनापन दो!

मालाओं और दुशालों से अब कंधे थककर चूर हुए
फोटो खिंच जाने तक हम सब मुस्काने को मजबूर हुए
हाथों की रग-रग दुखती है, अब अभिवादन की मुद्रा से
तमगों की पाॅलिश उतर गई, सम्मान सभी बेनूर हुए
छोड़ो झूठी व्यवहारिकता, इक नेह भरा आलिंगन दो
सम्मान नहीं, अपनापन दो!

✍️ चिराग़ जैन

Friday, November 3, 2006

कामना

प्रेम, शांति और सौम्यता, सबका हो विस्तार
सबके जीवन में भरे, प्यार, प्यार और प्यार 

© चिराग़ जैन