लाख अवगुंठन छिपाएँ प्रीत का मुखड़ा
कुछ झलक तो आएगी ही आवरण के पार
जब हृदय में नेह के बिरवे नए पल्लव संजोएँ
और आकर्षण खिले मन में सुवासित गंध लेकर
तब नयन की कोर पर आकर ठहरता है निवेदन
श्वास जाती है प्रिये के द्वार तक संबंध लेकर
भावनाओं का अनूठा-अनलिखा यह गीत
है हर इक भाषा नियम और व्याकरण के पार
जब किसी के शब्द मन में मंत्र बनकर गूंजते हों
और उसके पार मन का मृग कुलाचें भर न पाए
हर गगन, सागर, क्षितिज, अनहद सिमट आए उसी में
कल्पना उस गात तक पहुँचे तो फिर वापस न आए
प्रेम से भीगा हृदय जी ही नहीं सकता
एक पल भी नेहमय वातावरण के पार
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Sunday, March 25, 2007
प्रेम से भीगा हृदय
Labels:
Chirag Jain,
Geet,
Love,
Philosophy,
Poetry,
Romantic Poetry,
गीत,
छूकर निकली है बेचैनी,
पद्य
Location:
Delhi, India
Thursday, March 1, 2007
होली
सबके जीवन में भरें पावनता के रंग
ऐसी रंगत लाए अब, होरी अपने संग
अब ऐसे मनने लगा, होली का त्यौहार
चेहरे स्याह-सफेद हैं, रंगे हुए अख़बार
भूले से भी मत करो, पॉवर का मिस-यूज़
भस्म हो गई होलिका, उड़ा पाप का फ्यूज़
© चिराग़ जैन
ऐसी रंगत लाए अब, होरी अपने संग
अब ऐसे मनने लगा, होली का त्यौहार
चेहरे स्याह-सफेद हैं, रंगे हुए अख़बार
भूले से भी मत करो, पॉवर का मिस-यूज़
भस्म हो गई होलिका, उड़ा पाप का फ्यूज़
© चिराग़ जैन
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