कर्ता का सम्मान कहां है
ऐसा यहां विधान कहां है
राम-कृष्ण हैं, हर मंदिर में
तुलसी या रसखान कहां है
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Sunday, May 22, 2011
निस्पृह
तुम
हर बार तलाश लेती हो
कोई नई वजह
नकारने की।
...और मैं
हर बार
बिना वजह
स्वीकार लेता हूँ
मन ही मन।
हर बार बदल जाता है
तुम्हारा बहाना
हर बार तलाश लेती हो
कोई नई वजह
नकारने की।
...और मैं
हर बार
बिना वजह
स्वीकार लेता हूँ
मन ही मन।
हर बार बदल जाता है
तुम्हारा बहाना
...और मैं
हर बार
बिना वजह
कर बैठता हूँ
गुज़ारिश।
मैं हर बार रहता हूँ
वैसा का वैसा
क्योंकि मैंने
कभी तलाशी ही नहीं
कोई वजह
तुम्हें चाहने के लिए।
© चिराग़ जैन
हर बार
बिना वजह
कर बैठता हूँ
गुज़ारिश।
मैं हर बार रहता हूँ
वैसा का वैसा
क्योंकि मैंने
कभी तलाशी ही नहीं
कोई वजह
तुम्हें चाहने के लिए।
© चिराग़ जैन
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