यूं तो सारी राहें मैंने सोच समझ कर चुन रखी थीं
चंद मुश्क़िलें अपनेपन का स्वांग रचाकर साथ आ गईं
पथ में कोई बवेला कब था
राही भला अकेला कब था
किसको, कब, क्या कहना होगा
-इन प्रश्नों का रेला कब था
किस बीहड़ में, किस पोखर पर, कितना पानी, कब पीना है
इन सारे प्रश्नों की चिंता आंख बचाकर साथ आ गई
जीवन में संत्रास न होता
पीड़ा का एहसास न होता
राहों से भी बातें करते
मंज़िल का ही पास न होता
इसकी ख़ातिर ये करना है, उसकी ख़ातिर वो करना है
कई योजनाएँ ऐसी ही, नेह बढ़ाकर साथ आ गई
केवल श्वास ज़रूरी रहती
और न कुछ मजबूरी रहती
दुनिया वाले क्या सोचेंगे
-इन प्रश्नों से दूरी रहती
इस दुनिया की जो परिपाटी, हम दुनिया को दे आए थे
वो परिपाटी भी दुनिया से, हाथ छुड़ाकर साथ आ गई
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Sunday, July 28, 2013
Wednesday, July 24, 2013
भीगा मन
झमाझम बारिश
दिल्ली यूनिवर्सिटी कैम्पस
भीगते हुए लड़के-लड़कियाँ
लटों से फिसल कर टपकती बूंदें
फर्राटे से पानी उछालती गाड़ियाँ
मस्ती में किलकारता यौवन
मोटर-बाइक पर आलिंगनबद्ध प्रेम
ग्वाॅयर हाॅल कैंटीन की मैगी
चाय की चुस्कियाँ
काॅलेज-डेज़ की यादें
किसी पुराने परिचित से मुलाक़ात।
...और भीगे मन की
भीगी-सी आवाज़
...चल, भीगते हैं यार।
© चिराग़ जैन
दिल्ली यूनिवर्सिटी कैम्पस
भीगते हुए लड़के-लड़कियाँ
लटों से फिसल कर टपकती बूंदें
फर्राटे से पानी उछालती गाड़ियाँ
मस्ती में किलकारता यौवन
मोटर-बाइक पर आलिंगनबद्ध प्रेम
ग्वाॅयर हाॅल कैंटीन की मैगी
चाय की चुस्कियाँ
काॅलेज-डेज़ की यादें
किसी पुराने परिचित से मुलाक़ात।
...और भीगे मन की
भीगी-सी आवाज़
...चल, भीगते हैं यार।
© चिराग़ जैन
Tuesday, July 23, 2013
यकीन का धागा
या तो रिश्तों में सवालात को शुमार न कर
या जवाबों की हक़ीक़त पे ऐतबार न कर
पार ले जाएगा तुझको यकीन का धागा
तू किसी और सफ़ीने का इंतज़ार न कर
© चिराग़ जैन
या जवाबों की हक़ीक़त पे ऐतबार न कर
पार ले जाएगा तुझको यकीन का धागा
तू किसी और सफ़ीने का इंतज़ार न कर
© चिराग़ जैन
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Sunday, July 21, 2013
बंदिशें मुस्कान पर
लोग अब दौलत तिजोरी में कमाकर रख रहे हैं
और कुछ हैं जो बाज़ारों में धमाके रख रहे हैं
रख रही है जब सियासत बंदिशें मुस्कान पर
तब यहाँ कुछ लोग जीवन में ठहाके रख रहे हैं
© चिराग़ जैन
और कुछ हैं जो बाज़ारों में धमाके रख रहे हैं
रख रही है जब सियासत बंदिशें मुस्कान पर
तब यहाँ कुछ लोग जीवन में ठहाके रख रहे हैं
© चिराग़ जैन
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Thursday, July 18, 2013
मिलावट
ढाया है दरिंदों ने क्या कहर निवालों में
बच्चों को परोसा है, कल ज़हर निवालों में
क्या सोच के आया था, वो पहर निवालों में
किस क़द्र ठगा सा है, इक शहर निवालों में
© चिराग़ जैन
बच्चों को परोसा है, कल ज़हर निवालों में
क्या सोच के आया था, वो पहर निवालों में
किस क़द्र ठगा सा है, इक शहर निवालों में
© चिराग़ जैन
Monday, July 8, 2013
बामियान के घाव
बहुत भयानक सपना था
साक्षात् बुद्ध सामने थे
...लहूलुहान।
उनके पीछे एक भीड़ थी
...पूरी भीड़।
हताश से महावीर
परास्त से गांधी
और शर्मिंदा से पैग़म्बर
किसी गहरे सदमे से सन्न राम
किसी आशंका से त्रस्त कृष्ण
और
ख़ुद से नज़रें चुराते अम्बेडकर।
सब थे
...पर बदहवास।
सबके जिस्म छलनी थे
ज़ख़्म ही ज़ख़्म
हाँ, बुद्ध के ज़ख़्म कुछ ताज़ा थे
भयंकर मंज़र था
साँस तक का शोर नहीं था
तभी सन्नाटे में
टप्प से टपकी
लहू की एक बूंद।
...बस सपना टूट गया
बाॅलकनी में
अख़बार आकर गिरा था
...टप्प से।
© चिराग़ जैन
साक्षात् बुद्ध सामने थे
...लहूलुहान।
उनके पीछे एक भीड़ थी
...पूरी भीड़।
हताश से महावीर
परास्त से गांधी
और शर्मिंदा से पैग़म्बर
किसी गहरे सदमे से सन्न राम
किसी आशंका से त्रस्त कृष्ण
और
ख़ुद से नज़रें चुराते अम्बेडकर।
सब थे
...पर बदहवास।
सबके जिस्म छलनी थे
ज़ख़्म ही ज़ख़्म
हाँ, बुद्ध के ज़ख़्म कुछ ताज़ा थे
भयंकर मंज़र था
साँस तक का शोर नहीं था
तभी सन्नाटे में
टप्प से टपकी
लहू की एक बूंद।
...बस सपना टूट गया
बाॅलकनी में
अख़बार आकर गिरा था
...टप्प से।
© चिराग़ जैन
Saturday, July 6, 2013
धर्म-युद्ध
पुरखों ने उदाहरण प्रस्तुत किया कि युद्ध के माहौल में भी धर्म की चर्चा की जा सकती है, हमने उदाहरण प्रस्तुत किया कि धर्म की चर्चा में भी युद्ध किये जा सकते हैं।
© चिराग़ जैन
© चिराग़ जैन
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