गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Tuesday, March 29, 2016
वक़्त की सरहदें
और सारे नियम देखते रह गए
इश्क़ हम पर ठहाके लगाता रहा
हम मुहब्बत के ग़म देखते रह गए
लोक-परलोक की धारणा से परे
शबरियों की प्रतीक्षा अटल ही रही
लोग कहते हैं राधा वियोगिन बनी
कृष्ण से पूछिये वो सफल ही रही
प्रेम से मृत्यु का भय पराजित हुआ
स्तब्ध से मौन यम देखते रह गए
एक कच्चे घड़े पर भरोसा किए
सोहनी तेज़ धारा में ग़ुम हो गई
कैस दर-दर भटकता रहा उम्र भर
और लैला सहारा में ग़ुम हो गई
रूह का आसमां में मिलन हो गया
जिस्म धरती पे हम देखते रह गए
कोई तो इस ज़माने को समझाइये
क़ायदे बावरों को सिखाता रहा
जो दीवाने हुए प्रेम के पान से
उनको विष के पियाले पिलाता रहा
प्रेम विषपान करके अमर हो गया
सारे ज़ुल्मो-सितम देखते रह गए
© चिराग़ जैन
Saturday, March 26, 2016
कल सँवर जाऊंगा
मैं दिखावा कभी भी न कर पाउँगा
मैं ग़लत को ग़लत ही कहूँगा सदा
झूठ बोला कभी तो बिखर जाउँगा
बस किसी एक झूठी ख़ुशी के लिए
भ्रम तुम्हें सौंप दूँ ज़िन्दगी के लिए
सत्य तो सत्य ही है सभी के लिए
अब बुरा होउंगा कल सँवर जाउंगा
आज कर्तव्य गर ये निभाऊँ नहीं
भ्रम तुम्हारा अगर तोड़ पाऊँ नहीं
और ख़ुद से नज़र मैं मिलाऊँ मैं
कुछ ठिकाना नहीं फिर किधर जाउंगा
यूँ अगर आज रिश्ता निभाना पड़े
हर किसी बात पर सिर झुकाना पड़े
सच समझते हुए मुँह चुराना पड़े
तन जियेगा मगर मन से मर जाऊंगा
आज तुमको अगर पा लिया झूठ से
दोस्ती का दिखावा किया झूठ से
गर तुम्हें आज बहला लिया झूठ से
देखना एक दिन मैं मुकर जाऊंगा
Wednesday, March 23, 2016
कैसे खेलें होली
ऐसी आफ़त आई जी, मोदी कैसे खेलें होली
फ्यूज़ उड़ा कर गए केजरी दिल्ली ली हथियाई
उधर जाट सब फेल कर गए पानी की सप्लाई
धोती ना धुल पाई जी
मोदी कैसे खेलें होली
रास चल रहा जेएनयू में बिना डरे बिन सहमे
उधर कूद गए रविशंकर जी स्वयं कालिया दह में
रोई जमुना माई जी
मोदी कैसे खेलें होली
ड्रीम गर्ल तो साफ कर रही मथुरा वाला पानी
और मिनिस्टर बन बैठी है गुजरातन ईरानी
ख़ुद की दूर लुगाई जी
मोदी कैसे खेलें होली
बचपन बीता हाथ उठाए केतलिया का हत्था
और बुढ़ापे में निरखत हैं जेटलिया का मत्था
यूँ ही उमर गंवाई जी
मोदी कैसे खेलें होली
तीन राज्य तो गँवा चुका है अमित शाह का फंडा
अब डंके की चोट बज रहा आरएसएस का डंडा
लुटिया रहे डुबाई जी
मोदी कैसे खेलें होली
गठबंधन ने बीजेपी से पटना हथिया लीना
धीरे धीरे सिकुड़ रहा है छप्पन इंची सीना
गैया काम न आई जी
मोदी कैसे खेलें होली
दिल्ली वाले वोट बैंक पर पड़ा विपक्षी डाका
हरियाणा को ले बैठेंगे इक दिन खट्टर काका
घाटी ले गई ताई जी
मोदी कैसे खेलें होली
विजय माल्या लेकर भागे पैसा नंबर वन का
अब भी सपना देख रहे हो क्या तुम काले धन का
कैसे करें उगाही जी
मोदी कैसे खेलें होली
धर्म कर्म की बाजारों में ऐसी तैसी हैगी
रविशंकर जी कल्चर बेचें, रामदेव जी मैगी
फैशन राधा माई जी
मोदी कैसे खेलें होली
© चिराग़ जैन
Tuesday, March 22, 2016
अमन की ज़रूरत है
इसे कोई फालतू बबाल नहीं चाहिए
शासक को चाहिए सुशासन बनाए रखे
व्यर्थ बकवाद, झोलझाल नहीं चाहिए
जनता को भरपेट रोटी चाहिए सुकूं की
धरना या भूख हड़ताल नहीं चाहिए
यदि संविधान का हो पूरी तरह पालन तो
फिर हमें कोई लोकपाल नहीं चाहिए
✍️ चिराग़ जैन
Wednesday, March 9, 2016
फ़िल्मी बतोले : "क्यों भैया, ये सरकार ने विजय माल्या को तभी क्यों नहीं पकड़ लिया जब वो भारत में था?" डायलॉग- "हम तुम्हें पकड़ेंगे माल्या। लेकिन वो ज़मीन भी हमारी नहीं होगी, देश भी हमारा नहीं होगा और वक़्त भी हमारा नहीं होगा।"
"क्यों जी, ये बैंकों ने माल्या को इतना लोन कैसे दे दिया?" डायलॉग- "कौन कम्बख़्त ज़माने के लिये बनाता है, हम तो बनाते हैं ताकि उसे पीकर बैंक वाले लोन का अमाउंट पढ़ न सकें।"
"ये श्री श्री रविशंकर पाँच करोड़ रुपये के लिये मुक़द्दमेबाज़ी करता अच्छा लगेगा?" डायलॉग- "तारीख़ पे तारीख़, तारीख़ पे तारीख़, तारीख़ पे तारीख़ मिलती रहेगी, लेकिन इन्साफ़ नहीं मिलेगा। और जब तक इन्साफ़ मिलेगा तब तक हम जमुना के किनारे को साफ़ कर चुके होंगे मीलॉर्ड।"
"वर्ल्ड कल्चरल फ़ेस्टिवल में मोदी जी के लिये अलग मंच बनाने की क्या ज़रूरत?" डायलॉग- "डाबर साहब, कुछ साल पहले हम लालकिले से भाषण देना चाहते थे, और हमने अपना मंच लालकिले जैसा बना लिया था। …मैं आज भी बने-बनाए मंच पर नहीं जाता।"
"केजरीवाल को कराची लिटरेचर फ़ेस्टिवल में जाने की इज़ाज़त मिलेगी या नहीं?" डायलॉग- "एक काग़ज़ पर मुहर नहीं लगेगी तो का केजरी पाकिस्तान नहीं जाएगा? अरे चाहे सल्लू मियां की पद्दी पर लदकर जाना पड़े लेकिन उसे कराची जाकर अपना साहित्य प्रेम दिखाने से कोई सरहद, कोई ताक़त नहीं रोक सकती।"
"भैया पाकिस्तान की क्रिकेट टीम को सुरक्षा की लिखित गारंटी क्यों चाहिये?" डायलॉग- "जिनके घर शीशे के होते हैं, वो दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते।"
© चिराग़ जैन
Tuesday, March 8, 2016
नारी
उसके अंतस् की भाषा में
मर्यादा पार हुई भी तो
कुछ सत्कर्मों की आशा में
तुम तुला उठाए फिरते हो
पलड़े में रखे चरित्रों को
मुट्ठी में स्वार्थ पसीज गया
पापी कर दिया पवित्रों को
जब जी चाहा पाहुन धोकर
कन्यापूजन में बिठा लिया
जब जी चाहा दासी कहकर
बिस्तर की वस्तु बना दिया
जब जी चाहा शृंगार किया
जब जी चाहा दुत्कार दिया
चुटकी से उसकी मांग भरी
पंजे से चीर उतार दिया
हाथों को बेड़ी देते हो
पैरों को छाले देते हो
इतिहास प्रश्न करता है तो
फिर वही मिसालें देते हो
लक्ष्मी कहकर इतराते हो
दुर्गा कहकर डर जाते हो
मंदिर में पूजा करते हो
मंडी में दाम लगाते हो
जब घिरा अंधेरा रातों का
औरत से रात निखारी है
जब सुबह हुई तो बिस्तर से
सिलवटें समझ कर झाड़ी है
उसने निस्पृह भक्ति ढूंढी
मीठी बातों के दर्पण में
तुमको केवल वासना दिखी
प्रेयसी के मौन समर्पण में
जब तक बन पड़ा अधर सीकर
कीचक तक का सम्मान किया
जब सीमा रेखा पार हुई
सारा कुल लहूलुहान किया
शबरी बन अद्भुत प्रेम किया
मीरा बनकर विषपान किया
सीता बन अग्नि परीक्षा दी
लक्ष्मी बन शर संधान किया
© चिराग़ जैन
आजकल दिल्ली का मौसम कुछ अजीब हो गया है। इस बार धूप गुलाबी होने से पहले ही चिलचिलाने लगी है। वसन्त की फुलवारी अभी ठीक से मुस्कुरा ही पाई थी कि आकाश में मंडराती चीलों की आवाज़ ने माहौल को एक मनहूस वीराने से ढाँप लिया। रंगों के नाम पर कुछ है तो बस पलाश, वो भी रह रहकर ऐसे टूट कर भूशायी होते हैं कि सौंदर्य की डोर पकड़ कर उभरता काम, क्षणभंगुरता के तथागत भाव से वनोन्मुखी हुआ जाता है। दिल्ली की सडकों पर निकलो तो पता चलता है कि पलाश के ही दो रंगों का सारा खेल चल रहा है। ज़्यादातर पेड़ों पर गहरा लाल रंग बड़बोला सा आसमान से बातें करता दिखाई देता है। कहीं-कहीं भगवा रंग भी है, लेकिन इस भगवा की ख़ूबसूरती लाल वाले दरख्तों की भीड़ में दब रही है। हाँ, हरे पत्ते दोनों ही से पूरी तरह नदारद हैं। कहीं किसी पेड़ पर दो-चार पत्ते बचे भी हैं, तो वे वृक्ष को फूलते देख उनके रंग पीले पड़ गए हैं। नीम, पीपल और जामुन के पुराने दरख़्त नए मौसम में उपेक्षित से खड़े हैं। बेपरवाह हवाओं ने उनके पास से गुज़रते हुए जो शरारत की है, उससे शर्मिंदा होकर वे ज़मीन में गड़े जा रहे हैं। ज़मीन अपने मूल से कटकर गिरे पत्तों की जर्जर देह से पट गई है। हवा का झोंका इन सूखे पत्तों को ज़रा सा छेड़ देता है तो ये एक दूसरे से टकराने लगते हैं। इससे एक खड़खड़ाहट की आवाज़ पैदा होती है। धरती ठहाका मार कर अपने जिस्म पर रेंगते इन कृतघ्नों पर हँसती है और हवाएँ मौसम की नमी सोखती हुईं दूर निकल जाती हैं। © चिराग़ जैन
शिखरों का निर्माण
पीड़ा भोगी और किसी ने, कोई और महान हुआ है
लंका हो या अवधपुरी हो, सब ही ने ली अग्निपरीक्षा
धोबी के आक्षेपों की भी, मन में कर ली स्वयं समीक्षा
नष्ट सभी ने सीताओं का, सारा सुख-सौभाग किया है
रावण ने अपहरण किया था, राघव ने परित्याग किया है
जो मर्यादित थे उनका भी, पल में अलग विधान हुआ है
पीड़ा भोगी और किसी ने, कोई और महान हुआ है
मथुरा जाने के निर्णय में, राधा की स्वीकृति भी थी क्या
राजपथों पर बढ़ते पग ने, पगडण्डी की पीर सुनी क्या
कौरव, पाण्डव, शकुनी, गीता, नगरी स्वर्ग लजाने वाली
याद नहीं आई पल भर भी, वो पगली बरसाने वाली
उदय किसी का तब ही संभव, जब कोई अवसान हुआ है
लक्ष्मण ने निजधर्म निभाया, उर्मिल भीतर-भीतर रोई
घिरा इधर अभिमन्यु अगर तो, उधर उत्तरा सिसकी कोई
गौतम की कुण्ठा को झेले एक अहिल्या पत्थर बनकर
रजवाड़ों की आन बचाई, पद्मिनियों ने जौहर रचकर
आधारों पर पैर टिकाकर, शिखरों का निर्माण हुआ है
© चिराग़ जैन
Friday, March 4, 2016
देश की रीढ़ में दीमक
हमें ज़िद है
वो बस रस्में निभाए जा रहे हैं
हमें ज़िद है कि उनको ख़ुश रखेंगे
वो हमको आज़माए जा रहे हैं
© चिराग़ जैन