Wednesday, December 21, 2016

अलविदा 2016

कड़वी यादों के संग बीता दो हज़ार सोलह का साल
ऐसी उथल-पुथल थी इसमें, कोई पाया नहीं संभाल 
अभी साल प्रारंभ हुआ था, चढ़े दूसरे सूरजदेव
वायुसैनिकों के सम्मुख थे आतंकों के अधम कुटेव
पश्चिम में आतंक चढ़ा तो पूरब में दहला इम्फाल
भारत भर को स्तब्ध कर गया, तीन जनवरी का भूचाल
अभी संभल भी नहीं सके थे, काश्मीर तक पसरा क्लांत
सात जनवरी उगी, हो गए मुख्यमंत्री मुफ्ती शांत
दस दिन बीते सत्रह तारीख आई तो गहराया घाव
छोड़ गए दुनिया सिक्किम के राज्यपाल वी रामाराव
लुप्त हो गया मृणालिनी संग कत्थक का गुजराती कोष
तबला सिसक-सिसक कर रोया छोड़ गए जब शंकर घोष
क्रूर काल ने इतने भर से किंचित पाया नहीं विराम
छीन लिया हमसे किसान का योग्य पूत जाखड़ बलराम
व्यंग्य चित्र गंभीर हो गए चले गए तैलंग सुधीर
निदा फ़ाज़ली छोड़ गए फिर खड़ी रह गई ग़ज़ल अधीर
इसी बीच जेएनयू सुलगा, देशद्रोह की फैली आग
चंद लफंगों ने आ नोचा, भारत माँ का सुभग सुहाग
छाती पर बर्फीला पर्वत झेल गए जो पच्चीस फीट
झेल न पाए वो हनुमनथप्पा दिल्ली की मैली छींट
देशद्रोह का शोर-शराबा बढ़ता रहा, सरे-बाज़ार
राजनीति ने देशप्रेम को बना लिया वोटिंग औज़ार
काश्मीर में दंगे भड़के, घायल होते रहे जवान
दंगइयों का नायक बनकर उभर गया वानी बुरहान
हिंसा, पत्थरबाज़ी, कफर््यू और राजनीति की ओट
घाटी नर्क बन गई पूरी, हुई अमन के तन पर चोट
इसी बीच हो गया उड़ी में सैन्य शिविर पर हमला हाय
भारत का धीरज तब डोला, दिया पाक को पाठ पढ़ाय
घर में घुसकर ध्वस्त कर दिए आतंकों के काले काक
दिया धूर्त को उत्तर ऐसा रहा झाँकता बगलें पाक
बजा चुनावी बिगुल लखनऊ की थी हर मर्यादा पार
चाचा और भतीजा झगड़े, शर्मिंदा पूरा परिवार
आ पहुँचा तब आठ नवम्बर, बजे रात के साढ़े आठ
पीएम ने कुछ ऐसा बोला, नोट हो गए बारह बाट
काले धन पर चोट हुई या आतंकों की खुल गई पोल
ठीक हुआ है, ग़लत हुआ है, सबके अपने-अपने ढोल
नकदी का संकट गहराया, ठप्प हो गया सब व्यापार
बैंकों के भीतर हैं घपले, मुल्क बन गया सिर्फ कतार
समझ नहीं पाया है कोई, अर्थतंत्र का अद्भुत खेल
पूरा देश कतार बन गया, और पटरी से उतरी रेल
मिले सूर जो थारो-म्हारो से हर कर जग की तृष्णा
बंद हुआ आलाप चले गए, एम बालामुरलीकृष्णा
फिर उर्दू-हिन्दी के बेटे, बेकल उत्साही का शोक
जयललिता की हुई विदाई, लगा बिलखने दक्षिणलोक
पीड़ा का अम्बार वर्ष भर हर दिन दूना-दून हुआ
अनुपम मिश्र हुए माटी और बिन पानी सब सून हुआ
इसी वर्ष में दो प्रांतों के मुखिया बने काल के ग्रास
इसी वर्ष में दो-दो सीडी आई बरपा नैतिक ह्रास
इसी वर्ष में भारत माँ का हुआ कष्टदायी अपमान
इसी वर्ष जैन संत की भूषा पर भी उठा बयान
भारत की जनता पर इतनी कृपा करो मेरे भगवान
बीत गई सो बात गई अब नवल वर्ष हो नवल विहान

© चिराग़ जैन

Tuesday, December 20, 2016

प्रेम के इक ताल में

आजकल मुझसे न पूछो, कब उगा सूरज गगन में
आजकल मैं प्रेम के इक ताल में उतरा हुआ हूँ

बुद्धि का मत है विकलता मौन से होगी नियंत्रित
किन्तु हर इक रोम अब वाचाल हो बैठा अचानक
अब गिरा या तब गिरा का एक कौतुक चल रहा है
मन मुआ मोती भरा इक थाल हो बैठा अचानक
भाग्य है जिसका चुभन स्वीकार कर शृंगार करना
आजकल मैं उस कढ़े रूमाल में उतरा हुआ हूँ

कल्पना शालीनता के छोर से आगे बढ़ी है
प्रेम मन की देहरी को लांघ तन पर छा रहा है
कनखियों से देख कर वो झट पलट लेती निगाहें
इस झिझक को देख मेरा मन प्रफुल्लन पा रहा है
दृष्टि मेरी भाँप कर वो ढाँपती जिससे स्वयं को
मैं अभी उस लाल ऊनी शाॅल में उतरा हुआ हूँ

© चिराग़ जैन

Monday, December 19, 2016

श्रद्धांजलि : अनुपम मिश्र जी को

सूखी बावड़ी
बिलख कर रोई है आज;
सूखे कुओं की कागलें
क्षण भर छलछला कर
सूख गई हैं फिर से;
जर्जर तालाबों की मिट्टी
बैठ गई है थक कर!

पानी की पीर को
बानी देने वाली आवाज़
ख़ामोश हो गई है आज।
सूखे स्रोतों से बतिया कर
जो तर कर देता था उनका दामन
वो निःशब्द हो गया है।

एक पानीदार कहानी
अचानक
गुम हो गई है
किसी पुरानी अभागी नदी की तरह।
धाराओं की बीमारियाँ
तलाशती उँगलियाँ
टटोल नहीं पाईं
अपनी काया को जकड़ रहे
केकड़े का शिकंजा।

किसी मीठे तालाब की
आख़िरी बूंद सूखने जैसा है ये पल
किसी मीठी बावड़ी के
पाट दिए जाने जैसा है
ये समाचार
किसी लबालब कुँए के
रीत जाने जैसा है ये अवसाद

...अनुपम मिश्र को
जिन्होंने जाना है
उनकी आँखें छलकी नहीं हैं;
सूख गई हैं!

© चिराग़ जैन


Friday, December 2, 2016

केदारनाथ धाम का उलाहना

देखकर तुमको
पुलककर खोल दूंगा द्वार
इस भ्रम में नहीं रहना!

याद रखना, सर्द बर्फीली हवा से भागकर
तुम मधुर मनुहार के हर इक नियम को त्यागकर
छोड़ जाते हो कड़कती ठण्ड से बन स्वार्थी
बर्फ़ के वीरान जंगल में अकेला, बेसहारा
ये सभी कुछ भूलकर तुमसे मिलूंगा; मैं निरा ईश्वर नहीं हूँ।
फिर मिलेगा भक्ति का अधिकार
इस भ्रम में नहीं रहना!

जिन धमनियों और शिराओं की उफनती वीथियों में
तुम रवां करते रहे हो, रोज़ मंत्रोच्चार के संग
प्रेम के, अपनत्व के औ आस्था के दीप अनगिन
वे नसें जमने लगी हैं, बर्फ के नीचे सिमटकर
इस दफ़ा उनका पिघलना भी असंभव जान पड़ता है।
फिर उठेगा इन रगों में ज्वार
इस भ्रम में नहीं रहना!

सच कहो, यह प्रेम क्या बस स्वार्थ का दर्पण नहीं है
क्या तुम्हारा प्राथमिक उद्देश्य पर्यटन नहीं है
रोज़ इन दुर्गम पहाड़ों में
हवा जब इस घिनौने प्रेम का आकाश तक उपहास करती है
मैं अकेला सिर झुकाए, ढोंग के संबंध का बोझा उठाता हूँ
फिर छलोगे तुम मुझे इस बार
इस भ्रम में नहीं रहना!

© चिराग़ जैन