Tuesday, January 31, 2017

सरस्वती वंदना

वाणी, विद्या, वीणा, विमर्श
लालित्य, लास्य, लय, लोमहर्ष
व्याकरण, वर्ण, वैभव, विचार
अभिव्यक्ति, अल्पना, अलंकार
भाषा, भूषण, भाषण, भविष्य
दर्शन, दीपक, दादरा, दृश्य
नवरस, नाटक, नूपुर, निनाद
सरगम, संस्कृति, साधना, साध
तूलिका, ताल, ताण्डव, तुरंग
मुद्रा, मृदुता, मंचन, मृदंग
कल्पना, कण्ठ, कविता, कहास
रूपक, रचना, रस, रंग, रास
गायन, गीता, गंधर्व, गीत
पूजा, पुराण, पद, प्रेम-प्रीत
संगीत, सृजन, सुर, स्वर, सुगंध
वंशी, वनिता, विद्वत, वसंत

इन सब शब्दों का एक सार
माँ हंसवाहिनी का सिंगार
हो शोक, हर्ष, आनंद, खेद
है नहीं सृजनपथ रंच भेद
स्तंभित अतीत है मूर्तिमान
चित्रों में आगत की उड़ान
अनुभव पर है इतिहास शेष
कल्पना खोजती भविष देश
करती कविता युग का बखान
तब दर्पण देखे वर्तमान
हर काल-देश की व्यक्त शक्ति
हर सृजन साधना आप भक्ति
वाणी को कर दो दिव्य धाम
स्वाकार करो मेरा प्रणाम

© चिराग़ जैन

Friday, January 27, 2017

बंद कपाटों पर तुम आए

इस जीवन में चूक हुई है, बंद कपाटों पर तुम आए
आँखों तक अँधियारा पैंठा, तब तुमने कुछ दीप जलाए
अब इन दीपों के ईंधन से, केवल ऊष्मा ग्रहण करूंगा
अगले जन्म अगर आया तो, उजियारों का वरण करूंगा

शास्त्र बनाते मोक्षपथिक पर, प्यास मुझे इक और जन्म की
बहुत जटिल लगती हैं मुझको, नीरस बातें ज्ञान-धर्म की
पुण्य बढ़े तो स्वर्ग-सुखों में, मुझको निश्चित ला पटकेंगे
मैं उस लोक रहूंगा व्याकुल, मन के भाव यहाँ भटकेंगे
तुमको छूकर बच सकता हूँ, तुमको निश-दिन स्मरण करूंगा
जिसको जगत् अनैतिक कहता, मैं वैसा आचरण करूंगा

बचपन में दादी कहती थी, पिछला अगला सब होता है
आँखें जस की तस रहती हैं, कुछ मिलता सा ढब होता है
आँखों की पहचान बनाना, आदत स्वयं गवाही देंगी
मुझको देखोगे तो तुमको, धड़कन ख़ूब सुनाई देंगी
तुम उस पल चैकन्नी रहना, यादों का अवतरण करूंगा
उस पल मैं धरती से नभ तक, अब का वातावरण भरूंगा

जब भी तुमको बिन कारण ही, कोई जगह बहुत भाती हो
अगर हवा की गंध तुम्हारा, हाथ पकड़ खींचे लाती हो
तुम उस जगह प्रतीक्षा करना, मैं इक रोज़ वहीं आऊंगा
देख तुम्हें निःशब्द रहूंगा, तुमको छूकर जम जाऊंगा
भाषा अधरों पर थिर होगी, पलकों पर व्याकरण धरूंगा
पूर्ण हुए संकल्पों का मैं, आँसू से आचमन करूंगा

© चिराग़ जैन

Tuesday, January 24, 2017

द ग्रेट तीतरबाज़ डेमोक्रेसी

काफी समय पहले तीतरों के समाज में एक नालायक तीतर ने लड़ाई-भिड़ाई से समय निकाल कर कुछ पढ़ने-लिखने की ठानी। युवा तीतर की इस इच्छा से तीतर समाज बहुत दुखी हुआ। कई बुज़ुर्ग तीतरों ने उसे समझाया कि बेटा, इस पढाई-लिखाई में कुछ नहीं रखा है। लड़ाई-झगड़ा करोगे तो कुछ बन जाओगे। आज का फसाद कल तुम्हें मुहल्ले में सम्मान दिलाएगा। पढ़-लिख गए तो कोई तुम्हारे साथ नहीं बैठेगा। सारे में थू-थू होगी। तुम्हारी भलाई इसी में है कि झगड़ा-झमेला करो और अपना आराम से रहो। 

इतना समझाने पर भी जब वह तीतर ज़िद्द छोड़ने को तैयार न हुआ तो पूरे तीतर समाज ने यह निर्णय लिया कि यह युवा तीतर जो लड़ना नहीं चाहता इसकी इस हरक़त से बाक़ी तीतरों के बच्चों पर भी बुरा असर पड़ेगा। इसलिए समाज के हित में और अपनी परम्पराओं की रक्षा हेतु इस उद्दण्ड युवा को यह दण्ड दिया जाता है कि तीतर समाज के किसी झगड़े में इस अधम को नहीं बुलवाया जाएगा और पूरे गाँव में इसका लड़ाई-झगड़ा बंद करके इसे बिरादरी से बाहर निकाला जाता है। 

मौक़ा अच्छा था, युवा तीतर ने बिरादरी छोड़ कर इतनी पढाई की कि धीरे-धीरे वह समाज सुधारक बन गया। उसने सब तीतरों को यह ज्ञान दिया कि तीतर लड़ाने वाले ये उस्ताद लोग बड़े उस्ताद होते हैं। चार-चार आने में हम तीतरों की जान आफत में डाल कर मज़े लेते हैं। जिसे तुम जीवन-मृत्यु का प्रश्न बना लेते हो, वह इनके लिए सिर्फ एक खेल है। इन लोगों की आपस में कोई शत्रुता नहीं होती, ये सिर्फ हमें उकसाने के लिए झगड़ने का अभिनय करते हैं। 

समाज सुधारक की ये बातें सुनकर बड़े-बूढ़े तीतरों को चिंता हुई कि यह कुलक्षण ऐसी बातों से हमारी परम्पराओं को आघात पहुँचा सकता है। चिंता के कारण सभी बूढ़े तीतर चिंतित रहने लगे। वे युवा तीतरों को तीतरबाज़ी की महान परम्परा क़ायम रखने का मार्गदर्शन देते और चौपाल पर हुक्का गुड़गुड़ाते हुए अपनी जवानी की लड़ाइयाँ याद कर-करके शेख़ी बघारते। उधर कुछ युवा तीतरों को समाज सुधारक की बातें अच्छी लगने लगीं। वे छुप-छुप कर समाज सुधारक से मिलने लगे। और निरंतर चिंतन के बाद उन्होंने यह निर्णय लिया कि अब वे उस्तादों के साथ वही व्यवहार करेंगे, जो उस्तादों ने उनके पुरखों के साथ किया है। 

अब युवा तीतर उस्तादों से मोलभाव करने लगे। एक तीतर ने उस्तादों के बीच जुमला उछाला कि जो मुझ पर दांव लगाएगा उसे एक साल का वाई-फाई मुफ़्त मिलेगा। सारे उस्ताद तीतरबाज़ी छोड़ कर वाई-फाई के ख्यालों में डूब गए। तभी दूसरा तीतर बोला कि जो मुझ पर दांव लगाएगा उसे मुफ़्त लेपटॉप मिलेगा। उस्तादों में हड़कंप मच गया। वे एक-दूसरे की लुंगियां फाड़ने लगे। उस्तादों में लट्ठ बजने लगे। कोई उस्ताद फटे हुए सर को पकड़े वाईफाई वाले तीतर के गुण गया रहा था तो कोई पैर पर प्लास्टर बांधे लेपटॉप वाले तीतर के दांव-पेंच बखान रहा था। जैसे ही हंगामा थमता दिखाई देता, कोई न कोई तीतर प्रेशर कुकर, सिलाई मशीन या बिजली बिल माफ़ जैसी घोषणा करके आराम से बैठ जाता और उस्तादों को लड़ते देख कर मज़ा लेता। 

आजकल तीतरों की नई पीढ़ी और भी स्मार्ट हो गई है। घोषणाओं के ओल्ड फैशन्ड तरीके छोड़कर वे उस्तादों को इमोशनल ब्लैकमेल करने लगे हैं। पिछले दिनों एक ओवरस्मार्ट तीतर ने उस्तादों को बताया कि उसके कुनबे के बुज़ुर्ग खुल कर लड़ने नहीं दे रहे हैं। यह बात सुनकर उस्ताद लोग भावुक हो गए। उन्होंने बुज़ुर्ग तीतरों को कोसना शुरू कर दिया। उस्तादों के मन में उत्पन्न घृणा का लाभ उठाकर ओवरस्मार्ट तीतर ने सारे बुज़ुर्ग तीतरों के पर काट दिए और पूरे तीतर समाज का सरपंच बन बैठा। फॉर्मूले की सफलता देख कर आजकल कोई उस ओवरस्मार्ट तीतर की शिकायत उस्तादों से करके सिम्पेथी बटोरता है तो कोई अपनी दादी और पापा की क़ुर्बानी पर टसवे बहा कर उस्तादों को भावुक कर देता है। 

हाल ही में एक चतुर तीतर ने अपने चाचा और अंकलों के अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाकर उस्तादों की लड़ाई का माहौल ही बदल डाला। उस्ताद आपस में लड़ रहे हैं, तीतर अपने अपने दड़बों में भीतर ही भीतर जश्न मना रहे हैं। समाज सुधारक तीतर उन्हें आश्वस्त कर रहा है कि अब तुम आराम से दाना-पानी खाते रहो और मौज उड़ाते रहो। क्योंकि अब कभी यह निश्चय नहीं हो सकेगा कि किस तीतर पर दांव लगाना उचित है। सो, न लगेगा दांव, न होगी तीतरबाज़ी। 

© चिराग़ जैन

Thursday, January 12, 2017

अभय

मीत तुम चाहतों से डरा मत करो
चाह की जीत दिखलाउंगा एक दिन
मुक्त हो जाओगी तुम विवशताओं से
एक बंधन सजा जाउंगा एक दिन

तुम अगर कर सको तो यही बस करो
जब खुलें पंख तो रोकना मत उन्हें
जब कभी कामनाएँ तरल हो उठें
तो किसी लाज से सोखना मत उन्हें
रीत जाना नहीं, रीतियों की तरह
मैं नया रंग भर जाउंगा एक दिन

प्यार के नूर की बात करते सभी
प्यार का नूर सबको सुहाता नहीं
हम समझ ही नहीं पा रहे हैं अभी
प्यार क्यों बेहिचक बोल पाता नहीं
ये नियम, झूठ की पैरवी हैं प्रिये
सत्य का रूप दिखलाउंगा एक दिन

देह ने विष पिया, आत्मा ने नहीं
तुम मुझे देह अपनी नहीं सौंपना
जिन रिवाज़ों दूभर हुई ज़िन्दगी
सोच में तुम उन्हें बस नहीं रोपना
उम्र भर की छुअन भूल ही जाओगी
उंगलियों में समा जाउंगा एक दिन

© चिराग़ जैन

तपस्या

जब मुझे विश्वास होगा, तुम मुझे हासिल न होगे
मैं पुनः संसार सागर में स्वयं को झोंक दूंगा
जो रसायन दग्ध करता है हृदय को, धमनियों को
व्यस्तताओं से उसी की हर क्रिया को रोक दूंगा

जिस घड़ी होगा सुनिश्चित, भाग्य रेखा में नहीं तुम
बस तभी इक वक्र रेखा, शुक्र पर्वत छोड़ देगी
जब मुझे आभास होगा, भावना बेमोल है अब
बुद्धि बढ़कर तब अचानक मोह बंधन तोड़ देगी
हाँ, कठिन होगा हृदय से रक्त शोधन मात्र करना
कामना की प्यास को मैं रीतियों की ओक दूंगा

क्या पता उस पल स्वयं पर भी नियंत्रण हो न मेरा
पर स्वयं को आँकड़ों में व्यस्त करना सीख लूंगा
जिन अनर्गल कर्मकाण्डों की प्रणय ने पीर झेली
मैं उन्हीं से प्रीत का घर ध्वस्त करना सीख लूंगा
मैं स्वयं को भी नहीं अच्छा लगूंगा उन दिनों जब
प्रेम में डूबे हुओं को शिष्ट बनकर टोक दूंगा

प्रेम के बिन रस नहीं बनता हृदय की वीथियों में
किन्तु फिर भी रक्त का संचार चलता ही रहेगा
तंत्रिकाओं का सिहरकर फिर उभरना उभरना बंद होगा
कोशिकाओं का मगर व्यापार चलता ही रहेगा
देखने भर के लिए संसार चलता ही रहेगा
किन्तु मैं मन को ख़ुद अपने हाथ से परलोक दूंगा

© चिराग़ जैन

Sunday, January 8, 2017

व्यंग्यकार और व्यंग्य

व्यंग्यकारों के लिए ये जानना बेहद आवश्यक है कि व्यंग्य में बात टेढ़ी होनी जरूरी है, मुँह नहीं। व्यंग्यकार की बात श्रोता को थोड़ी देर से समझ आए तो यह व्यंग्य की गुणवत्ता है लेकिन व्यंग्यकार अपनी बात खुद भी बमुश्किल समझ पा रहा हो तो यह व्यंग्यकार की आत्ममुग्धता है। 

किसी चर्चा में से व्यंग्य निकालने के लिए आवश्यक है कि मौन रहकर चर्चाकारों के शब्द और उससे भी अधिक उनके मनोभाव को सुना जाए। कई बार व्यंग्यकार चर्चा में इतना वाचाल हो उठता है कि चर्चाकार बोल भी नहीं पाते। ऐसे में व्यंग्य निकालने के प्रयास व्यंग्यकार को निकालने की स्थिति के रूप में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। 

मैंने अनेक वरिष्ठ व्यंग्यकारों को सीधे-सादे विषय के भीतर से इस प्रकार व्यंग्योक्ति निकालने का प्रयास करते देखा है जैसे कोई प्यासा कौआ पुरानी कहानी से प्रेरित होकर घड़े में कंकर डाल डाल कर प्यास बुझाने की तपस्या कर रहा हो। लेकिन इस प्रयास में काक यह भूल जाता है कि जिस घड़े में कंकर डाले जाएं उसकी तली में इतना जल होना आवश्यक है जो कंकरों का बदन तर करने के बाद चोंच के भीतर आ सकने को पूरा पड़े। 

जबरन व्यंग्यकार बनने की चेष्टा में अक्सर कुछ लोग भरी महफिल में कोई जुमला उछालते हैं। जुमला उछालने की प्रक्रिया पूर्ण होते ही वे सदन को मुस्कुरा कर यह भी बताते हैं कि मेरे इस जुमले पर आप सबको इस प्रकार मुस्कुराना चाहिए था। इस सोपान के उपरान्त वे एक एक सदस्य की आँखों में इस भाव से देखते हैं कि इतने सारे मूढ़ों में एक आप तो मुस्कुरा कर मेरी श्रेष्ठ व्यंग्योक्ति समझने की क्षमता सिद्ध करें। अंतिम सदस्य तक पहुँचते-पहुँचते उनकी दृष्टि रिरियाने लगती है। लेकिन इस अपमान से वे हतोत्साहित नहीं होते। बल्कि अपने मुखमंडल पर अजीब सी इतराहत लाकर यह बताते हैं कि अगर तुम अल्पज्ञों में एक भी समझदार मेरे व्यंग्य को समझ लेता तो अब मैं इस प्रकार इतरा रहा होता। 

व्यंग्य समाज को आइना दिखा सकता है लेकिन कई व्यंग्यकार उस आईने में चोंच मार मर कर उसे मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ते। 

एक समय के बाद वे ये अपेक्षा रखने लगते हैं कि उनके बोलने, हंसने, मुस्कुराने, देखने और यहां तक कि उठने-बैठने तक को व्यंग्य समझ कर लोग खींस निपोरते रहें। यदि उनकी एकाध उक्ति प्रचलित हो जाए तो वे आदमी को आदमी क्या शब्द को शब्द नहीं समझते। उनकी सहजता में बैठा व्यंग्यकार उनकी चेष्टाओं में फूलते बदजुबान के आगे धराशायी हो जाता है। इस स्थिति में व्यंग्यकार आनंद कम और कष्ट अधिक देता है। पत्थर को तराश कर मूर्ति बनाने वाली छैनी भौंथरी होकर कला, कृति और कलाकार तीनों को नष्ट कर डालती है। 

© चिराग़ जैन