Monday, September 26, 2022

गिरगिट का कष्ट

नेता से अपनी तुलना का रिवाज 
गिरगिट को बहुत खलता है 
गिरगिट केवल संकट देखकर रंग बदलता है 
नेता तो अवसर देखकर रंग बदलता है। 

✍️ चिराग़ जैन

Saturday, September 24, 2022

राजू श्रीवास्तव की अंत्येष्टि

आर्टिस्ट ग्रीन रूम में तैयार था मगर
इस ज़िन्दगी ने मंच का परदा गिरा दिया

जिजीविषा की लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद ठहाके का हिचकी में तब्दील होना यकायक पलकें नम कर गया। ऐसा लगा ज्यों किसी ने अचानक हमारे बिल्कुल आसपास की रौनक को वीराने में बदल दिया हो। मृत्यु को बहुत नज़दीक से देखा है, इसलिए भयभीत तो नहीं हुआ लेकिन विरक्ति का एक आश्चर्यबोध मन में अवश्य भर गया।
इस ख़बर को सुनने के बाद स्वयं से देर तक वाद-विवाद हुआ। क्या हम कलाकारों का संघर्ष कभी यह विश्व समझ पाएगा? क्या सफलता-विफलता के मध्य खड़े एक कोरे मनुष्य के ललाट का लेखा पढ़ने की फ़ुरसत कभी इस जगत् को मिल सकेगी? ट्रेड मिल पर दौड़कर स्वयं को सुदर्शन बनाए रखने की क़वायद हमें क्यों करनी पड़ती है, क्या इस प्रश्न का उत्तर यह दुनिया कभी ख़ुद से मांगेगी?
दिल्ली के निगम बोध घाट पहुँचा तो राजू भाई की अंत्येष्टि में भारी भीड़ थी। इस हुज़ूम में दस प्रतिशत मीडियाकर्मी थे, जो दुनिया को अलविदा कहकर जा रहे कलाकार की अंतिम यात्रा की कुछ फुटेज जुटाने के उद्देश्य से वहाँ उपस्थित थे। दस प्रतिशत कुटुम्बीगण थे, जिनके भीतर का रीतापन माप पाना उस दिन किसी पैमाने के वश में नहीं था। पन्द्रह-बीस प्रतिशत मित्र, सहकर्मी तथा प्रशंसक रहे होंगे, जो किसी साथी के छूट जाने की अंतिम छुअन को अनुभूत करने वहाँ पहुँचे थे।
इसके अतिरिक्त शेष सभी वहाँ एक साथ कई सारे सेलिब्रिटीज़ के साथ सेल्फ़ी खिंचाने का अवसर भुनाने पहुँचे थे। मसान के भयावह सत्य में एक ओर फूलों से सजी गाड़ी में से दिवंगत राजू श्रीवास्तव का पार्थिव शरीर उतारा जा रहा था और दूसरी ओर ‘अबे देख सुरेन्दर शर्मा’; ‘ओए वो देख अशोक चक्रधर’ की उत्सुक प्रसन्नता ज़ाहिर करते हुए लोग अपने स्मार्टफोन में तस्वीरें उतारने में व्यस्त थे।
एक बार तो मुझे लगा कि डिजिटाइज़ेशन ने मृत्यु की भयावहता को घिनौना भी बना दिया है। लेकिन फिर समझ आया कि एक आमजन के जीवन में कलाकार का कुल अस्तित्व मनोरंजन की एक रात या सेल्फी के एक अवसर से अधिक कुछ नहीं है। मैं भीड़ से दूर एक बेंच पर बैठा सब कुछ देख रहा था, कोई मेरे साथ फोटो खिंचाने आया भी तो मैंने अपने विरक्तिसिक्त मन से उसकी इच्छा पूरी कर दी।
एक ओर मंत्र पढ़े जा रहे थे, दूसरी ओर कुछ जोशीले युवा ‘राजू भाई अमर रहें’ के नारे लगा रहे थे। एक तरफ़ कुछ आँखें भीग रही थीं, दूसरी ओर कुछ चेहरों पर इस बात की ख़ुशी थी कि कितने सारे सितारे इतनी आसानी से मिल गए।
इस आसानी की क़ीमत चुकाकर राजू भाई चिता पर लेट चुके थे। शो-बिज़ का भौंडा दिखावा ज़ारी था। छोटे-मोटे कलाकार भरे मन से इस दिखावटी दुनिया में होने का मूल्य अदा कर रहे थे और असली फनकार चिता की लपटों में लिपटा हवा हुए जा रहा था। चिता के धुएं से हवा में कुछ आकृतियाँ उभर रही थीं, मानो ठहाकों का शहंशाह हवा की मिमिक्री करता हुए दूसरे लोक में जा रहा हो...!

✍️ चिराग़ जैन

Thursday, September 1, 2022

नकारात्मकता भी आवश्यक है

नकारात्मक और सकारात्मक दोनों से मिलकर ही सृष्टि संचालित होती है। हमने नकारात्मकता को ‘ग़लत’ का पर्यायवाची समझकर बड़ी भूल की है। नेगेटिव और पॉजिटिव में से कोई भी एक तार हटा दो तो विद्युत अवरुद्ध हो जाएगी। संचरण यकायक रुक जाएगा। इसीलिए महावीर कर्म शून्यता की अवस्था को मोक्ष कहते हैं। वे पुण्य और पाप, दोनों से मुक्ति पर बल देते हैं। बहीखाते में डेबिट बचे या क्रेडिट, दोनों ही अवस्था में खाता शेष रहेगा। इसलिए एट पार जाना है। ज़ीरो बैलेन्स। न लेनी, न देनी।
लेकिन हमने लाभ को शुभ और हानि को अशुभ समझना शुरू कर दिया। यकायक देखने में हानि अशुभ लग भी सकती है। किंतु जो ठहरकर देखेगा वह जान सकेगा कि लाभ भी कम अशुभ नहीं है। यही लाभ तो हानि के भय का जनक है। आपके पास कुछ होगा ही नहीं तो लुटेरा लूट कर क्या ले जाएगा। उसे ख़ाली हाथ लौटना पड़ेगा। इसलिए महावीर ख़ाली हाथ हो जाने पर बल देते हैं। दिगंबर। नाम, गोत्र, जाति, कुल सभी अहंकार से शून्य।
लेकिन हमने प्राप्ति को सकारात्मक मान लिया। नकारात्मकता और सकारात्मकता हमारी क्षुद्र बुद्धि से उपजे विशेषण हैं। अग्नि के प्रज्वलित होने पर एक व्यक्ति ने उसमें विध्वंस की आशंका देख ली और दूसरे ने प्रकाश की संभावना। बस यही है नकारात्मकता और सकारात्मकता। लेकिन ये दोनों ही सत्य हैं। नकारात्मकता का अर्थ असत्य नहीं है। अग्नि भस्म कर सकती है यह भी उतना ही सत्य है जैसे अग्नि के प्रकाश उत्पन्न करने की बात। और अग्नि को ‘केवल’ प्रकाश का स्रोत मानने वाला भी उतना ही अल्पज्ञ है, जितना उसे केवल ध्वंसक मानने वाला है। ब्लकि अग्नि को केवल रौशनी माननेवाला अधिक बड़ा मूढ़ है। यदि वह अग्नि के ताप को न समझा तो स्वयं को झुलसा बैठेगा। फिर कोई सकारात्मकता काम न आ सकेगी। इसलिए समग्र देखना होगा। इसीलिए सर्वज्ञ होना होगा। किसी एक आयाम को नकारात्मक कहकर नकार देना तुम्हारे आत्मघाती होने की सूचना है। इसी को जैन ग्रंथों ने स्याद्वाद कहा है। यही अनेकांत है।
सत्य की खोज में किसी एक तथ्य से मोह लगा लिया तो गए काम से। समष्टि की राह में व्यष्टि पर अटक गए तो फिर कहीं न पहुँच सकोगे। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ इसीलिए आवश्यक है। जीवित रहना है तो साँस तो लेनी ही होगी। लेकिन साँस से मोह कर लिया तो जी न सकोगे। साँस ली है तो उच्छ्वास अपरिहार्य हो जाएगी। आप प्रयास करके भी उसे रोक न सकोगे। थोड़ी देर रोक भी लिया तो दम घुटने लगेगा। फेफड़े चंद सेकेंड में ही थकने लगेंगे। आँखों में प्राण उतर आएंगे। नथुनों में भीतर का सारा संघर्ष इकट्ठा हो जाएगा। फिर कोई चारा न रहेगा। फिर साँस छोड़नी ही पड़ेगी। और जिस क्षण छोड़ दिया, ठीक उसी क्षण जो अनुभूति होगी वह सुख है।
आपने एक अटकाव को छोड़ना स्वीकार किया और आपको एक क्षण का सुख मिल गया। यही कारण है कि जिसके भीतर संन्यास घटित हुआ उसने सारा अटकाव छोड़ दिया। फिर उसके चेहरे पर सुख नहीं आनंद की आभा दमक उठी।
इस दमक में ध्वंस नहीं, केवल रौशनी है। यह अग्नि को सम्पूर्ण जान लेने से सम्भव हुई। यह नकारात्मकता और सकारात्मकता को समभाव से देखने के बाद घटित हुई। इसीलिए उन्होंने जो त्यागा उससे भी घृणा नहीं की। लेकिन हम सोच रहे हैं कि जो त्याग दिया वह घृणित ही होगा। वे तो स्याद्वाद के अन्वेषक थे। घृणा और मोह, दोनों ही की फ़ुरसत नहीं थी उनके पास।
‘बनाकर फकीरों का हम भेस ग़ालिब, तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं’ -जीवन का लुत्फ़ लेना है तो उसे तमाशा समझकर देखना होगा। उसमें कुछ बदल देने की इच्छा जगी और आप बंदर की तरह गुलाटी मारने लगते हो। कर्ता भाव जगा और आप अतिथि से मजदूर हो गए। यह ऐसा ही है ज्यों कोई फिल्म देखने जाए और उसे खलनायक से नफ़रत हो जाए। फिर वह फिल्म नहीं देख सकेगा। फिर वह ख़ुद फिल्म बन जाएगा। सिनेमाघर में बैठे लोग पर्दे से दृष्टि हटाकर उस पर टिका लेंगे। वह होगा भी बहुत मज़ेदार। ज्यों ही पर्दे पर खलनायक आएगा, वह दोनों हाथों से कसकर कुर्सी के हत्थे पकड़ लेगा। उसके जबड़े भिंच जाएंगे। वह आवाज़ लगाकर नायक को खलनायक की चाल बताने की कोशिश भी कर सकता है। वह नायक को ऑर्डर भी दे सकता है कि ‘मार साले को!’ यह व्यक्ति अन्य लोगों को बड़ा हास्यास्पद प्रतीत होगा। क्योंकि यह व्यक्ति पर्दे को सत्य और स्वयं को निर्देशक समझ बैठा है।
ठीक यही भूल हम अपने जीवन में कर रहे हैं। हम ख़ुद को कर्ता मान बैठे हैं और अपने आसपास के लोगों को नायक और खलनायक मानकर उनके प्रति मोह और घृणा से भरे बैठे हैं। जिस क्षण हमने यह समझ लिया कि नकारात्मक और सकारात्मक तो केवल भूमिका हैं। हमें भूमिका की नहीं अभिनय की प्रशंसा करनी सीखनी होगी। निर्देशक ने जिसे जो भूमिका दी, वह उसे कितनी साकार कर पाता है, यह एक अभिनेता के आकलन का आधार है।
शोले फिल्म से गब्बर की भूमिका बदल कर देखिये। पूरी फिल्म फ्लॉप हो जाएगी। गब्बर का क्रूर होना ठाकुर के प्रतिशोध को नायकत्व प्रदान करता है। अन्यथा गब्बर सीधा-सादा काश्तकार हो और ठाकुर दो कुख्यात बदमाशों को उसकी सुपारी देता तो ठाकुर की शक़्ल तक से नफ़रत हो सकती थी। लेकिन गब्बर की बर्बरता ने जय-वीरू के सुपारी किलिंग जैसे अपराध को जस्टीफाई कर दिया।
इसलिए नकारात्मकता और सकारात्मकता, दोनों ही कहानी को चलाने के लिए आवश्यक हैं। इसमें सही-ग़लत तलाशने वाले कुर्सी पर उछलता हुआ वह दर्शक है जिसकी हरकतें देखकर पूरा सिनेमाघर ठहाके लगा रहा है।

✍️ चिराग़ जैन