Sunday, October 30, 2022

याद का गीत

याद ने इक रेशमी-सा जाल फिर फैला लिया है 
मन ज़रूरी काम सारे छोड़कर है गुम 
याद फिर से आ रही हो तुम 

त्यौरियां चिन्ताओं का बोझा सम्भाले फिर रही हैं 
चेतना बरसों पुराने हर्ष में उलझी हुई है 
हाथ में तो ढेर सारे काम हैं आधे-अधूरे 
उंगलियाँ केवल तुम्हारे स्पर्श में उलझी हुई हैं 
याद के उस छोर पर बाँहें पसारे तुम खड़ी हो 
सज रही तुम पर वही कुमकुम 
याद फिर से आ रही हो तुम 

फिर तुम्हारी देह का मकरंद मन में घुल रहा है 
आह, मेरे ओंठ आपस में अचानक गुंथ गए हैं 
साँस बढ़-चढ़कर स्वयं सिसकारियाँ बनने लगी हैं 
नैन फिर आनन्द की हद तक पहुँच कर मुंद गए हैं 
कान में एहसास का संगीत गूंजे जा रहा है 
सज उठी फिर याद की अंजुम 
याद फिर से आ रही हो तुम 

✍️ चिराग़ जैन 

Saturday, October 8, 2022

देह और प्राण

देह के कष्ट से जिनको परहेज है
प्राण का सुख उन्हें मिल सकेगा नहीं
संकुचित ही रहेगी अगर पाँखुरी
कोई गुल बाग में खिल सकेगा नहीं

सत्य है, जो खिले वो सभी एक दिन
पत्ती-पत्ती चमन में बिखर जाएंगे
पर बिखरने के डर से जिन्होंने सुमन
बंद करके रखा वो भी मर जाएंगे
प्रेम पिंजरा अगर बन गया तो तुम्हें
प्रेम का साथ भी झिल सकेगा नहीं

देह की पीर के पार आनंद है
भोग में, योग में, जोग में हर जगह
जो भी सुविधा जुटाते रहे काय की
वो घिरे हैं किसी रोग में हर जगह
देह के नेह में प्राण घुट जाएंगे
हो तुम्हें कुछ भी हासिल सकेगा नहीं

✍️ चिराग़ जैन