Saturday, August 19, 2023

नफ़रत की फसल

घृणा और द्वेष के बीज अब फलने लगे हैं। विषबेल ने एक बड़े से वृक्ष को जकड़कर उसके प्राण सोखने प्रारंभ कर दिए हैं। रंग-बिरंगे फूलों से सजे उद्यान का हर फूल दूसरे रंग के फूलों से नफ़रत करने लगा है। किसी डाल को कटते देखकर अन्य डालियाँ ख़ुश होने लगी हैं। क्यारियों ने अपनी सोच सीमित करके अपने भीतर उग आए विजातीय बिरवे के घेरकर मारना शुरू कर दिया है। 
अनुभवी बागवां इस माहौल से विचलित हैं। एक दिन, हमारे समाज ने संप्रदायों की कुल्हाड़ी से कटना स्वीकार किया था लेकिन आज जातियों के बुलडोजर, पंथ के फावड़े, परंपराओं की खुरपियाँ, विचारधाराओं की छुरियाँ और मतांतर की आरियाँ हमारे सौहार्द को खंड-खंड कर रही हैं। 
'फूट डालो, शासन करो' की नीति से समाज का नहीं, राजनीति का भला होता है। यह सत्य जानते हुए भी हम बँटते जा रहे हैं। हिंदू-मुस्लिम के साम्प्रदायिक दंगों ने जातीय हिंसा तक पैर पसार लिए हैं। 
किसी हादसे में पीड़ित की पीड़ा से पहले हम उसका धर्म और जाति देखना हमने कब सीख लिया, हमें पता ही न चला। उन्माद के इस आवेश में हम कब अपने ही आदर्शों की हत्या करने लग गए, हम समझ ही न सके। 
हमें समझ ही नहीं आ रहा है कि डीपी पर श्रीराम की फोटो लगाकर जब हम दूसरों की पोस्ट पर माँ-बहन की गालियाँ लिखते हैं तो राम की मर्यादा का उल्लंघन कर रहे होते हैं। हमें समझ ही नहीं आ रहा है कि प्रोफाइल कवर पर नबी का कोई निशान छापकर जब हम किसी को ट्रोल करते हुए भद्दी भाषा लिखते हैं तब कुल इस्लाम की छवि पर धूल उड़ा रहे होते हैं। हम समझने को तैयार नहीं हैं कि नाम के आगे 'जैन' लिखकर जब हम किसी भी प्रकार की हिंसा का समर्थन अथवा अनुमोदन कर रहे होते हैं तो महावीर की देशना का उपहास कर रहे होते हैं। हम सुनने को तैयार नहीं हैं कि ख़ुद बाबा साहब के अनुयायी कहकर जब कभी हम अराजक होते हैं तब बाबा साहब के संविधान का अपमान कर रहे होते हैं। 
हिन्दू, मुस्लिम, जैन, बौद्ध, ब्राह्मण, जाट, गुर्जर, पटेल, ठाकुर, दलित और जितने भी समाज हैं उन सबमें राजनीति के कुछ रंगे सियार घुस आए हैं। ये स्वयं को समाज का उद्धारक घोषित करके समाज को विनाश के रास्ते पर धकेल देते हैं। ये रंगे सियार बच्चों को प्यार के बजाय लड़ाई-भिड़ाई करना सिखाते हैं। ये रंगे सियार आपको विज्ञान तथा शिक्षा का उपहास करना सिखाते हैं ताकि आपका विवेक जागृत न हो सके और आप अपने धर्मग्रंथों को वैसे समझें, जैसे ये रंगे सियार आपको समझाना चाहते हैं। 
ये रंगे सियार आपको बताते हैं कि जो आपको प्यार से रहने की सीख देता है, वह आपका दुश्मन है; और आप मान लेते हैं। ये आपको सिखाते हैं कि साम्प्रदायिक सद्भाव, सौहार्दपूर्ण वातावरण, शांति, भाईचारा और सहकार जैसे शब्द खतरनाक हैं; और आप मान लेते हैं। 
इन सियारों के कहने पर आप अराजक हो जाते हैं। इन सियारों के कहने पर आप अपराधी हो जाते हैं। और जब पुलिस आपको पकड़ लेती है तो आप ही जैसे अन्य अंधानुकरणियों की ताक़त दिखाकर ये आपको थाने से छुड़ा लाते हैं और आप इनके एहसानमंद हो जाते हैं। 
जब आप पूरी तरह इनकी गिरफ्त में आ जाते हो, तो ये रंगे सियार किसी दूसरे दल के सियार से गठबंधन करके अपने फ़ायदे के लिए आपकी ताकत बेच देते हैं। आप भी अपने अपने सियार का अनुसरण करते हुए ख़ुशी-ख़ुशी उसका जयकारा लगाने लगते हो, जिसको कल तक गाली देते फिर रहे थे। धीरे-धीरे धर्म पीछे रह जाता है और कोई एक रंगा सियार अपने कट-आउट से धर्म को ढक लेता है। धीरे-धीरे जाति के उद्धार का आंदोलन पीछे रह जाता है और एक सियार का चेहरा पूरे आंदोलन से बड़ा हो जाता है। और हम उस चेहरे की चुनावी जीत को ही अपने धर्म की जीत मानने लगते हैं। हम उस चेहरे की जीत को ही अपनी जाति की जीत मानने लगते हैं। हम उस चेहरे को ही राष्ट्र मानने लगते हैं। 

इस लेख में कुछ नया नहीं है। ऐसे दर्जनों लेख पहले भी लिखे जा चुके हैं, लेकिन उन्माद के नक्कारखाने में सौहार्द की तूती इस उम्मीद से आवाज़ लगाती रहेगी कि कभी तो कोई कान नगाड़ों के हो-हल्ले में सरगम की मिठास सुन सकेगा। कभी तो सियारों की हुवा-हुवा के बीच कोयलों की कूक सुनी जाएगी। कभी तो कंस के जानकारों पर कृष्ण की बाँसुरी विजयी होगी!
✍️ चिराग़ जैन 

Thursday, August 17, 2023

ओशो कम्यून की पहली शर्त

ख़ुद से मिलने की ख़ुशी क्या होती है, इसका एहसास मुझे तब हुआ जब मैंने कम्यून में प्रवेश किया। हर चेहरे पर एक नैसर्गिक प्रसन्नता, हर आँख में एक प्राकृतिक चमक, हर पाँव में एक अनायास थिरक ...उत्सव वहाँ आयोजित नहीं, घटित हो रहा था। वहाँ सब अपने पूरे अस्तित्व के साथ घूम रहे थे। वहाँ सब अपने पूरे अस्तित्व के साथ ख़ुश थे।

यत्र तत्र सर्वत्र मैरून रोब में 'मनुष्य' घूम रहे थे। मैंने पहली बार महसूस किया कि यदि तरतीब से उकेरा जाए तो हरियाली के बीच कंक्रीट की उपस्थिति भी ख़ूबसूरत लगने लगती है। कम्यून में कहीं भी प्रकृति से होड़ नहीं दिखाई देती, बल्कि ऐसा अनुभूत होता है कि कोई पूर्ण मनुष्य प्रकृति के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़ा हो गया होगा और प्रकृति ने 'सहर्ष' उसे स्वीकार लिया होगा। यही कारण है कि पूरे परिसर में प्रकृति और मनुष्य के मध्य परस्पर 'अभय' का सम्बंध है।
जब मैं चाय लेने के लिए काउंटर पर गया तो एक मोर अपने गज भर लंबे पंखों के साथ मेरे आगे क्यू में लगा हुआ था। दिन में प्लाजा में बैठे थे तो एक कौवा मनुष्यों के साथ अपने पूरे अस्तित्व के साथ सहज ही बैठा रहा।
मन में आह्लाद लिए जब कोई मनुष्य वंश-झुरमुट के पास से गुज़रता है तो वयोवृद्ध बांस भी हवा का हाथ थामकर अंगड़ाई लेने लगते हैं। उस समय बांस के परस्पर स्पर्श से जो आवाज़ उत्पन्न होती है वह किसी पुराने किवाड़ के खुलने का स्वर है। सचमुच, उस परिसर में विवेक के कपाट खुलने लगते हैं। सचमुच, उस परिसर में सोच ख़ूबसूरत होने लगती है। सचमुच उस परिसर में काग का कर्कश स्वर भी जीवन के अनवरत संगीत का सहयोग करने लगता है।

नृत्य और हास्य; इन दो तत्वों से परिसर का वातावरण लबालब भरा हुआ है। और इन्हीं दोनों तत्वों ने पूरे परिसर को आनंदधाम बना दिया है। परिसर की वनस्पति इस पवित्र आनंद से एकाकार हो चुकी है। यही कारण है कि सूर्य की रोशनी भी कम्यून की धरती को स्पर्श करने से पहले पेड़ों की शीतलता से कर-प्रक्षालन कर लेती है।
ओशो समाधि के पीछे एक लगभग जंगल जैसा रास्ता भोजनालय की ओर जाता है। इस रास्ते पर कहीं पेड़ के नीचे बुद्ध की मूर्ति रखी दिखाई देती है, तो कहीं बुद्धत्व की एकांत साधना में तिष्ठ कोई साधक दिखाई दे जाते हैं। एकांत और मौन कितना सुंदर होता है, यह इस छोटे से जंगल में पता चलता है।

भोजन करने के बाद हम ओशो समाधि पर गए। लगभग 25-30 मिनिट उस स्थान पर बैठकर मैंने मौन का सुख भोगा। मैंने महसूस किया कि जब कान दुनियावी आवाज़ों से फ़ुरसत पाते हैं तो कुछ देर तक मन मुखर हो जाता है और जब मन भी अवाक् हो जाता है, तब जो घटित होता है ...वह आनंदातीत है।

मैंने अनुभव किया उत्सव तक पहुँचने के लिए निश्छल होना प्रथम वरीयता है। उत्सव आसान काम नहीं है। उत्सव के लिए संपूर्ण ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इसीलिए उत्सव मनाते समय मन को अपनी समस्त चेतना एकाग्र करनी होती है। तब कहीं जाकर भीतर के टर्बाइन घूमते हैं, तब कहीं जाकर विद्युत उत्पन्न होती है, तब कहीं जाकर जीवन उज्ज्वल हो उठता है।
इस प्रक्रिया में अन्यत्र ध्यान ले जाने की गुंजाईश ही नहीं है। इस प्रक्रिया में ध्यान भटकाने का स्कोप ही नहीं है। इस प्रक्रिया में किसी अनुसरण का होश ही नहीं है। इस प्रक्रिया में कोई प्रक्रिया ही नहीं है। इसीलिए वहाँ हर व्यक्ति अपने पूरे अस्तित्व के साथ उत्सवमयी था।

कोई एकांत में बैठकर ध्यान कर रहा है, तो कोई पिछले द्वार पर बनी दो समाधियों के पास चटाई बिछाकर सो रहा है। कोई किसी वृक्ष से आलिंगनबद्ध है, तो कोई बस यूँ ही किसी शिला पर बैठकर वातावरण को जी रहा है। कोई आते-जाते मनुष्यों को साक्षीभाव से निहार रहा है तो कोई प्रकृति के अनवरत अनायास संगीत पर थिरक रहा है। कहीं मेज के चारों ओर कुर्सियाँ बिछाकर ठहाकों का रॉक शो हो रहा है तो कहीं स्वादिष्ट भोजन के चटखारे से स्वाद की ग्रंथियां सरस हो रही हैं।

शाम होते-होते मैरून मनुष्य श्वेतवर्णी हो उठे। बड़े से जलाशय के मध्य काले पत्थर से बने रास्ते को ये श्वेताकृतियाँ जब समूह में पार करती हैं, तो किसी कल्पनालोक का दृश्य उपस्थित होता है। सरोवर के श्यामल दर्पण में जब इन श्वेतवसनधारियों का प्रतिबिंब बनता है तो ऐसा लगता है मानो रात के निविड़ अंधियारे में हंस तैर रहे हों।

ऐसे न जाने कितने ही एल्बम छप गए हैं मेरे अंतस पर। दो दिन के प्रवास के बाद जब शाम को कवि-सम्मेलन प्रारम्भ हुआ तो ऐसा लगा, जैसे ये सब लोग इतने दिन से यही तैयारी कर रहे थे कि हँसी की किसी बात पर ठहाका लगाने से चूक न जाएँ। इतनी सहज खिलखिलाहटें, इतने निश्छल ठहाके, इतनी नैसर्गिक हँसी... मैं काव्यपाठ के दौरान आनंद से भर रहा था। मैंने पहली बार अपने भीतर से फूटती हँसी का स्वाद चखा।

दो दिन का कम्यून जीकर मैं पुनः घर लौट आया हूँ, लेकिन इस बार मैं अपने भीतर रत्ती भर ओशो चुरा लाया हूँ, जो रह रहकर मुझे मेरे अस्तित्व से मिलवाते रहेंगे।

~चिराग़ जैन