हिंदी की कविता, जहाँ अपने सबसे सहज रूप में शास्त्रीय मर्यादा की लक्ष्मण रेखा के भीतर खड़ी दिखाई देती है, उस पंचवटी का नाम है, 'गोपालदास नीरज'।
कवि-सम्मेलन की लोकप्रियता का कीर्ति स्तम्भ जहाँ तक पाखण्ड के मुलम्मे से अछूता दिखाई देता है, वहाँ तक नीरज की दमक साफ़ दिखाई देती है।लौकिक लोभ और पारलौकिक कविताई के मध्य हर बार कविताई को वरीयता देने का स्वभाव जहाँ तक बचा रह गया, वहाँ तक नीरज का पता मिलता है।
जनता की रुचि के अनुरूप कविता 'बनाने' की बजाय, अपनी कविता के अनुरूप जनमानस को ढाल लेने का जादू जहाँ आकर ग़ायब होने लगता है, वह नीरज के कारवां का आख़िरी छोर है।
इन्टरनेट और सोशल मीडिया जनित, वैतण्डी स्टारडम के पीछे भागते हुए, कबीराई बेपरवाही की खुशबू से बहुत दूर निकल आई पीढ़ी, जब कभी उस कस्तूरी की तलाश में आत्ममग्न होगी, तब उसे नीरज की देहरी तक लौटना ही होगा।
चित्र से चरित्र तक आमूलचूल कवि होने का एहसास है नीरज। हिंदी कविता के इस सबसे लाडले बेटे का आज सौवां जन्मदिन है। 2018 में उनकी दैहिक रुख़सती के साढ़े पाँच साल बाद, आज एक बार फिर, उनके साथ बीते क़ीमती पल स्मृति पटल पर चलचित्र की भाँति तैर रहे हैं।
मैंने उनकी स्मृति, उनके अध्ययन, उनकी सादगी और उनकी लोकप्रियता का वैराट्य कई बार अपनी आँखों से निहारा है। मैंने उनके युग में साँस ली है। मैंने एकलव्य की भाँति उनके द्रोणाश्रम से 'कवि होने का लुत्फ़' लेना सीखा है। पहली बार बैरागी जी के संचालन में लालकिला कवि सम्मेलन के मंच पर नीरज जी को देखा था। वाइन कलर का, लगभग पठानी कुर्ता-पायजामा पहने, सिर पर टोपी लगाए एक वृद्ध काया जब मंच पर उपस्थित हुई तो हज़ारों लोगों से भरा तालकटोरा स्टेडियम खड़े होकर तालियाँ बजाने लगा। स्वास्थ्य कारणों से अध्यक्ष होने के बावजूद वे अंत तक नहीं बैठ पा रहे थे, सो संचालक महोदय ने बीच में ही नीरज जी को काव्यपाठ के लिए आवाज़ दी।
मसनद पर बैठकर छोटे माइक से जब नीरज जी की आवाज़ गुंजित हुई तो ऐसा लगा जैसे शरारत ने बहुत गंभीर होने का फ़ैसला कर लिया हो।
"इतने बदनाम हुए...." यही तीन शब्द गूंजे थे और श्रोताओं की तालियों से पूरा स्टेडियम उत्सवित हो उठा। शरारती मुस्कराहट के साथ उन्होंने कोई बीस-पच्चीस मिनिट काव्यपाठ किया और फिर जब उठकर चले तो एक बार फिर श्रोताओं ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया।
उस दिन नीरज सचमुच किसी देवदूत जैसे लगे। गीत का जीता-जागता कोई गंधर्व जिसके आगमन और प्रस्थान पर देवता पुष्प वृष्टि करते हों।
इसके बाद मैं सैंकड़ों बार उनसे मिला और हर बार उनके सान्निध्य को सौभाग्य मानकर उन पलों को भरपूर जिया। एक बार नैनीताल में उनके आभामंडल से मैं ऐसा सम्मोहित हुआ, कि उनके चरण स्पर्श करते हुए मैं बाकायदा उन्हें छूकर उनके पुद्गल परमाणुओं का वैभिन्नय महसूस कर रहा था।
'नीरज जी मुझे जानते हैं' -यह एहसास मेरे लिए कवि सम्मेलनीय जीवन का पहला सम्मान-पत्र था। अलीगढ़ नुमाइश का कार्यक्रम था। नीरज जी की अध्यक्षता थी। उससे पहले दो बार नीरज जी मेरे संचालन में काव्यपाठ कर चुके थे। अलीगढ़ में शशांक प्रभाकर ने मुझे कहा, "नीरज जी कह रहे हैं चिराग़ से संचालन करवाओ।" उस दिन यह वाक्य मेरे लिए किसी वरदान मिलने जैसी प्रसन्नता का कारण बना।
उसके बाद के अनेक संस्मरण हैं, उस गीतपुरुष के साथ। उन आँखों की जीवन्तता, रह-रहकर याद आती है। सफदरजंग अस्पताल में आख़िरी बार उनकी जिवित काया के चरण छुए थे। उस समय वे बेहोश थे। मैं उनसे मिलकर घर तक पहुँचा भी नहीं था, कि शशांक भाई ने उनके महाप्रयाण की सूचना दी। मैं उल्टे पाँव सफदरजंग अस्पताल पहुँचा। सम्भवतः मैं उनके चरण स्पर्श करने वाला आख़िरी मनुष्य रहा। मुझे आशीर्वाद भी मिला... मैंने अपने लेखन में नीरज जी की खनक सुनी है। मुझे आज भी महसूस होता है कि वह गीत गंधर्व मेरे लेखन का मापदण्ड बनता जा रहा है। मैं कह सकता हूँ कि नीरज का कारवां कभी नहीं गुज़रेगा। उसके गुबार में भी गीत उभर-उभर आएंगे।