उम्मीद से भरी आँखों में धूल झोंकी जाए तो उन आँखों से लावा फूटने लगता है। कराह को अनसुना किया जाए तो कराह चीख बन जाती है। और चीख बड़े-बड़े राजवंशों की चूल हिलाने का सामर्थ्य रखती है।
चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Friday, September 12, 2025
Thursday, September 4, 2025
पुरुषोत्तम: एक मंचन जिसकी पटकथा नहीं लिखी गई
हुई है वही, जो राम रचि राखा
मुझे अक्सर ऐसा अनुभव होता है कि मैं एक ऐसी स्क्रिप्ट जी रहा हूँ, जिसमें मेरे लिए एक शानदार पार्ट लिखा गया है। ऐसा लगता है कि जीवन अलग-अलग किस्सों का एक पोथा है, जो अपनी बेहतरीन बुनावट के कारण एक उपन्यास सरीखा जान पड़ता है।
आइए, इस पोथी के कुछ पृष्ठ पलटता हूँ।
वर्ष 2017 के आसपास यह विचार आया कि ओमप्रकाश आदित्य जी की जयन्ती पर उनके अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित किया जाए। इस शृंखला में उनके द्वारा रचित ‘शूर्पनखा महाकाव्य’ की पाण्डुलिपि पर कार्य प्रारंभ हुआ। यह हास्यरस का एक बेजोड़ महाकाव्य था, लेकिन आकस्मिक निधन के कारण आदित्य जी इसे अधूरा ही छोड़ गये।
मुझे ऐसा आभास था कि इस प्रकार की अधूरी कृतियों को किसी अन्य लेखक द्वारा पूर्ण करके प्रकाशित करने की परम्परा हिन्दी साहित्य में रही है, सो मैंने आदित्य जी द्वारा रचित महाकाव्य को आगे बढ़ाना प्रारम्भ किया। इस प्रयास में मैंने लक्ष्मण के मूर्च्छित होने की घटना से बाद का वृत्तांत लिखकर सम्पन्न किया और उसकी गुणवत्ता की पड़ताल के लिए उसे डॉ विनय विश्वास के पास भेज दिया।
विनय भैया ने वह रचना पढ़कर मुझे फोन किया और कहा- ”तुमने बहुत बढ़िया लिखा है चिराग़, लेकिन इसे आदित्य जी के महाकाव्य में मत छापो!“
सुनकर आश्चर्य हुआ। श्रेष्ठ रचना की प्राप्ति के उपरांत जो उत्साह घटित होता है, वह एकाएक ध्वस्त हो गया।
विनय भैया ने आगे कहा, "पहली बात तो ये कि यह तुम्हारी रचना है, यह आदित्य जी की रचना नहीं है। दूसरे, यदि हमने आदित्य जी के इस महाकाव्य के आगे कुछ भी जोड़ दिया तो इससे उनके पाठकों का यह सोचने का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा कि वे इसे आगे किस दिशा में ले जाते। इसलिए इसे अधूरा ही प्रकाशित किया जाना उचित होगा।"
तर्क पुष्ट था। सो स्वीकार कर लिया गया। ‘शूर्पनखा: एक अधूरा महाकाव्य’ नाम से आदित्य जी की पुस्तक प्रकाशित हो गयी और ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ मेरे सृजनकोष में जुड़ गयी।
यह वह समय था, जब मैं लगभग प्रतिदिन गीत लिख रहा था और मेरे गीतों में पौराणिक सन्दर्भ सहज ही उतर रहे थे। रामकथा, कृष्णकथा, प्रह्लाद, सागर मंथन और न जाने कितने ही सनातन बिम्ब मेरे गीतों में समाहित हो रहे थे। पाठकों की प्रतिक्रिया से मुझे यह ज्ञात हुआ कि मेरे लेखन को पुराण-चिंतन का सौभाग्य मिल रहा है।
एक दिन मैंने फोन पर अपनी अध्यापिका डॉ संध्या गर्ग को ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ सुनाई। रचना सुनकर उन्होंने कहा, ”चिराग़, तुम्हारी भाषा दिनकर की शैली को स्पर्श कर रही है। तुम इस रचना को आगे बढ़ाओ और खण्डकाव्य या महाकाव्य की रचना करो।“
उनकी टिप्पणी से मन को अच्छा तो लगा, लेकिन स्वयं को महाकाव्य लिखने योग्य मैं नहीं समझता था, सो अध्यापिका का यह कथन वात्सल्य से उद्भूत प्रशंसा समझकर स्मृति में दर्ज कर लिया और बात आयी-गयी हो गयी। यूँ भी जीवन की व्यस्तताओं ने मुझे कभी इतना अवकाश नहीं दिया कि मैं फुटकर साहित्य की परिधि से आगे कलम बढ़ा सकूँ।
वर्ष 2020 में कोविड फैला। लॉकडाउन ने व्यस्तताओं का चक्का थाम लिया। भागदौड़ से मुक्ति पाकर मैंने भी आधी-अधूरी रचनाओं की फाइल निकाल ली और अनेक मुखड़ों को उनके अंतरों से सज्ज किया। अनेक अशआर ग़ज़ल की शक्ल हासिल कर गए। इसी क्रम में मैंने ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ के आगे ‘मेघनाद-वध’ भी लिखी। रचना पूर्ण तो हो गयी किन्तु ऐसा लगा कि इसमें केवल कहानी का पद्यानुवाद हुआ है।
मैंने रचनाक्रम को विराम देना उचित समझा। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि साहित्य या तो बात नयी कह पाये या फिर पुरानी बात को नये ढंग से कह पाये। तभी उसका होना सार्थक है। अन्यथा कागज़ काले करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। महाकाव्य की राह पुनः अवरुद्ध हो गयी और मैं अपने लेखों तथा गीतों के सृजन से बधाइयाँ बटोरता रहा।
वर्ष 2024 के मई महीने में मैंने गृहक्लेश से उत्पन्न पीड़ाओं पर एक गीत रचा। अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप इस गीत का उदाहरण तलाशते हुए मैं माता कैकेयी के कोपभवन तक जा पहुँचा। सृजन के सौभाग्यवश गीत बढ़िया बन पड़ा। मैंने यह गीत अपने प्रिय मित्र निकुंज शर्मा को सुनाया। निकुंज ने गीत सुनकर कहा, ”भैया, आपको रामायण पर आधारित एक महाकाव्य लिखना चाहिये। पुराण के प्रति आपका जो दृष्टिकोण है, वह अभूतपूर्व है। जिस घटना को आप लिखते हो वह अपने जीवन की घटना जान पड़ती है।“
निकुंज की इस टिप्पणी ने एक बार फिर महाकाव्य की याद दिला दी। मैंने गीत में उतरे विचार को पुनः लिखा और ‘दशरथ का अवसान’ शीर्षक से एक और कविता महाकाव्य की शृंखला में जुड़ गयी। निकुंज ने रचना सुनी और उछल पड़ा। यहाँ से जैसे उसने प्रण कर लिया कि वह मुझसे महाकाव्य लिखवाकर ही दम लेगा। उत्साहवश मैंने रचना को फेसबुक पर पोस्ट कर दिया। प्रतिक्रियाएँ पढ़कर मेरा आत्मविश्वास दोगुना हो गया। हज़ारों लोगों ने रचना की संस्तुति की। दर्जनों फोन आये और सबके प्रशंसा-वाक्यों का एक ही तात्पर्य था कि मुझे महाकाव्य लिखना चाहिये।
मैं भी ‘सर्वकार्येषु त्यक्तवा’ भाव से रामकथा के लेखन में जुट गया। उठते-बैठते, सोते-जागते रामकथा के पात्र मेरे आसपास तैरने लगे। दशरथ, भरत, कैकेयी, मंथरा और यहाँ तक कि भरत को लिवा लाने पहुँचा दूत तक मुझसे संवाद करने लगा। नींदें उड़ गयीं। एक अजीब-सी बेचैनी ने मुझे घेर लिया। कवि-सम्मेलन के मंच पर हास्य की प्रस्तुतियाँ जारी थीं और मन रामकथा के खूंटे से बंधकर रह गया था।
लगभग चार दिन की अनवरत बेचैनी से व्यथित मन ने जब लिखना शुरू किया तो ऐसा लगा कि मैं बेचैनी नहीं जी रहा था, बल्कि भरत जी की अनुभूतियों को भोग रहा था। ननिहाल से लौटे भरत एकाएक कविता में उतर आये। दिल्ली से शायद बंगलूरु की यात्रा के दौरान हवाई जहाज में बैठकर ‘भरत का परिताप’ लिखी। कविता लिखते-लिखते मैंने कई बार स्वेदस्नान किया। अरुण जैमिनी जी मेरे बराबरवाली सीट पर थे। उन्होंने मुझे बेचैन देखकर कई बार मुझे टोका, लेकिन वह तो सृजन की घड़ी थी। कवि प्रसव-वेदना से गुज़र रहा था। कविता पूर्ण होते ही मैंने अरुण जी को सुनाई। वे अभिभूत हो गए। उन्होंने बताया कि मेरी रामायण संबंधित सभी कविताओं में यह अब तक की सर्वश्रेष्ठ रचना है।
4 अगस्त को दिल्ली के आईपैक्स भवन में मेरा और मेरी पत्नी मनीषा शुक्ला का युगल काव्यपाठ था। लम्बा काव्यपाठ करना था, सो मैंने निश्चय किया कि रामकथा में से कोई एक कविता आज अवश्य पढ़ूंगा। काव्यपाठ के दौरान पहली बार मंच पर ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ का पाठ किया। श्रोताओं की प्रतिक्रिया ने मन दोगुना कर दिया। महाकाव्य लिखने के लिए जो पाथेय चाहिए था, वह अब मिल चुका था। राजेश चेतन जी, जो इस कार्यक्रम का मंच-संचालन कर रहे थे, उन्होंने हँसते हुए कहा कि अब चिराग़ भी रामकथा करेगा। उनका यह "भी" मुझे अच्छा नहीं लगा।
मैंने सृजन को सदैव साधना का आश्रम माना है, अतएव आश्रम में स्पर्द्धा मुझे कभी भी नहीं रुची। मुझे लगता है कि रसोईघर में नमक और चीनी दोनों का अपना महत्व है। इन दोनों में तुलना करना समीचीन भी नहीं है और उचित भी नहीं है। प्रतिभा का काम प्रतियोगिता करना नहीं है, इसलिए जब कभी मेरे सृजन के साथ स्पर्द्धा की शब्दावली प्रयुक्त होती है तो मुझे यह कम भाता है। लेकिन चूँकि राजेश जी की भावनाओं में अन्ततः मेरे प्रति सद्भाव ही रहा है, इस हेतु मैंने इसे अनसुना कर दिया।उधर सृजन अपने उत्कर्ष पर था इधर यात्राओं ने व्यस्तता का बवंडर खड़ा कर रखा था। इस बीच वरिष्ठ कवि श्री मदन साहनी जी ने फोन किया और गुरुग्राम की प्रतिष्ठित संस्था सुरुचि साहित्य परिवार में काव्यपाठ का निमंत्रण दिया। इस कार्यक्रम में मेरे साथ फ़रीदाबाद के लोकप्रिय रचनाकार श्री दिनेश रघुवंशी को भी काव्यपाठ करना था। श्रोता साहित्यिक थे, सो मैंने यहाँ भी अन्य रचनाओं के साथ ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ का पाठ किया। परिणाम पहले की तरह ही जादू जैसा रहा।
अभी तक साहित्यिक श्रोताओं में ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ सफल हो रही थी, लेकिन 16 अक्टूबर को दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में वस्त्र मंत्रालय के कार्यक्रम में जब इस रचना का प्रभाव देखा तो यह निश्चित हो गया कि मेरे कवि-सम्मेलनीय जीवन की अगली पारी रामकथा के आसपास ही चलेगी।
इस बीच मैं ‘भरत-मिलाप’ लिख चुका था। रामकथा आधारित कविताओं का प्रवाह अनवरत था। निकुंज शर्मा और मनीषा शुक्ला हर कविता के प्राथमिक श्रोता होते थे। दोनों ही समालोचना की दृष्टि से सटीक और बेलाग हैं, इसलिए इनकी आश्वस्ति मेरे लिए महत्त्वपूर्ण भी रही और सहयोगी भी। इस बीच एक विवाहोत्सव के बाहर इस काव्य की कुछ पंक्तियाँ डॉ. विनय विश्वास को सुनाईं। कविता सुनते हुए वे लगभग ध्यानमग्न हो गए। उनकी आँखें मुंद गईं और उन्होंने आशीर्वाद देने के लिए अपना हाथ मेरे सिर पर रख दिया। लगभग 50-55 सेकेण्ड तक वे इसी मुद्रा में स्थिर हो गये। उनके मुख से बस एक ही शब्द बार-बार निकल रहा था, ‘जियो चिराग़, जियो!’
उस क्षण के ऊर्जानुभव का मैं वर्णन नहीं कर पा रहा हूँ, लेकिन इतना सत्य है कि वह कुछ अलौकिक-सा था। कुछ ऐसा जो पहले मैंने कभी महसूस नहीं किया था। विनय भैया की उस समय क्या मनःस्थिति रही होगी, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन अपनी रचना पर उनकी हिचकी की आवाज़ सुनकर मुझे अपने लेखन की सार्थकता का अहसास हुआ।
2 नवम्बर को इन्द्रप्रस्थ विस्तार का दीपावली मिलन समारोह था। इस समारोह में प्रतिवर्ष एक कवि को ‘काव्य-रत्न’ सम्मान से विभूषित किया जाता है। राजेश अग्रवाल जी ने मुझे सूचना दी कि इस वर्ष का यह सम्मान मुझे दिया जा रहा है। मैं कार्यक्रम में पहुँचा और सम्मान ग्रहण करने के बाद जब कावयपाठ के लिए खड़ा हुआ तो सामने से ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ की फ़रमाइश आयी। मैंने भी वज्र-अंग हनुमान को प्रणाम करते हुए कविता पढ़ दी। इसके बाद 16 नवम्बर को ब्रज कला केन्द्र के कार्यक्रम में इस कविता के पाठ ने पुनः श्रोताओं को प्रसन्न किया। ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ कंठस्थ भी हो चुकी थी और श्रोताओं के बीच लोकप्रिय भी हो चुकी थी। इसके दो वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल थे, सो कवि-सम्मेलनों मेें इसकी फ़रमाइश आने लगी थी।
इसी बीच दिनाँक 7 दिसम्बर को आलोक लखनपाल जी के निवास पर आयोजित होनेवाले वार्षिक ‘शाम-ए-एहसास’ कार्यक्रम में मैंने पहली बार मोबाइल से देखकर ‘भरत का परिताप’ पढ़ी। सामने श्रोताओं में अधिवक्ता, न्यायाधिकारी और अन्य उल्लेखनीय लोग विद्यमान थे। कविता ने श्रोताओं पर जादू किया। मंच पर मेरे बराबर में अरुण जैमिनी जी कविता के बीच आँसू पोंछते देखे गये। कार्यक्रम सम्पन्न करके मैं घर लौट आया। आलोक जी की धर्मपत्नी श्रीमती रचना लखनपाल जी मुझे उस कविता के श्रोताओं की प्रतिक्रियाएँ प्रेषित करती रहीं।
दो दिन बाद मैं और अरुण जी एक कार्यक्रम में महाराष्ट्र में थे। कार्यक्रम के तुरंत बाद आलोक जी का फोन आया- ”चिराग़ जी, आपकी कविता का जादू सिर से उतर ही नहीं रहा है।“ प्रशंसा से उत्पन्न असहजता को दबाते हुए मैंने कहा, “भाईसाहब, आपके श्रोता शानदार थे, इसलिए वह कविता चल गयी, सामान्य मंच पर इतनी भावुक कविता नहीं चलेगी।“ आलोक जी ने मेरी बात को काटते हुए कहा, ”कैसी बात करते हो चिराग़ जी, यह कविता तो हर जगह चलेगी। आपको यह कविता मंच पर पढ़नी चाहिए। मैं गारंटी लेता हूँ, यह कविता हर हाल में चलेगी।“ उनके विश्वास ने मेरे आत्मविश्वास की उंगल थाम ली। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि कल दिल्ली के प्रतिष्ठित ‘श्रीराम कवि-सम्मेलन’ में काव्यपाठ करना है, वहाँ आपके कहने से इस कविता का पाठ करूंगा और प्रतिक्रिया से आपको अवगत कराऊंगा।
इसके बाद रास्ते भर मैं ‘भरत का परिताप’ को कंठस्थ करता रहा। मुझे पहली बार इस कविता को कवि-सम्मेलन के मंच से पढ़ना था। मंच पर डॉ. अशोक चक्रधर का संचालन, डॉ. उदयप्रताप सिंह जी की अध्यक्षता। कार्यक्रम प्रारंभ से ही श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम होता जा रहा था। काव्यपाठ के लिए मुझे पुकारा गया तो मैंने सामान्य कवि-सम्मेलनों की प्रारंभिक बातचीत और बतरस की भी औपचारिकता किए बिना सीधे ‘भरत का परिताप’ पढ़नी प्रारंभ की। आठ-दस पंक्तियाँ ही पढ़ी होंगी कि मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे ऑडिटोरियम की लाइट से ऊर्जा की एक अजस्र धारा मेरे भीतर प्रविष्ट हो रही हो। किसी कविता को पहली बार सार्वजनिक मंच पर पढ़ते हुए, भूल जाने का जो भय होता है, वह भय याद ही नहीं आया। कविता निर्बाध बहती चली जा रही थी, मेरे कंठ में यकायक कोई नाद-सा बजने लगा था। श्रोताओं के चेहरे मेरी भाव-भंगिमा पर त्राटक कर रहे थे। मैंने इस कविता को पढ़ते हुए स्वयं को रोमांचित होते अनूभूत किया। कविता सम्पन्न हुई तो श्रोतादीर्घा का एक-एक व्यक्ति खड़ा हो गया। मंच पर बैठे सभी कविमित्र अभिवादन करने लगा। अशोक जी ने मंच पर आकर इस कविता की प्रशंसा में इतना कुछ कहा कि मैं निहाल हो गया।
दो-तीन दिन में ही इस कविता की वीडियो बेहद वायरल हो गयी। मैं प्रसन्न था। कविता अपना स्थान बना रही थी। आलोक जी को इस प्रतिक्रिया से अवगत कराने की आवश्यकता इसलिए नहीं पड़ी, कि जब कविता पढ़कर मैं श्रीराम सेंटर से बाहर निकला तो आलोक जी सपत्नीक वहाँ उपस्थित थे। कविता का प्रभाव उन्होंने अपनी आँखों से देखा।
इसके बाद तो रामजी की कृपा की अनुभूति करने के लिए मैं रामकथाधारित काव्य का पाठ लगातार करता रहा। मेरे पड़ोस में रहनेवाले वरिष्ठ हास्य कवि श्री वेदप्रकाश वेद ने भी इस कविता की सफलता के लिए मुझे बार-बार आश्वस्त किया। इन सब अपनों के विश्वास को लेकर मैं रामकथा आधारित काव्य रचता रहा और पढ़ता रहा।
22 दिसम्बर को नेपाल स्थित जनकपुर में राजा जनक के महल में ‘रामायण शोध संस्थान’ तथा नेपाल सरकार के संयुक्त आयोजन में मैंने ‘दशरथ का अवसान’ कविता का पाठ किया। जनकपुर के लोग अयोध्यावालों को गरियाते हैं। यह उनकी परंपरा है। भारतीय आयोजक-मंडल इस परंपरा को लेकर किंचित परेशान था। मैंने काव्यपाठ से पूर्व महाराज जनक की न्यायप्रियता का संदर्भ लेते हुए ‘दशरथ का अवसान’ पढ़ी तो जनकपुर की जनता से ‘जयसियाराम’ के नारे सुनाई दिए। मन फिर प्रसन्न हो उठा।
वर्ष 2025 प्रारम्भ हो चुका था। अशोका फाउण्डेशन ने अलवर में कवि-सम्मेलन का आयोजन किया। पिछले वर्ष इसी कार्यक्रम में मैंने हास्य की दमदार पारी खेली थी। ऐसे में इस वर्ष छवि-परिवर्त्तन का निर्णय किंचित कठिन था। श्रोतादीर्घा में तमाम सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रतिष्ठित पदाधिकारी उपस्थित थे। मैंने राम जी का नाम लिया और ‘भरत का परिताप’ पढ़कर एक बार फिर अपने आत्मविश्वास को पोषित किया।
इस दौरान राजगीर की कवि-सम्मेलन की यात्रा में लोकप्रिय कवयित्री कविता तिवारी के साथ लंबी संगत हुई। रामकविता मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर छाई हुई थी, सो वापसी में पटना हवाईअड्डे पर कविता को कविता सुना दी। मैं दरअस्ल इस कविता का अलग-अलग वय तथा बौद्धिक स्तर के लोगों पर असर देखना चाहता था। कविता और वैभव ने न केवल उन्मुक्त कंठ से इसकी प्रशंसा की अपितु मैंने श्रवण के दौरान कई बार उन दोनों के चेहरे पर सुखद आश्चर्य के भाव तैरते भी देखे।
इसके बाद जोधपुर के हस्तशिल्प मेले से लेकर लालकिले के कवि-सम्मेलन तक मैंने रामकथाधारित कविताओं का ही पाठ किया। लालकिले के कवि-सम्मेलन में यह मेरी चौथी बार पुनरावृत्ति थी। पिछली तीन बार यह संयोग रहा कि श्रोताओं ने मेरे काव्यपाठ के बाद खड़े होकर मेरा अभिनन्दन किया था। इस बार, कोई कीर्तिमान बनाने की महत्वाकांक्षा तो नहीं थी, लेकिन यह आकांक्षा अवश्य थी कि लालकिले का यह दृश्य पुनर्घटित हो सके। राम जी की कृपा रही और ‘भरत का परिताप’ समाप्त होते-होते भीगी पलकों के साथ पूरा सदन खड़ा हो गया।
इस कार्यक्रम की वीडियो भी वायरल हुई। ‘भरत का परिताप’ कविता को कैकयीवाली कविता के नाम से पहचान मिल रही थी। इस बीच मार्च आ गया और हम हर वर्ष की तरह अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर कोलकाता के कवि-सम्मेलनों के लिए निकल लिये। शृंखला का पहला कवि-सम्मेलन कोलकाता प्रेस क्लब में था, जिसका आयोजन युवाशक्ति नामक समाचार समूह ने किया था। यह एक सम्मान समारोह था, जिसमें आयोजक होली मिलन के बहाने अपने सहयोगियों का अभिवादन तथा अभिनंदन करना चाहते थे। सम्मान-समारोह इतना लम्बा चला कि कविता-पाठ की इच्छा समाप्त हो गयी थी। इस आयोजन में मुझे और सहयात्री श्री गोविन्द राठी जी को कवितापाठ करना था। जब हमारे हाथ में मंच आया तो मैंने प्रारंभिक संचालन करते हुए श्री गोविन्द राठी जी को काव्यपाठ के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने हास्य-व्यंग्य के माध्यम से बिखरे हुए माहौल को बांधने मे काफी सफलता हासिल कर ली और मुझे माइक सौंप दिया। मैंने भी होली का माहौल और समय की मर्यादा को देखते हुए हास्य की एक पर्याप्त पारी खेलकर समापन की भूमिका बनानी शुरू की। तभी सामने से एक सज्जन खड़े हो गये और टोकते हुए बोले, “अभी समाप्त न कीजिए चिराग़ जी, हम तो कैकेयी वाली कविता सुनने आये हैं।“ -यह मेरे लिए आश्चर्यजनक था। कोलकाता के होली के कार्यक्रम में इस कविता की फ़रमाइश आयेगी, ऐसा सोचना भी संभव नहीं था।
आश्चर्य के सुख को अनुभूत करते हुए मैंने थोड़े ना-नुकुर के बाद उनकी फ़रमाइश मान ली। कविता पाठ सम्पन्न होते-होते उस आयोजन का स्वरूप बदल गया। भावुकता ने श्रोताओं के चेहरे को और सुंदर बना दिया। तीन श्वेतकेशी सज्जन मंच पर आकर मेरे चरण-स्पर्श के लिए उद्धत हुए तो मैं शर्मिंदा हो गया। इसके बाद, होली की इस शृंखला में ‘भरत का परिताप’ की जहाँ-जहाँ फ़रमाइश आयी, मैंने इसका पाठ किया।
11 मार्च को बोकारो में ओएनजीसी का कार्यक्रम था, जिसमें बहुत दिन बाद मेरे सर्वाधिक प्रिय मित्र रमेश मुस्कान से मुलाकात हुई। कविता के संदर्भ में उनकी प्रतिक्रिया मेरे लिए गुणवत्ता का सबसे निष्पक्ष पैमाना है। मैंने उन्हें भरत-कैकेयी संवाद सुनाया तो वे खिल उठे। अपने चिर-परिचित अंदाज़ में बोले, ”यही चाहिये था। यही सुनाओ।“ मैंने और प्रशंसा सुनने के संशय प्रकट किया, “कवि-सम्मेलन में सुनेंगे लोग इसे?“ वो विश्वस्त होकर बोले, “इसे नहीं सुनेंगे तो फिर क्या सुनेंगे! अच्छी कविता हर जगह सुनी जायेगी। इसे कोई नहीं नकार सकता। यही तुम्हारी पहचान बनेगी।“
मुस्कान जी से यह प्रतिपुष्टि ली और उस रात का कार्यक्रम करके हम लोग कोलकाता लौट आये। अगले ही दिन आईपैक्स वाले सुरेश बिंदल जी का फोन आया। उन्होंने कहा, ”चिराग़ जी, 6 अप्रेल को रामनवमी है। हमारे यहाँ रामनवमी के दिन रामकथा का आयोजन किया जाता है। एक बार इसमें नरेन्द्र कोहली जी भी वक्ता रह चुके हैं। हमारा मन है कि इस बार आप उसमें रामकथावाचक के रूप में कथा करें। आपका भव्य सिंहासन लगवाया जाएगा। और आप एक-डेढ़ घण्टा रामकथा करेंगे।“
मैंने उनके प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया और कहा, ”भाईसाहब, कथा-वथा मेरे वश का काम नहीं है। मैं कवि हूँ और कवि ही रहना चाहता हूँ।“ उन्होंने अपनत्व के अधिकार का प्रयोग करते हुए कहा, “देखो चिराग़ जी, हम तो कार्ड में आपका नाम छाप रहे हैं। आप आ गये तो आपकी और हमारी इज़्ज़त बच जायेगी, अन्यथा हम रामभजन की कैसेट चलाकर कीर्तन करवा के लोगों को विदा कर देंगे।“
अब मेरे पास मना करने का कोई स्कोप नहीं बचा था। मैंने सोचा कुछ शर्तें रखकर देखता हूँ। शायद नखरे देखकर बिंदल जी अपना विचार बदल लें। मैंने कहा, ”ठीक है भाईसाहब, मैं आपका प्रस्ताव मानने को तैयार हूँ। लेकिन मेरी कुछ शर्तें होंगी।“
बिंदल जी ने एक क्षण भी व्यर्थ किये बिना कहा, “जैसे कहोगे, वैसे होगा।“
मैंने कहा, ”एक तो सिंहासन नहीं लगेगा।“
बिंदल जी ने कहा, “स्वीकार है।“
मैंने आगे कहा, “मेरे साथ कम से कम तीन संगीतज्ञ रहेंगे, कार्यक्रम में ‘कथा’ शब्द का प्रयोग नहीं होगा और कार्यक्रम के क्रिएटिव्स मेरे ऑफिस में डिज़ाइन होंगे।“
बिंदल जी बोले, “कार्यक्रम का शीर्षक वो होगा, जो आप तय करेंगे और इन सब तैयारियों के लिए आपका जो ख़र्च होगा, वो हम वहन करेंगे।“
मेरा कोई दांव नहीं चल रहा था, मैंने और शर्त रखी, “कार्यक्रम प्रारंभ होने के बाद कोई ब्रेक नहीं होगा, किसी का स्वागत-सम्मान-भाषण कुछ नहीं होगा।“
यद्यपि वैश्य समुदाय के कार्यक्रमों में ऐसा करना कठिन है, किंतु बिंदल जी ने मेरी यह शर्त भी मान ली। अब बारी थी आख़िरी शर्त की। इस प्रहार के बाद तो बिंदल जी मना कर ही देंगे, ऐसा सोचकर मैंने आख़िरी शर्त रखी- “मैं इस प्रस्तुति के लिए कोई पैसा नहीं लूंगा।“
अब बिंदल जी उखड़ गये। बोले, ”यह आपका क्षेत्र नहीं है भाईसाहब, यह हम तय करेंगे।“ उनकी वाणी में इतना अधिकार था कि मैं कुछ बोल न सका।
मैं समझ गया था कि यह सब राम जी की इच्छानुसार हो रहा है। सो, समर्पण कर दिया। अपने अब तक के परिचय में अपनी-अपनी फील्ड के कुशल मित्रों से सम्पर्क साधा। बिंदल जी ने मेरे कंधे पर दायित्व रख दिया था। सो अनवरत इस कार्यक्रम की रूपरेखा के विषय में विचार करने लगा। एक माह से भी कम का समय था। एकदम नये तरह की प्रस्तुति देनी थी।
सबसे पहले अपनी अर्द्धांगिनी मनीषा शुक्ला से बातचीत की। मनीषा ने पहला सुझाव यह दिया कि इसमें जितना भी भाग प्रस्तुत करो, वह तुम्हें कंठस्थ होना चाहिए। यह सबसे बड़ी चुनौती थी। याद रखने की क्षमता क्षीण होती जा रही थी। कवि-सम्मेलनों के अभ्यास से बुद्धि तीक्ष्ण हो रही थी, प्रत्युत्पन्नमति विकसित हो रही थी, लेकिन स्मरण-शक्ति का बंटाधार होने लगा था। ‘लपेटे में नेताजी’ कार्यक्रम में मोबाइल देखकर काव्यपाठ करने की ऐसी लत लगी कि मस्तिष्क ने स्मरण रखने वाली ग्रंथियों को शिथिल कर दिया था।
उधर कार्यक्रम की कोई स्पष्ट रूपरेखा सम्मुख नहीं थी और इधर इतनी लम्बी कविता याद करने का काम और बढ़ गया था। मैं दिन भर कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने के लिए फोन पर बात करता रहता था और रात भर कविता याद करता था।
एक दिन कार्यक्रम के नाम को लेकर डॉ. सुष्मीत श्रीवास्तव से चर्चा हुई। उस चर्चा में नाम सूझा ‘राम-अभिराम’। शीर्षक अच्छा था, लेकिन मेरी मंशा थी कि इस कार्यक्रम में शीर्षक में राम संज्ञा के रूप में नहीं बल्कि चरित्र के रूप में सम्मिलित हों। दो-तीन दिन बाद प्रिय प्रबुद्ध सौरभ से चर्चा होते समय यकायक मेरे मुख से निकला, इसका नाम ‘पुरुषोत्तम’ होना चाहिए। सुनकर प्रबुद्ध की वाणी में जो हर्ष घुला, उससे स्पष्ट हो गया कि इस कवायद को इसका नाम मिल गया है।
प्रवीण अग्रहरि की डिज़ाइनिंग मुझे हमेशा पसन्द आती है। उन्हें जब इस कार्यक्रम के विषय में पता चला तो उनका अनुजवत प्रेम उमड़ पड़ा। उन्होंने बहुत मन से इस कार्यक्रम के क्रिएटिव्स तैयार किये। अब तक मेरे साथ के सभी लोग जान चुके थे कि इस समय मेरा पूरा फोकस ‘पुरुषोत्तम’ की तैयारी पर है।
मेरे सबसे निकट रहनेवाले अरुण जैमिनी जी को जब इस पूरी योजना का पता चला तो उन्होंने अपनी स्वाभाविक स्वीकृति दी और लगभग चुनौती के स्वर में अपने हरियाणवी अंदाज़ में कहा, ‘कर के आ, तब बात करेंगे।’ उधर श्रद्धेय सुरेन्द्र शर्मा जी का भी मुझ पर पर्याप्त आशीर्वाद है, लेकिन इस बार उनका आशीर्वाद लेने गया तो ‘घर का जोगी’ वाली कहावत चरितार्थ हुई और उन्होंने कहा कि ‘कविता तो तुझसे बेहतर किसी के पास नहीं है, लेकिन खाली कविता से काम नहीं चलेगा। बीच की जो कमेंट्री इसमें चाहिए वो कहाँ से लाओगे?’
सुनकर मन परेशान हुआ लेकिन मुझे यह समझ आ गया कि अनुभवों की पोटली ने मुझे चुनौती के रूप में सफलता का मार्ग दिखा दिया है। मैंने तय कर लिया कि कविता सुनाते समय ठहरकर मैं इसके साथ जुड़ी अनुभूतियों को गद्य में प्रस्तुत करूंगा।
बस, फिर क्या था। निराकार साकार हो गया। धुंधली रूपरेखा स्पष्ट रेखाचित्र बन गई। संगीतज्ञों के साथ रिहर्सल के नाम पर मैंने केवल संगीत की लहरियों के साथ अपनी आवाज़ का तारतम्य बैठाने का प्रयास किया। कुल तीन दिन में दो-दो घण्टे की रिहर्सल हुई, जिसमें 40-45 मिनिट केवल बातचीत और खानपान में निकल गए।
यह मेरे लिए बिल्कुल नया अनुभव था। संगीत से मेरा इतना ही संबंध है कि मुझे बेसुरा सुनना पसन्द नहीं है और मुझे यह भ्रम है कि मैं बेसुरा गाता नहीं हूँ। इसलिए मैंने अपने किसी संगीतकार को निर्दिष्ट करने का दुस्साहस नहीं किया। बस एक ही बात कही कि संगीत मेरी आवाज़ का सहयोगी बनना चाहिए, अवरोधक नहीं।
बहरहाल, इसी तरह थोड़े संकोच और थोड़े उत्साह के साथ 6 अप्रेल का दिन आ गया। जब अलमारी में से कपड़े निकालने लगा तो याद आया कि वरिष्ठ कवयित्री डॉ. मधुमोहिनी उपाध्याय ने मुझे एक सदरी भेंट की थी। मधु जी ध्यान और अध्यात्म के समर्पण की अद्वितीय मिसाल हैं। मुझे लगा कि उनका उपहार मेरे लिए आशीष का काम करेगा, सो बिना अधिक विचार किए मैंने पीले कुर्ते पर पीली सदरी पहनी और दिल्ली के आईपैक्स भवन जा पहुँचा। 23 वर्ष की कवि-सम्मेलनीय यात्रा में पहली बार किसी कार्यक्रम को सुनने के लिए मेरा लगभग पूरा परिवार उपस्थित था। मेरे माता-पिता, मनीषा, बहन-बहनोई और भानजी सामने श्रोतादीर्घा में बैठे थे। मेरे न जाने कितने ही मित्र सभागार में उपस्थित थे। कवि-सम्मेलन जगत् के मेरे अग्रज जैनेन्द्र कर्दम और डॉ. प्रवीण शुक्ल ने भी सामने बैठकर पूरा कार्यक्रम सुनने का निश्चय किया।
मैं आईपैक्स भवन के ऑफिस में बैठा था। मंच पर कार्यक्रम की औपचारिकताएँ प्रारंभ हो चुकी थीं। आईपैक्स भवन खचाखच भरा था। जितने लोग बैठे थे उतने ही लोग कुर्सी खाली होने की संभावना टटोलते हुए खड़े थे। मौसम में थोड़ी उमस थी, सो बाहर खड़े लोगों को गर्मी बर्दाश्त करनी पड़ रही थी। मैं इस सब व्यवस्था को देख ही रहा था कि कार्यकारिणी के पाँच-छह लोग मुझे लिवा लाने आ गए। मैं उनके साथ सभागार में प्रविष्ट हुआ। मंच पर प्रबुद्ध सौरभ कार्यक्रम की पूर्व पीठिका बना रहे थे। पूरे सभागार ने तालियाँ बजाते हुए खड़े होकर मेरा अभिवादन किया।
इस स्वागत से मैं किंचित और सावधान हो गया। मैंने राम जी का नाम लिया और प्रस्तुति के सारे तनाव को छोड़कर मंच की ओर बढ़ गया। मंच पर मेरा स्वागत-सम्मान किया गया और माइक मुे सौंप दिया गया।
मैंने सहज होकर ‘पुरुषोत्तम’ की प्रस्तुति प्रारंभ की। मैं ठहरकर अपनी कविता का पाठ कर रहा था और उसके साथ वह अलिखित भी साझा कर रहा था जो उस रचना की सर्जना के दौरान मेरे मन में चल रहा था। जीवन के सबसे सामान्य उदाहरण कैसे इस वाचन से जुड़ गए, मुझे नहीं पता। कविता पढ़ते-पढ़ते मुझे अभिनय करने की आवश्यकता इसलिए नहीं पढ़ी कि जब मैं गहन अनुभूति में उतरकर काव्यपाठ कर रहा था तो भाव-भंगिमा और देह स्वतः उसके अनुरूप संचालित हो रही थी। स्वर का उतार-चढ़ाव 23 वर्ष के कवि-सम्मेलनीय अनुभव का परिणाम था। वाक्य-विन्यास और भाषा का परिष्करण मेरी प्रवृत्ति में राम जी ने बहुत पहले बो दिया था। आज वही बीज फलित हो रहा था। चूँकि मैंने इस कविता को लिखते समय रामकहानी के एक-एक पात्र से घण्टों संवाद किया था, इसलिए इसके वाचन के दौरान भी वे सभी पात्र मेरे आसपास साक्षात् उपस्थित थे। उनकी मनोदशा मुझे सहज ही झंकृत कर रही थी। उस स्फुरण से मेरे भीतर जो संवेदना छलछला रही थी, वह दर्शकों के चेहरे पर भी यथावत दिखाई देती थी।
एक जादू सा छा गया था। सैंकड़ों पुतलियाँ मेरी देह पर त्राटक कर रही थीं। सहस्रों प्राण मेरी चेतना को स्पर्श कर स्पंदित कर रहे थे। मेरे स्नायु में रह-रहकर स्फुरण हो रहा था। मेरी अलकों का रंग पनीला हो उठा था। मेरे चेहरे पर भाव इतनी द्रुत गति से परिवर्तित हो रहे थे, मानो कोई रिमोट से टीवी का चैनल बदल रहा हो। यह सब कैसे हो रहा था, मैं नहीं जानता। लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि उस दिन यह सब हो रहा था, मैं कर नहीं रहा था।
कार्यक्रम सफल ही नहीं, सफलतम रहा। कार्यक्रम के उपरांत लोग चरण-स्पर्श से लेकर सेल्फी खिंचाने तक के लिए मुझे घेरे रहे। चरण-स्पर्श मुझे असहज करता है, सो मैंने किसी को यह न करने दिया। लेकिन रामजी की कृपा का रस भोगने में मुझे आनंद अवश्य आ रहा था।
100 मिनिट तक अनवरत प्रस्तुति से लोग चकित थे। मैंने बाद में लोगों की प्रतिक्रिया के वीडियो देखे तो उनमें कुछ बातें प्रमुख थीं- ‘ऐसी भाषा पहली बार सुनी’; ‘हम अपनी पलक तक नहीं झपक पाए’; ‘कभी हँसा दिया, कभी रुला दिया’; ‘राम जी के विषय में ऐसी-ऐसी बातें पता चलीं, जो हमने इससे पहले कभी सोची भी नहीं थीं।’
पराग चतुर्वेदी जी, जिन्हें मैं हिन्दी का निस्पृह समालोचक मानता हूँ। उन्होंने कार्यक्रम के बाद मुझसे कहा, ‘आज तो आपके चरण-स्पर्श करने का मन है।’ ये सब प्रतिक्रियाएँ मेरे लिए अनापेक्षित थीं।
अगले दिन सुरेन्द्र शर्मा जी ने बिंदल जी को फोन करके कार्यक्रम की रिपोर्ट ली। बिंदल जी ने न जाने उन्हें क्या कहा, लेकिन उनका फोन रखते ही सुरेन्द्र जी ने मुझे फोन करके लगभग चहकते हुए कहा, ‘बधाई हो! तूने कमाल कर दिया।’ सुरेन्द्र जी से यह वाक्य सुनना मेरे लिए किसी प्रमाण-पत्र से कम नहीं था।
‘पुरुषोत्तम’ इतना चर्चित हुआ कि अगले ही दिन अरुण जैमिनी जी ने मेरे घर रुककर रात में पूरी फुटेज देखी। वे इस कविता की सृजन प्रक्रिया के सबसे निकटतम साक्षी हैं, इसलिए इसकी प्रस्तुति देखते हुए उनके चेहरे पर जो भाव उतर रहे थे, वे मेेरे लिए उत्साहवर्द्धक थे।
डॉ. अशोक चक्रधर ने 5 जुलाई को अग्रिम पंक्ति में बैठकर सपत्नीक इस प्रस्तुति को देखा। वे इससे इतने भाव-विभोर हुए कि उन्होंने मंच से मेरी लेखनी को प्रणाम किया। यह मेरे लिए सुखद भी था और संकोचजनक भी। अरुण जैमिनी जी, डॉ. विनय विश्वास, चेतन आनंद और न जाने कितने ही अपनों ने इस कृति को सराहकर मेरी लेखनी को पुष्ट किया है। आलोक गौड़ जी ने तो इसे न केवल सराहा बल्कि अपने परिचितों में इसकी संस्तुति भी की।
अब तक ‘पुरुषोत्तम’ की अनेक प्रस्तुतियाँ हो चुकी हैं। हर बार लोगों की प्रतिक्रिया रोमांचवृद्धि करती है। उधर ‘पुरुषोत्तम’ महाकाव्य भी अनवरत पूर्णता की ओर अग्रसर है। शूर्पणखा, हनुमान- जाम्बवन्त संवाद, लंका प्रवेश, त्रिजटा, सीता-हनुमान संवाद, अशोक वाटिका ध्वंस, लक्ष्मण मूर्च्छा, मेघनाद वध, मेघनाद की अंत्येष्टि और रावण-मंदोदरी संवाद जैसे अनेक प्रसंग लिखे जा चुके हैं।
वर्ष 2021 में जब मेरी ओपन हार्ट सर्जरी हुई थी तब मैं समझ नहीं पा रहा था कि जीवन की यह दूसरी पारी मेरे भाग्य में क्यों लिखी गई होगी। लेकिन पुरुषोत्तम के सृजन में जो रसवृष्टि होती है, उसे भोगकर मैं समझ पाया कि ईश्वर ने मुझे संभवतः इसी सृजन के लिए जीवित रखा है।
यह रचना अपना भाग्य स्वयं लेकर अवतरित हो रही है। मैं बस इतना कर रहा हूँ कि जब कोई पात्र अपना सीना चीरकर मेरे कवि के सामने उपस्थित होता है तो मैं तमाम लौकिक कार्यों को द्वितीयक करते हुए उस पात्र को वरीयता देता हूँ। अपनी अनुभूति क्षमता का समग्र उस पात्र पर केन्द्रित कर देता हूँ। और उसके बाद उस अनुभूति को अभिव्यक्त करने में अपनी अभिव्यक्ति क्षमता को पूरी तरह निचोड़ डालता हूँ।
शेष राम जी की इच्छा!
✍️ चिराग़ जैन
Labels:
Chirag Jain,
Diary,
Prose,
Purushottam,
गद्य,
डायरी
Subscribe to:
Posts (Atom)