एक जन्म की साधना
या तपस्या कुछ रातों की
व्यक्ति को नहीं बनाती है कवि।
कविता के रूप में
शब्दों को संजाने के लिये
करनी पड़ती है तपस्या जन्मों तक
तब कहीं जाकर
कठिनाई से जन्मता है कवित्व।
जानते हो?
कवि के सामने रखी दवात में
नहीं होती है स्याही
ख़ून होता है।
वही ख़ून
जो जलता है स्वयं
कविता के सृजनार्थ
स्वैच्छिक।
और जब कवि
उस दवात में
चिंतन की क़लम डुबोकर
अभिव्यक्तियों का शब्दचित्र उतारता है ना
काग़ज़ पर
तब उसे मिलती है
‘संतुष्टि’!
जिसे पाकर
वह स्वामी बन जाता है
बैकुण्ठ का!
✍️ चिराग़ जैन
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