अपने आप से दूर हो रहे लोग
इंसानियत से अधिक आवश्यक हो रहे भोग
अदालतों में टूटता भाई-बहन का प्यार
अस्सी साल की नारी का बलात्कार
पश्चिम की धुनों पर थिरकता यौवन
चुनाव-दर-चुनाव बढ़ता प्रलोभन
बेटियों को बेचकर ख़रीदा गया राशन
धर्ममंचों से पढ़ा जा रहा राजनैतिक भाषण
स्कूलों के सामने चाय बनाते बच्चे
धर्म के नाम पर उड़ते मानव के परखच्चे
केसर-क्यारी में पलते धतूरे के पेड़
मेमनों को खाती हुई मांसाहारी भेड़
मुस्कुराना भूल चुके आदमी के होंठ
हर आँख में तैरती निकृष्टता की खोट
राह चलती नारियों का तन घूरती आँखें
फ़ैशन की होड़ में उघड़ी हुई काँखें
हर मस्तिष्क में पनप रही भ्रष्टाचारी दानवता
सिद्ध करती है कि मर रही है मानवता
पर ध्यान रखो, मानवता मर रही है, मरी नहीं है
अभी इसने आख़िरी हिचकी भरी नहीं है
हम चाहें तो इसे मरने से बचा सकते हैं
इसकी डूबती हुई साँसों को वापिस ला सकते हैं
इस बुझते हुए दीये को फिर से जलाना होगा
फिर से परोपकार का एक बाग़ लगाना होगा
फिर से चरण-स्पर्श की परम्परा लानी होगी
हर बोली में मिठास की फ़सल उगानी होगी
फिर आदमी को देख आदमी खिलखिला उठेगा
अर गली में प्रेम का सिलसिला उठेगा
फिर से विद्यार्थी किताबों में झाँकेगा
फिर से यौवन विवेकानन्द के पीछे भागेगा
फिर से बेटा, बाप को ‘पिताजी’ कहेगा
फिर दो बेटों का बाप, वृद्धाश्रम में नहीं रहेगा
फिर से बच्चे, बड़ों का आदर करेंगे
जवान बेटे, बूढ़े बाप की आँखों से डरेंगे
फिर भाई के मरने पर भाई दिल से रोयेगा
फिर प्यार की घाटी में कोई नफ़रत न बोयेगा
फिर भाषणों में झूठ नहीं बोला जायेगा
नारी आश्रम के नाम पर वेश्यालय नहीं खोला जायेगा
फिर से नारी अंग ढँक कर चलेगी
फिर हर आँख में नारी के लिये इज़्ज़त पलेगी
फिर हर युगल को गंदी निगाहों से नहीं देखेंगे
फिर दिल के तालाब में सब प्यार के कंकर फेंकेंगे
जिस दिन मानव की मृत्यु से मानव के दिल पर चोट आयेगी
उस दिन मानवता की डूबती हुई साँस लौट आयेगी
✍️ चिराग़ जैन
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