Thursday, May 22, 2003

लोग आते-जाते हैं

दिल भी है इक ख़ूबसूरत से इदारे की तरह
लोग आते-जाते हैं, पानी के धारे की तरह

जब से ये संसार सारा हो गया है आसमां
तब से है इन्सानियत टूटे सितारे की तरह

चल सको तो तुम किसी के बन के उसके संग चलो
वरना इक दिन छूट जाओगे सहारे की तरह

दिल के रिश्तों को फ़रेबी उंगलियों से मत छुओ
जुड़ नहीं पाते, बिखर जाते हैं पारे की तरह

ज़िन्दगी तुम बिन भी यूँ तो ख़ूबसूरत झील थी
तुम मगर इस झील में उतरे शिकारे की तरह

आपका चेहरा भी मीठी ईद-सा ख़ुशरंग है
खिलखिलाहट चांद-तारे के नज़ारे की तरह

एक अरसा साथ रहकर भी पराए ही रहे
तुम समन्दर की तरह थे, हम किनारे की तरह

© चिराग़ जैन

खोते मंज़र

चाहकर भी
नहीं बचा पा रहे हैं हम
वह सब
जो आनंदित करता है हमें
तनाव के क्षणों में।

क्षमा नहीं करेंगी हमें
हमारी ही सन्तानें
क्योंकि छीन लेते हैं हम
रोज़ाना
आनंद के अनिवार्य तत्व
अगली पीढ़ी से
...आधुनिक बनने की कोशिश में

मिटा देते हैं रोज़ाना
प्रकृति में बिखरे काव्यांश
अपने ही हाथों
आधुनिक बनने के लिए

सोचता हूँ अक्सर
कि कैसे देखेंगी हमारी संतानें
वह सब
जो आनंदित करता है हमें
तनाव के क्षणों में।

वासन्ती रुत के पीले फूल
स्वच्छ नदियों के गीले कूल
नंगे फ़क़ीरों का ऐश्वर्य
धूल भरी आंधियों का वेगवान सौंदर्य
कोहरे की चादर से ढँके हुए खेत
बूढ़े दादाजी की सुंदर सी बेंत
गलियों में दौड़ती बच्चों की रेल
गुड़िया और गुड्डे और कंचों के खेल
छोटी सी गिल्ली और गज भर का डंडा
मिट्टी का चूल्हा और गोबर का कण्डा
आंगन की बारिश का मल्हारी राग
कोयल की बोली और आमों के बाग
साड़ी का पल्लू और धोती की लांग
भोर भए भैरवी सी मुर्गे की बांग
उर्दू की ग़ज़लें और हिंदी के गीत
घोड़े की टापों का सुंदर संगीत

कैसे कोई झूमेगा मधुबन में जाकर
कैसे जताएगा ख़ुशियाँ कोई गाकर
क्या करेगी ये पीढ़ी, दुनिया में आकर।

नफ़रत में जलता अब सारा संसार है
प्यार की, मुहब्बत की बातें बेकार हैं
भ्रांतियों के झूलों में वे भी झूल जाएंगे
लंबी-लंबी लाइनों में जीवन बिताएंगे
जंगल का राज देख रो-रो चिल्लाएंगे
बिस्लेरी पिएंगे और यूरिया चबाएंगे
आओ, पहले अपने वर्तमान को बचाएँ
तब इस भविष्य को दुनिया में लाएँ।

© चिराग़ जैन

Sunday, May 4, 2003

मधुमास

खण्ड-खण्ड कर रहे देश की अखण्डता को
ऐसे दुष्ट लोगों का विनाश होना चाहिए
जातिवादियों के जीवन में हलाहल घुले
साम्प्रदायिकों का सर्वनाश होना चाहिए
ज्वालाएँ प्रचण्ड मेरे भारत में फिर जलें
एक-एक कोने में प्रकाश होना चाहिए
न हो कोई जाति न धरम कोई शेष रहे
पूरे भारत में मधुमास होना चाहिए

© चिराग़ जैन