Sunday, October 12, 2003

व्यस्तता

जब तक तुम संग थीं
मैंने नहीं तलाशी कोई ख़ुशी
नहीं खोजी कोई मुस्कान
नहीं ढूँढ़ी कोई हँसी
...ज़रूरत ही नहीं पड़ी।

अब तलाशता फिरता हूँ
एक-मासूम सी ख़ुशी
अपने दिल के लिये।
एक कोमल-सी मुस्कान
अपने होंठों के लिये।
एक गीली-सी हँसी
अपने चेहरे के लिये।
और एक पावन-सी चमक
अपनी आँखों के लिये।

लेकिन रीती ही रह जाती है
तलाशों का जल भरने के लिए बढ़ती
छोटी-सी अंजुरी।

दूर तक यात्रा करने के बाद
पलकों के भीतर
लौट आती हैं गीली निगाहें
और देर तक इंतज़ार करने के बाद
थककर बैठ जाता हूँ मैं।

हाय राम!
खुशियों को भी
अभी व्यस्त होना था!

✍️ चिराग़ जैन

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