तुम रूठी तो मैंने रोकर, कोई गीत नहीं लिखा
इस ग़म में दीवाना होकर, कोई गीत नहीं लिखा
तुम जब तक थीं साथ तभी तक नज़्में-ग़ज़लें ख़ूब कहीं
लेकिन साथ तुम्हारा खोकर कोई गीत नहीं लिखा
प्यार भरे लम्हों की इक पल याद नहीं दिल से जाती
मन भर-भर आता है फिर भी साँस नहीं रुकने पाती
उखड़ा-उखड़ा रहता हूँ पर जीवन चलता रहता है
शायद मैंने खण्डित की है प्रेमनगर की परिपाटी
इस पीड़ा में नयन भिगोकर कोई गीत नहीं लिखा
रोज़ सजानी थी नग़्मों में प्रेम-वफ़ा की परिभाषा
और जतानी थी फिर से मिलने की अंतिम अभिलाषा
प्रश्न उठाने थे तुम पर या ख़ुद को दोषी कहना था
या फिर ईश्वर के आगे रखनी थी कोई जिज्ञासा
मैंने अब तक आख़िर क्योंकर कोई गीत नहीं लिखा
संबंधों की पीड़ा भी है, भीतर का खालीपन भी
मुझसे घण्टों बतियाता रहता है मेरा दरपन भी
हर पल भाव घुमड़ते रहते हैं मेरे मन के भीतर
नम पलकों से हो ही जाता है आँसू का तर्पण भी
इतना सब सामान संजोकर कोई गीत नहीं लिखा
सारी दुनिया को कैसे बतलाऊंगा अपनी बातें
आकर्षण, अपनत्व, समर्पण या पीड़ा की बरसातें
जिन बातों को हम-तुम बस आँखों-आँखों में करते थे
क्या शब्दों में बंध पाएंगी वो भावों की सौगातें
इन प्रश्नों से आहत होकर कोई गीत नहीं लिखा
✍️ चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Friday, May 28, 2004
कोई गीत नहीं लिखा
Labels:
Chirag Jain,
Geet,
Poetry,
Romanticism,
गीत,
छूकर निकली है बेचैनी,
पद्य
Location:
दिल्ली, भारत
Thursday, May 27, 2004
तू भी सब-सा निकला
जो जितना भी सच्चा निकला
वो उतना ही तनहा निकला
सुख के छोटे-से क़तरे में
ग़म का पूरा दरिया निकला
कुछ के वरक़ ज़रा महंगे थे
माल सभी का हल्का निकला
मैंने तुझको ख़ुद-सा समझा
लेकिन तू भी सब-सा निकला
कौन यहाँ कह पाया सब कुछ
कम ही निकला जितना निकला
✍️ चिराग़ जैन
वो उतना ही तनहा निकला
सुख के छोटे-से क़तरे में
ग़म का पूरा दरिया निकला
कुछ के वरक़ ज़रा महंगे थे
माल सभी का हल्का निकला
मैंने तुझको ख़ुद-सा समझा
लेकिन तू भी सब-सा निकला
कौन यहाँ कह पाया सब कुछ
कम ही निकला जितना निकला
✍️ चिराग़ जैन
Sunday, May 2, 2004
हमने देखे हैं कई साथ निभाने वाले
हमने देखे हैं कई साथ निभाने वाले
बरगला लेंगे तुझे भी ये ज़माने वाले
बारिशों में ये नदी कैसा कहर ढाती है
ये बताएंगे तुझे इसके मुहाने वाले
धूप जिस पल मिरे आंगन में उतर आएगी
और जल जाएंगे दीवार उठाने वाले
मौत ने ईसा को शोहरत की बुलंदी बख्शी
ख़ाक़ में मिल गए सूली पे चढ़ाने वाले
रास्ते सच के बहुत तंग, बहुत मुश्क़िल हैं
सोच ले ये भी ज़रा जोश में आने वाले
अपनी ऑंखों को भी सिखला ले हुनर धोखे का
झूठी बातों से हक़ीक़त को छिपाने वाले
✍️ चिराग़ जैन
बरगला लेंगे तुझे भी ये ज़माने वाले
बारिशों में ये नदी कैसा कहर ढाती है
ये बताएंगे तुझे इसके मुहाने वाले
धूप जिस पल मिरे आंगन में उतर आएगी
और जल जाएंगे दीवार उठाने वाले
मौत ने ईसा को शोहरत की बुलंदी बख्शी
ख़ाक़ में मिल गए सूली पे चढ़ाने वाले
रास्ते सच के बहुत तंग, बहुत मुश्क़िल हैं
सोच ले ये भी ज़रा जोश में आने वाले
अपनी ऑंखों को भी सिखला ले हुनर धोखे का
झूठी बातों से हक़ीक़त को छिपाने वाले
✍️ चिराग़ जैन
Subscribe to:
Comments (Atom)