Friday, July 14, 2006

बचपन

हँसी-ख़ुशी के वो लमहे हज़ार बचपन के
कभी तो लौटते दिन एक बार बचपन के

नहीं, दिमाग़ न थे होशियार बचपन के
तभी तो दिन थे बहुत ख़ुशगवार बचपन के

बड़े हुए तो बहुत लोग मिल गए लेकिन
बिछड़ चुके हैं सभी दोस्त-यार बचपन के

जो जिस्म को नहीं दिल को सुक़ून देते थे
बहुत अजीब थे वो रोज़गार बचपन के

लड़े जो सुब्ह तो फिर शाम साथ खेल लिए
कभी रहे नहीं मन में ग़ुबार बचपन के

सभी को चुपके से हर राज़ बता देते थे
सभी तो हो गए थे राज़दार बचपन के

ढले जो शाम तो गलियों में खेलने निकलें
बड़े हसीन थे वो इन्तज़ार बचपन के

बड़ों पे ज़िद रही, छोटों पे इक रुआब रहा
कहाँ बचे हैं वो अब इख़्तियार बचपन के

ज़ेह्न में कौंध के होठों पे बिखर जाते हैं
वो वाक़यात हैं जो बेशुमार बचपन के

© चिराग़ जैन

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