Thursday, August 24, 2006

पनिहारी

पानी भरने को पनिहारी पनघट चली
मटकिया मटकती कटि में दबात है
गोरी के बदन की छुअन ऐसी मदभरी
मदहोश गगरिया झूम-झूम गात है
अंग-अंग में सुगन्ध ता पे मतवारी चाल
मोरनी भी नत है हिरनिया भी मात है
चूम-चूम पतली कमरिया गुजरिया की
गगरिया गोरी संग ठुमका लगात है

क्वारी पनिहारी लिए झारि जो मटक चली
झारि वाला वारि झारि विच झूमने लगा
बूंद-बूंद टूट कूद-कूद कर बारी-बारी
गोरी के ललाट को पकड़ घूमने लगा
क़िस्मत एक जलकण की थी उजियारी
भृकुटि से नासा पै लटक लूमने लगा
ज़रा-सा जतन कर होंठ की किनारी छुई
मीठे रस-भरे अधरों को चूमने लगा

मद-भरी बून्द ज़रा नीचे को उतर आई
मतवारी चाल मदहोश-सी ढलक थी
होले-होले तन की सवारी पर चली; तब
नज़रों में तोष की कमाई की चमक थी
साँवरी की गर्दन पर डोल लहराई
चाल में षोडषी की कमर-सी लचक थी
गोरी के बदन में उतर जाऊँ भीतर लौ
ऑंख में सपन और श्वास में महक थी

इत बून्द बढ़ै उत चुनरी की ऑंख कढ़ै
गोरी को कलेजो घेर लयो पल भर में
उजरौ हिया तनि चुनरिया तैं ढँक गयो
पथ पै घनो अंधेर भयो पल भर में
चुनरी तैं ऍंखियाँ बचाय बढ़ चली बून्द
पर चुनरी ने हेर लयो पल भर में
तब बून्द हारी बकी गारी दारी चुनरी को
करनी पै पानी फेर दयो पल भर में

© चिराग़ जैन

Thursday, August 17, 2006

मौन

भले ही कभी
बाँहों में भरकर
दुलारा न हो मुझे
आपके नेह ने!

...लेकिन फिर भी
न जाने क्यों

आपका मौन!

© चिराग़ जैन

Monday, August 14, 2006

स्वतंत्रता

मन के मलंग मतवाले महानायकों की
कुर्बानियों का परिणाम है स्वतन्त्रता
स्वर की बुलन्दियों ने जो अदालतों में किया
क्रान्ति का वो दिव्य यशगान है स्वतन्त्रता
शहीदों ने भूख-प्यास सह के बचाया जिसे
भारती का वही स्वाभिमान है स्वतन्त्रता
लाल-बाल-पाल औ सुभाष जैसे ऋषियों की
साधना का शुभ्र वरदान है स्वतन्त्रता 

© चिराग़ जैन

Sunday, August 6, 2006

आदमी मायूस होता है

हवस की राह चलकर आदमी मायूस होता है
सदा आपे से बाहर आदमी मायूस होता है

कभी मायूस होकर आदमी खोता है उम्मीदें
कभी उम्मीद खोकर आदमी मायूस होता है

न हो उम्मीद तो मायूसियाँ छू भी नहीं सकतीं
हमेशा आरज़ू कर आदमी मायूस होता है

हज़ारों ख्वाब बेशक़ बन्द ऑंखों में पलें लेकिन
पलक खुलने पे अक्सर आदमी मायूस होता है

जहाँ दरकार हो दो घूँट मीठे साफ पानी की
वहाँ पाकर समन्दर आदमी मायूस होता है

© चिराग़ जैन