Saturday, July 21, 2007

ज़िन्दगी

दुनिया में आ के सकुचाई पल भर फिर
ममता की छाँव में सँवर गई ज़िन्दगी
पालना, खिलौना, पाठशाला, अनुभव, ज्ञान
प्रेम की छुअन से निखर गई ज़िन्दगी
क़ामयाबी का गुमान ज़िन्दगी पे लदा और
ज़िन्दगी के दाता को अखर गई ज़िन्दगी
मौत की हवा ने श्वास का दीया बुझा दिया तो
हाड़-हाड़ राख में बिखर गई ज़िन्दगी

© चिराग़ जैन

Friday, July 6, 2007

लव इन दिल्ली-यूनिवर्सिटी

मौरिस नगर के नुक्कड़ों को
आज भी याद हैं
हज़ारों निशब्द प्रेम कहानियाँ
जिनका पूरा सफ़र
तय होकर रह गया
आँखों-आँखों में ही।

लेकिन अब
ये प्रेम कहानियाँ
ऐसी ख़ामोशी से नहीं बनतीं।
अब
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ लिखकर
अपने अधिकार जान गया है प्रेम।

अब लोक-लाज
और पिछड़े हुए समाज से
आगे निकलकर
‘निरुलाज़’ और ‘मॅक-डीज़’ में
बर्गर खाते हुए
घंटों बतिया सकता है प्रेम
...सेफ्ली।

या फिर आट्र्स फैकल्टी के बाहर
भेल-पुड़ी खाते हुए
आलिंगनबद्ध हो सकता है
सारे ज़माने के सामने।

अब फैशनेबल मोटर बाइक पर
बेहिचक-बेझिझक
बिना किसी से डरे
फर्राटे से दौड़ सकता है प्रेम।

पहले की तरह नहीं
कि नाम पूछने में ही
महीनों लग जाएँ।
अब तो झट से पूछ सकता है
कोई भी
कुछ भी
किसी से भी।

© चिराग़ जैन

ऐब्स्ट्रेक्ट

किसी की याद के
कुछ रंग
यक-ब-यक
बिखर जाते हैं
ज़ेहन के कॅनवास पर।

और
मैं ठहर कर
निहारने लगता हूँ
उस कलाकृति की
ख़ूबसूरती को।
बूझने लगता हूँ
अतीत के स्ट्रोक्स की
जटिल पहेलियाँ।

आज तक
समझ नहीं पाया हूँ
कि ये ऐब्स्ट्रेक्ट
बना
तो बना कैसे?

© चिराग़ जैन

Thursday, July 5, 2007

दिल्ली

वे भी दिन थे
जब पुरानी दिल्ली की तंग गलियाँ
अकारण ही मुस्कुरा देती थीं
नज़र मिलने पर
अजनबियों से भी!

दरियागंज की हवेलियाँ
अक्सर देखा करती थीं
एक कटोरी को
देहरी लांघकर
इतराते हुए
दूसरी देहरी तक जाते
कुछ दशक पहले तक!

शाहदरा के बेतरतीब मकान
चिलचिलाती धूप में अक्सर
दरवाज़ा खोलकर
बिना झल्लाए
तर कर देते थे
अजनबियों का गला
ठण्डे-ठण्डे पानी से!

करोल बाग़ की सड़कें
अनायास ही
जुट जाती थीं
मुसीबत में खड़े किसी मुसाफिर की
मदद करने के लिए।

और मौरिस नगर के नुक्कड़ों को
आज भी याद हैं
हज़ारों नि:शब्द प्रेम कहानियाँ,
जिनका पूरा सफ़र
तय होकर रह गया
आँखों-आँखों में ही!

…लेकिन अब
ये प्रेम कहानियाँ
ऐसी ख़ामोशी में नहीं बनतीं।
अब दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़-लिख कर
अपने अधिकार जान गया है प्रेम!
अब लोक-लाज और
पिछड़े हुए समाज से
कुछ आगे निकल कर
निरूलाज़ और मैक-डीज़ में
बर्गर खाते हुए
घंटों बतिया सकता है प्रेम
‘सेफ़ली’!
…या फिर आर्ट्स फ़ैकल्टी के बाहर
भेल-पूड़ी खाते हुए
बेरोक-टोक
आलिंगनबध्द हो सकता है
सारे ज़माने के सामने!
…या फैशनेबल मोटर-बाइक पर
बेहिचक, बेझिझक
बिना किसी से डरे
‘चाहे जैसे’
फर्राटे से दौड़ सकता है।
…पहले की तरह नहीं
कि नाम पूछने में भी
महीनों लग जाएँ!
अब तो
झट से पूछ सकता है
कोई भी
कुछ भी
किसी से भी!

अब दिल्ली
दो पल ठहर कर
कोई किसी को
रास्ता नहीं बताती है,
अब एक्सिडेंट को देख कर भी
गाड़ियों की क़तारें
(न जाने कहाँ पहुँचने की जल्दी में)
फ़र्राटे से निक्ल जाती हैं।

अब कोई किसी प्यासे को
पानी नहीं पिलाता,
और तो और
अब तो कोई प्यासा
पानी पीने के लिए
किसी का दरवाज़ा भी नहीं खटखटाता!

शाहदरा, उत्तम नगर
और आदर्श नगर की क़स्बाई गलियाँ
रोज़ सवेरे
धड़धड़ाती मैट्रो में सवार हो
पहुँच जाती हैं
साउथ-एक्स, कनॉट प्लेस
या नेहरू प्लेस
जहाँ गुम हो जाता है क़स्बा
शहरी भीड़ में!

अब इन गलियों के पास
नहीं बचा है वक्त
चाय की चुस्कियों के साथ
जनसत्ता पढ़ने का।
…अब तो ‘फटाफट न्यूज़’ का
दस मिनिट का बुलेटिन ही देख पाते हैं
बमुश्क़िल!

दरियागंज की हवेलियों में
अब गोदाम हैं
किताबों के
काग़ज़ के
और रुपयों के!

पुरानी दिल्ली की तंग गलियाँ
अब तंग आ चुकी हैं
अजनबियों से!
हुक्के की गुड़गुड़ाहट पर
कब्ज़ा कर लिया है
‘आइए भैनजी, सूट देखिए!’
की आवाज़ ने।

मुद्दतों से
ग़ज़ल नहीं इठलाई है
बल्लीमारान की गली क़ासिम में;
अब यहाँ
जूतियों का
इंटरनेशनल बाज़ार है।

© चिराग़ जैन