इन नासमझों का होगा नहीं रे कल्याण
रामधरा पर मांग रहे हैं रामलला के प्रमाण
श्रीराम बसे हैं आंगन में, पावन तुलसी की क्यारी में
श्री राम बसे हैं घर-घर में, आपस की दुनियादारी में
श्रीराम हमारी आँखों में, श्रीराम हमारे सपनों में
श्रीराम हैं सारे संबंधों में, सब रिश्तों में, अपनों में
बोलो कण-कण व्यापी का, कैसे करोगे परिमाण
मांगो प्रमाण रामायण के, इस भारत भू के कण-कण से
सरयू की निर्मल धारा से, और अवधपुरी के आंगन से
पूरब के उस मिथिलांचल से, पश्चिम के उस दंडक वन से
उत्तर के बृहत् हिमालय से, दक्षिण के उस भीषण रण से
देगा गवाही तुम्हें, सागर का थोथा अभिमान
ढूंढो शबरी के बेरों में, जंगल की दुर्गम राहों में
तिनकों की पावन कुटिया में, महलों की सिक्त निगाहों में
कब राम हुए थे ये पूछो, जंगल के हर इक वानर से
जिसने रावण को टक्कर दी, उस पंछी के टूटे पर से
भ्राता भरत से पूछो, पूजे थे जिसने पदत्राण
रामायण इस भारत भू के गौरव की अमर कहानी है
ये कथा हमारे पुरखों के पौरुष की एक निशानी है
रामायण केवल ग्रंथ नहीं, संस्कृति का ताना-बाना है
इस रामायण को झुठलाना, इस संस्कृति को झुठलाना है
इसमें बसा है अपने भारत का स्वर्णिम स्वाभिमान
जिनको पढ़ कर जीना सीखा, उनको मिथ्या बतलाते हैं
ये रावण के गोरे वंशज, राघव पर प्रश्न उठाते हैं
ये मैकाले के दूत भला तुलसी को क्योंकर मानेंगे
जो ख़ुद को जान नहीं पाए, रघुपति को क्या पहचानेंगे
आंखों पे पट्टी बांधे, करने चले हैं पहचान
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Wednesday, October 17, 2007
रामसेतु
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Tuesday, October 16, 2007
Tuesday, October 9, 2007
रिश्तों को ज़िंदा रखना
कितना आसान है
रिश्तों को फ़ना कर देना
ज़रा-सी बात को दिल से लगा के रख लेना
ग़ैर लोगों को, रक़ीबों को तवज़्ज़्ाो देना
शक़ की तलवार से विश्वास को कर देना हलाल
अपने लहजे को तल्ख़ियों के हवाले करना
अपने मनसूबों में कर लेना सियासत को शुमार
सामने वाले की हर बात ग़लत ठहराना
उस की हर एक तमन्ना को नाजायज़ कहना
उसको बिन बात हर इक बात पे रुसवा करना
उसकी हर बात में खुदगर्ज़ियों की करना तलाश
उस से रख लेना बिना बोले समझने की उम्मीद
उसके आगे सदा हँसने का दिखावा करना
अपने हर दर्द की वजह उसे समझ लेना
प्यार को अनकही रंजिश की शक़्ल दे देना
अपनी झूठी अना की दे के दुहाई हर दम
अपने अहसास के अमृत को ज़हर कर लेना
या कि इक पल में ही अपनों को ग़ैर कर देना.......
कितना मुश्क़िल है मगर
रिश्तों को ज़िंदा रखना!
© चिराग़ जैन
रिश्तों को फ़ना कर देना
ज़रा-सी बात को दिल से लगा के रख लेना
ग़ैर लोगों को, रक़ीबों को तवज़्ज़्ाो देना
शक़ की तलवार से विश्वास को कर देना हलाल
अपने लहजे को तल्ख़ियों के हवाले करना
अपने मनसूबों में कर लेना सियासत को शुमार
सामने वाले की हर बात ग़लत ठहराना
उस की हर एक तमन्ना को नाजायज़ कहना
उसको बिन बात हर इक बात पे रुसवा करना
उसकी हर बात में खुदगर्ज़ियों की करना तलाश
उस से रख लेना बिना बोले समझने की उम्मीद
उसके आगे सदा हँसने का दिखावा करना
अपने हर दर्द की वजह उसे समझ लेना
प्यार को अनकही रंजिश की शक़्ल दे देना
अपनी झूठी अना की दे के दुहाई हर दम
अपने अहसास के अमृत को ज़हर कर लेना
या कि इक पल में ही अपनों को ग़ैर कर देना.......
कितना मुश्क़िल है मगर
रिश्तों को ज़िंदा रखना!
© चिराग़ जैन
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कोई यूँ ही नहीं चुभता,
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पद्य
Wednesday, October 3, 2007
ख़ुद से मुख़ातिब
कितना आसान है
दुनिया को ग़लत ठहराना
थोड़ा चालाक रवैया
ज़रा-सी अय्यारी
झूठ को सच बना देने का क़रामाती गुर
थोड़ी कज़बहसी
थोड़ी ज़िद्द
ज़रा-सी लफ़्फ़ाज़ी
तेज़ आवाज़ औ’ मुद्दों को घुमाने का हुनर
चन्द सिक्कों से ख़रीदे हुए दो-चार गवाह
और इक इन्तहा बेअदबी की
ढिठाई की....
....कितना मुश्क़िल है मगर
ख़ुद से मुख़ातिब होना!
© चिराग़ जैन
दुनिया को ग़लत ठहराना
थोड़ा चालाक रवैया
ज़रा-सी अय्यारी
झूठ को सच बना देने का क़रामाती गुर
थोड़ी कज़बहसी
थोड़ी ज़िद्द
ज़रा-सी लफ़्फ़ाज़ी
तेज़ आवाज़ औ’ मुद्दों को घुमाने का हुनर
चन्द सिक्कों से ख़रीदे हुए दो-चार गवाह
और इक इन्तहा बेअदबी की
ढिठाई की....
....कितना मुश्क़िल है मगर
ख़ुद से मुख़ातिब होना!
© चिराग़ जैन
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