Thursday, November 22, 2007

जनता की लूट

क्रूर काल ने गुरुग्राम की एक दम्पत्ति की गोद सूनी कर दी और अस्पताल ने उनकी जेब काट ली। इस देश में कुछ बुनियादी आवश्यकताएं जनता की लूट का माध्यम बन गई हैं। चिकित्सा में सरकारी तंत्र की नाकामी का लाभ अस्पताल उठाते हैं और कई कई दिन तक शव को वेंटिलेटर पर रख कर बिल बढ़ाते पाए जाते हैं। बीमारी से परेशान रोगी और किसी अपने से बिछड़ जाने के शोक से ग्रस्त परिजन कसाई की तरह निष्ठुर बने अस्पताल प्रशासन के हाथों लुटने को विवश हैं। 

यदि चिकित्सा एक सेवाकार्य है तो यह कहाँ तक उचित है कि एक सेवक मानवीय संवेदनाओं को धता बता कर लाश तक सौंपने से पूर्व मोलभाव पर उतर आए? और यदि यह व्यवसाय है तो फिर कोई व्यापारी जिस काम को करने की कीमत ले रहा है, जब वह काम ही न हुआ तो ग्राहक से उसकी कीमत कैसे मांग सकता है। एक डॉक्टर किसी मरीज का डेंगू का इलाज कर रहा है और इस इलाज के एवज में दस लाख का मूल्य मांगता है यदि वह मरीज इलाज के दौरान मर जाए तो इसका अर्थ है कि डॉक्टर इलाज नहीं कर पाया और यदि इलाज नहीं कर पाया तो ग्राहक से पैसे लेने का उसका अधिकार समाप्त हो जाना चाहिए।

पूरा विश्व मानव जीवन की बेहतरी के लिए चिकित्सा जगत पर निर्भर है, विश्व भर में अलग अलग पद्धतियों के शोधकर्ता जटिल रोगों के निदान खोजने में जीवन होम कर रहे हैं। लेकिन इन शोधकार्यों से निकल कर नुस्खे का अमृत कलश पेटेंट के अंधकूप में समा जाता है फिर उस संजीवनी को महंगे दामों पर कोई व्यवसायी ख़रीद लेता है और मूर्छित लक्ष्मण के परिजनों से मुंहमांगी रकम वसूलता है।

व्यवसाय बन चुके चिकित्सा के पेशे में स्वास्थ्य और इलाज वरीयता नहीं रह गए हैं। फाइव स्टार में तब्दील हो चुकी वैद्यशालाएँ अब लाचार परिवारों से पैसा लूटने की जुगत में व्यस्त हैं। दवाई कम्पनियों से मिलने वाली कमीशन के आधार पर डॉक्टर्स की प्रिस्क्रिप्शन निर्धारित होने लगी है। महंगे महंगे टेस्ट (वो भी डॉक्टर साहब द्वारा सुझाई गई लैब से) करवाने में ही डॉक्टर साहब की सबसे ज़्यादा रुचि होती है।

सरकारी अस्पतालों में नम्बर नहीं आता और निजी अस्पताल आपका नम्बर लगा देते हैं। सरकारी अस्पतालों में बदतमीज़ी और बेहूदगी की ज़िल्लत झेलनी पड़ती है तो निजी अस्पताल में सीने पर स्टेथोस्कोप रखकर लूटा जाता है। सरकारी अस्पताल में इलाज के अभाव में मरीज़ मर जाता है तो निजी अस्पताल में इतना इलाज मिलता है कि उसका मोल चुकाने में मरीज़ और उसके परिजन सब मर जाते हैं। 

अस्पताल में कोई मरीज़ इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हो पाता कि उसे जो मिल रहा है वह इलाज ही है या उसे कुछ दिन तक अस्पताल में टिकाए रखने का नुस्खा दिया जा रहा है। 

अस्पताल प्रशासन ने डॉक्टर्स की नौकरी को बंदी बना रखा है कि यदि अमुक राशि हर महीने अस्पताल के खजाने में नहीं जमा करवाई तो आपकी नौकरी चली जाएगी। अपनी नौकरी की इज़्ज़त बचाने के लिए बेचारा डॉक्टर मरीज़ को एटीएम समझ कर उसमें दहशत का कार्ड डालता है और पैसे निकाल कर अस्पताल को फिरौती देता रहता है।
सरकार को यूरोप की तर्ज़ पर टैक्स लेने की सुध आ गई है लेकिन सरकार को यह याद नहीं आया कि ज़्यादा कर चुकाने वाले यूरोपवासियों को चिकित्सा पर एक भी पैसा ख़र्च नहीं करना पड़ता। वृद्धों के लिए हर सप्ताह डॉक्टर घर आता है और बच्चों के लिए हर महीने। दवाई से लेकर इलाज तक सब कुछ सरकार मुहैया करवाती है। 

राजनीति की रोटियाँ सेंकने के लिए सरकारें बेशक देश को विकास के पोस्टरों से पाट दें लेकिन उससे पहले कृपया सही और पूर्ण इलाज के वरदान की सुविधा मुहैया करवा दें। 

© चिराग़ जैन

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