Monday, February 28, 2011

भावना की डगर

भावना की डगर भी सहज तो नहीं
इस डगर पर स्वयं का तिरस्कार है
प्रेम जिससे किया वो परेशान है
और जिसने किया प्रेम, लाचार हैै

मन हुआ मुग्ध जिस पर, उसी शख़्स के
हर कथन को कथानक बनाता रहा
प्रियतमा के नयन की चमक को सदा
कर्म का एक मानक बनाता रहा
स्वार्थ की क्यारियों में समर्पण खिला
अब यहाँ तर्क की बात बेकार है

राह चलते हुए प्रेम का हादसा
कौन जाने, कहाँ, कब घटित हो गया
एक पावन लम्हा ज़िन्दगी से जुड़ा
तन निखरता गया, मन व्यथित हो गया
बस वही इक लम्हा, बस वही हादसा
बस उसी से सुखों का सरोकार है

© चिराग़ जैन

लड़कियाँ

मेरे पिता ने
बचपन में कभी
मुझे गुड़िया से नहीं खेलने दिया
ताकि मैं सीख सकूँ
कि लड़कियाँ
खेलने की चीज़ नहीं हैं।

✍️ चिराग़ जैन

Friday, February 11, 2011

क़ामयाबी की आस्तीनों में

मेरी शोहरत से जल गए दुश्मन
दोस्तों में बदल गए दुश्मन
क़ामयाबी की आस्तीनों में
हाय धोखे से पल गए दुश्मन

© चिराग़ जैन

Tuesday, February 8, 2011

अच्छा लगता है

इतनी सारी व्यस्तताओं के बीच
निकाल ही लेता हूँ
कुछ लम्हे
कविता लिखने के लिए।

बहुत सारी
अधलिखी कविताओं को छोड़
चुरा ही लाता हूँ कुछ पल
तुमसे बतियाने के लिए।

अक्सर पूछ बैठता हूँ ख़ुद से
क्या मिलता है मुझे
कविता लिखने से?
क्या हासिल होता है
तुमसे बतियाने से?

अच्छा लगता है
...यही ना!

© चिराग़ जैन