भावना की डगर भी सहज तो नहीं
इस डगर पर स्वयं का तिरस्कार है
प्रेम जिससे किया वो परेशान है
और जिसने किया प्रेम, लाचार हैै
मन हुआ मुग्ध जिस पर, उसी शख़्स के
हर कथन को कथानक बनाता रहा
प्रियतमा के नयन की चमक को सदा
कर्म का एक मानक बनाता रहा
स्वार्थ की क्यारियों में समर्पण खिला
अब यहाँ तर्क की बात बेकार है
राह चलते हुए प्रेम का हादसा
कौन जाने, कहाँ, कब घटित हो गया
एक पावन लम्हा ज़िन्दगी से जुड़ा
तन निखरता गया, मन व्यथित हो गया
बस वही इक लम्हा, बस वही हादसा
बस उसी से सुखों का सरोकार है
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Monday, February 28, 2011
भावना की डगर
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Chirag Jain,
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छूकर निकली है बेचैनी,
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