Wednesday, October 26, 2011

फ़र्क

इतना-सा फ़र्क है
अंधियार और उजियारे में...

...कि अंधियारा
हाथों में उठाकर
किसी को
भेंट नहीं किया जा सकता!

...कि अंधियार को
हाथों में समेटने के लिए
मुट्ठी बंद करनी होती है

और उजियारा
अंजुरी बना देता है
हथेलियों को!

...कि अंधियारा
सीमित करता है
और उजियारा
सीमाओं पर छा जाता है
असीम होकर।

© चिराग़ जैन

Friday, October 21, 2011

पटनीटाॅप : मुहब्बत के नशे में लिखी गई कविता

जम्मू आये हुए मुझे छह महीने बीत गये हैं, गर्मी की जनता एक्सप्रेस जा चुकी है और सर्दी की राजधानी एक्सप्रेस आउटर सिग्नल पर खड़ी है। इस खूबसूरत मौसम में अचानक पटनीटॉप जाने का कार्यक्रम बन गया। दोपहर करीब तीन बजे जम्मू से रवाना हुआ। जम्मू शहर पार करते ही वादियों ने सिर उठाना शुरू कर दिया। 
पहली बार कश्मीर को करीब से देखा। लगा कि ऊपरवाले ने मुहब्बत के नशे में कोई कविता लिखी है, और उसका नाम रखा है कश्मीर। निगाह की हद्द से कहीं ज़्यादा बड़ी और ख़यालात की औक़ात से कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत वादियाँ ऐसी लगती हैं जैसे किसी सनकी चित्रकार ने बेतरतीबी से हरा, नीला, लाल, काला रंग आसमान के कॅनवास पर उंडेल दिया हो। इन रंगों ने धीरे-धीरे बहते हुए कॅनवास के निचले हिस्से में कुछ ऐसा आकार ले लिया है, जो पर्वतों के होने का तिलिस्म पैदा करता है। रंग कहीं-कहीं इतना अनोखा हो गया है कि उसको कोई नाम नहीं दिया जा सकता। वृक्षों की हरितिमा कब चिट्टी सफेदी में बदल जायेगी और कहाँ ये सफेदी पीला या गहरा लाल रंग ओढ़ लेगी, इसका कोई पैमाना नहीं बनाया जा सकता। सब कुछ बेतरतीब होता हुआ भी आश्चर्यजनक रूप से लयात्मक है। कहीं किसी पाँचवीं कक्षा के बच्चे की ‘सीनरी’ जैसा नज़ारा उभरा हुआ है, जिसमें स्केल की सहायता से पहाड़ बनाकर उसके पीछे से अर्द्धगोलाकार सूरज उगता दिखाई देता हो! कहीं-कहीं किसी मँझे हुए कलाकार की मॉडर्न आर्ट का कल्पनालोक साकार होता दिखाई देता है। 
दूर किसी पहाड़ी से उठता धुआँ कहाँ बादल में मिल जाता है, अंदाजा लगाना मुश्किल है। देवदारु के वृक्षों की ऊँचाई देखकर एहसास होता है कि व्याकरणविदों ने ‘विराट’ शब्द की सृष्टि किस भाव को अभिव्यक्त करने के लिये की होगी। पहाड़ी रास्तों पर फर्राटे से दौड़ती हुई गाड़ी की खिड़की खोलकर इस भव्यता को कैमरे में कैद करने का प्रयास करता मैं अघाता ही न था। खिड़की के इस पार लग्ज़री गाड़ी की सीट पर मैं बैठा बेग़म अख़्तर की ग़ज़लें सुन रहा हूँ, और खिड़की के उस पार तीन-चार फुट की सड़क और फिर अथाह खाई। न जाने कौन सा आकर्षण था उस खूबसूरती में, कि मृत्यु का भय भी उसको अपलक निहारने की ललक को कम नहीं कर पा रहा। 
खाई के उस पार पहाड़ के बीच से फूटता झरना नीचे लरजती हुई चेनाब के पानी को स्पर्श करता है तो नदी की धार की कशिश कई गुना बढ़ जाती है। प्रकृति के इस अनुपम दृश्य को शाम के सन्नाटे में अपलक निहारता हुआ मैं ऐसा महसूस कर रहा हूँ जैसे अपने कमरे के दरवाजे की चटकनी लगाकर, लाइट ऑफ करके कोई किशोर म्यूट मोड पर कोई अंग्रेजी फिल्म देख रहा हो। 
खिड़की की झिरी से गाड़ी के भीतर आती हवा एहसास करा रही है कि हवा का ये झोंका अभी-अभी किसी बर्फीली पहाड़ी का चुंबन कर के आया है। शाम के धुंधलके में दूर किसी पहाड़ की चोटी पर जमी बर्फ, ढलते सूरज की रोशनी में ऐसे लाल हो गयी है मानो कोई गोरी-चिट्टी लड़की कनखियों से किसी लड़के को देखती हुई पकड़ी गयी हो। 
हमारी गाड़ी, पहाड़ी रास्तों पर गोल-गोल घूमती हुई ऊँचाई पर चढ़ रही है, सूरज निढाल प्रेमी-सा बर्फीली पहाड़ियों के जिस्म पर फिसलता हुआ आँखों से ओझल हो रहा है। रात, सन्नाटा और ठंड लगातार बढ़ रही है। अनुभूति के चैतन्य मन पर धीरे-धीरे भोग का नशा चढ़ रहा है और खूबसूरती नज़र से ओझल होकर अंतर्मन के उस पर्दे पर उतर आई है, जहाँ शब्द मौन हो जाते हैं।

© चिराग़ जैन

Friday, October 7, 2011

थैंक्स गाॅड

बीत गए वो दिन
जब मैं बहाने ढूंढ़ता था
तुमसे मिलने के।
अब तो
साफ़-साफ़ कह देता हूँ-
"मिलना है तुमसे।"

थैंक्स गाॅड
अब पूछती नहीं हो तुम
कि क्या काम है
वरना झूठ बोलना पड़ता था
कुछ भी
अल्लम-गल्लम-

"वो ज़रा
डिस्कस करना था
कल की मीटिंग के बारे में ।"

© चिराग़ जैन