Sunday, July 8, 2012

पुरवा

एक बादल ने सरे-शाम भिगोई पुरवा
सुब्ह फूलों से लिपट फूट के रोई पुरवा

उसने ओढ़ा हुआ होगा कोई ग़म का बादल
यूँ ही मदमस्त नहीं होती है कोई पुरवा

हाय ये शहर बहुत रूखा हुआ जाता है
अबकी गाँवों ने क्या सरसों नहीं बोई पुरवा

तेरे दामन से क्यों उठती है महक ममता की
छू के आई है क्या अम्मा की रसोई पुरवा

आज उन लोगों के आंगन में बसी है पछुआ
जिनके पुरखों ने कलेजे में संजोई पुरवा

© चिराग़ जैन

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