ये जो शादी है ना सनम हाय इसमें झंझट बड़ा है
दो रोज़ का है मज़ा फिर सबको रोना पड़ा है
यू ंतो मेरा पड़ा नहीं था कभी ग़मों से पाला
शादी की इस दुर्घटना को मैंने कितना टाला
अच्छी पत्नी की चाहत में विश्व भ्रमण कर डाला
आख़िर इक दिन इक कन्या ने पहना दी जयमाला
ऐसा उतरा मेरा ख़ुमार, फिर आज तक ना चढ़ा है
जो होता है चाट पकौड़ी, तले-भुने का आदी
मूंग दाल की खिचड़ी उसको कर जाती है बादी
बीवी की झिकझिक ने मेरी सुख की नींद उड़ा दी
सब हंसते हैं मुझ पर बेटा, और कराले शादी
मेरी खुल न पाती ज़ुबां, यहां उसका ताला जड़ा है
मैं कहता हूं पूरब को चल वो पश्चिम को दौड़े
मैं कमरे का फैन चलाउं तो वो कंबल ओढ़े
ना तो मेरे साथ चले और ना ही मुझको छोड़े
जिसने ये कुण्डली मिलाई उसके निकलें फोड़े
मेरी पत्नी से मेरा छत्तीस का आंकड़ा है
क्वारा हो तो कर सकता है रोज़ नवेली सैटिंग
शीला, मुन्नी सबसे करता रहता घंटों चैटिंग
ईलू-ईलू, इश्क़-मुहब्बत, मूवी-पिकनिक-डेटिंग
शादी होते ही बंदे की गिर जाती है रेटिंग
क्वारे थे तो वंृदावन में नाचे ता-था-थैया
चैन की बंसी, हंसी-ठिठोली, मीठी जमना मैया
गांव की गोरी, माखनचोरी, गोपी, ग्वाले, गैया
शादी होते ही पचड़ों में फँस गए कृष्ण कन्हैया
यहां न जाओ, वहां न जाओ- कोई न इतना टोके
क्वारों के जीवन में चलते मस्त हवा के झोंके
जैसे चाहे सो सकते हैं आड़े-तिरछे होके
एक ज़रा सा सुख मिलता है, इतना सब कुछ खो के
कितना भी समझा ले दुनिया, नहीं समझता कोई
जिसके पैरों पड़ी बिवाई, पीर जानता सोई
बिन बिस्तर की नींद भली या चादर नीर भिगोई
जिल्लत के जीवन से बेहतर सूनी पड़ी रसोई
इस देश का हर युवा, क्यों ख़ुदकुशी पर अड़ा है
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Sunday, December 15, 2013
शादी संकट
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Friday, December 6, 2013
मारो वरना मारे जाओगे
लड़ना हमारी पौराणिक परम्परा है। हम सृष्टि के आदि से लड़ते आ रहे हैं। रामायण में लड़े, महाभारत में लड़े, बंगाल में लड़े, पानीपत में लड़े, उत्तर-दक्खिन-पूरब-पश्चिम हर दिशा में हमने किसी न किसी कालखंड में लड़ने की संभावनाएँ तलाश ही लीं। समाज ने शांति के लिये संतों का निर्माण किया, संतों ने आपस में लड़ना शुरू कर दिया।
हमारे इस युद्ध प्रेम को देखकर तुर्कों, मंगोलों और अफ़गानों से लेकर अंग्रेजों, पुर्तगालियों और फ़्रांसिसियों तक ने अपने निठल्ले बैठे लड़ाके हमारी ओर रवाना किये। किसी से सत्रह बार हारे तो किसी को सत्रह बार हराया।
अंग्रेज़ बेचारे यहाँ व्यापार करने के उद्देश्य से आये, लेकिन यहाँ की लड़ाका प्रतिभा को देखकर अपने मूल उद्देश्य से पथभ्रष्ट होकर ऊलजलूल लड़ाइयों में फँस गये। हमने उनसे कहा कि हम लड़ लड़ कर अपने देश का नास करेंगे। ये सुनकर वो हमसे लड़ने लगे और बोले, ऐसे कैसे नास करोगे। हमारे रहते तुम नास नहीं कर सकते। …बस इसी भावना से प्रेरित होकर वो यहाँ रेललाइनें बनाने लगे, पुल बनाने लगे, शहर बसाने लगे। हमें लगा कि नास और विकास की लड़ाई में हम हारे जा रहे हैं। बस फिर क्या था, हमने ज़ोर की लड़ाई की और अंग्रेज़ों को देश से बाहर खदेड़ दिया।
उनके जाते ही हम बँटवारे के नाम पर लड़े। फिर हैदराबाद, कश्मीर, जूनागढ़, बांग्लादेश, अरुणाचल और मुम्बई ने समय समय पर लड़ाई का मुद्दआ बनकर इस देश की परम्परा की रक्षा की।
नेहरू जी ने चीन के प्रधानमंत्री को एक बार इस मिट्टी का भोजन कराया, अपने बग़ीचे की हवा खिलाई, भाई इस हद तक प्रभावित हुआ कि चीन लौटते ही कर्ज़ चुका दिया। शास्त्री जी ने ताशकंद जाकर शांति समझौता किया, हमने उनसे लड़ाई कर ली कि आपकी हिम्मत कैसे हुई शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने की। उनकी हालत से सबक लेकर इंदिरा जी ने पाकिस्तान से लड़ाई की तो हम इंदिरा जी पर राशन पानी लेकर चढ़ गये, कि लड़ने की क्या ज़रूरत थी। उनको अपनी भूल का एहसास हुआ, उन्होंने तुरंत शिमला समझौता कर लिया तो हम उनसे फिर लड़े कि ये क्या बात हुई, पहले लड़ी फिर समझौता कर लिया।
तब से राजनेताओं ने सबक ले लिया ,वज़ह मत तलाशो, बस लड़ते रहो …अब इसने कुछ कहा है …चलो लड़ते हैं, अब इसने कुछ नहीं कहा है …चलो लड़ते हैं। लड़ाई का ये अनवरत क्रम देश के अस्तित्व का आधार बन गया है।
सीमा पर पाकिस्तान ने हमारे सैनिकों से लड़ाई की। ख़बर मिलते ही सरकार और विपक्ष संसद में लड़ने लगे। चैनल आपस में लड़ने लगे कि ख़बर किसने सबसे पहले दी। एक ने कहा मैंने सबसे पहले बताया कि पाँच सैनिक मरे हैं। दूसरे ने कहा, मैंने तो पहले के मरते ही न्यूज़ फ़्लैश कर दी थी कि पाँच मरेंगे। तीसरे ने कहा, मैंने तो सुबह ही ज्योतिषि से बुलवा दिया था कि शाम तक पाँच मरेंगे। एक ने संवेदनशील होते हुए कहा, ये पाँचों जब सेना में भर्ती हो रहे थे, तभी हमने घोषणा कर दी थी कि इनका मरना तय है।
बहरहाल, ख़बर तो आ चुकी है। अब संसद इस विषय पर लड़ रही है कि आगे किस तरह लड़ना है। किसी का कहना है कि गोले-बारूद से लड़ो, किसी की सलाह है कि बातचीत में लड़ो। किसी विद्वान ने सलाह दी है कि लड़ो मत, लड़ने की चर्चा करते रहो। इससे लड़ाई का माहौल बना रहता है और लड़ाकों का हौंसला भी बना रहता है।
महापुरुषों के कथन काम आ रहे हैं- हार मत मानो, जीवन एक युद्ध है, जीवन एक रणक्षेत्र है, अपने हक़ के लिये लड़ो, सच के लिये लड़ो, लड़ते रहो, भिड़ते रहो, मरते रहो, मारते रहो… उस मसख़रे को भूल जाओ जिसने कहा था- जीवन एक रंगमंच है, इस सत्य को याद रखो कि तुम्हारा जीवन एक एक्शन फ़िल्म है… सेंसर की परवाह मत करो, लड़ो, लड़ो, मारो वरना मारे जाओगे।
© चिराग़ जैन
Thursday, December 5, 2013
चुनावी माहौल में
कुछ पुरानी बहसें देख रहा था यूट्यूब पर। चुनावी माहौल में मुँह में तिनके दबाये कई भेड़िये रंगे सियारों के समर्थन से स्वयं को महान सिद्ध करते नज़र आये। "जनता", "लोकतंत्र", "ईमानदारी", "राष्ट्रहित", "जनसेवा" और "भारत माता" जैसे शब्दों को बोलकर अपना वाक्युद्ध जीतने पर जब वे कुटिल मुस्कान मुस्काते थे तो ऐसा जान पड़ता था कि जिस्म का धंधा करने वाली कोई त्रिया, सावित्री और अनुसूया से अपनी तुलना कर पावनता के मुख पर तमाचे मार रही हो।
मैं लोगों के मुख पर मुस्कान पिरोने वाला एक अदना सा कलाकार हूँ। सामान्य स्थितियों से हास्य जुटाना मेरा काम है। शब्दजाल बुनना और वाक्पटुता से सम्मोहन करने की कला मुझे और मेरे सहकर्मियों को माँ सरस्वती ने जन्म के समय सौगात में दे दी थी। ऐसे में किसी प्रकार की लच्छेदारी में से झाँक रही रंगदारी को पहचानना मेरे लिये कठिन कार्य न था।
हर चैनल की हर बहस में अनवरत एक-दूसरे की कुत्ता-फजीहत और खिखियाती हँसी का जब बहावानुवाद किया तो ये स्वर सुनाई पड़े- "तुम सब मूर्ख हो सालो! हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाओगे। हम ऐसे ही चैनलों पर टाइम पास करके चले जायेंगे और तुम अपने-अपने टीवी के सामने बैठे ये देखकर ख़ुश होते रहना कि फ़लां ने फ़लां को बढ़िया जवाब दे दिया। ये न्यूज़ चैनल भी हमारे ही चमचे हैं।"
वे जानते हैं कि हम इस बात से कोई सरोकार नहीं रखते कि जिन सवालों के जवाब इन बहसों में तलाशने का ढोंग किया जा रहा है, वे दरअसल हमारे हैं ही नहीं। वे ये भी जानते हैं कि इन बहसों को जनता ऐसे ही सुनती है जैसे बालिका वधु देख रही हो। सास-बहू पर विज्ञापन आ गये तो एनडीटीवी लगा लिया, थोड़ा मज़ा रवीश का ले लिया, फिर वहाँ विज्ञापन आये तो डिस्कवरी लगा लिया, तेंदुए और तेंदुई का संभोग देख लिया, वहाँ से कहीं और, और वहाँ से कहीं और।
हम रिमोट पर उंगलियाँ टिकाये लगातार अपने आप को बेवक़ूफ़ बनाये जा रहे हैं। हर पार्टी के अपने स्पोक्सपर्सन हैं, ये वो लोग हैं जो बहस बहुत अच्छी कर लेते हैं। ये वो टेस्ट खिलाड़ी हैं जो हारे हुए मैच को ड्रॉ की ओर ले जाने का हुनर जानते हैं। ये वो लोग हैं जो बहुत कम, य बहुत ज़्यादा बोल कर बहस का टाइम पास करना जानते हैं। ये वो लोग हैं जिनके किसी भी बयान को "उनकी निजी सोच" बताकर पार्टी अपना पल्ला झाड़ सकती है। यदि देश सेवा का हित है तो प्रवक्ताओं की क्या ज़रूरत? (मेरी इस बात पर कुछ लोग मेरा राजनैतिक बचकानापन कहकर खिल्ली उड़ासकते हैं) लेकिन उनको मैं पहले ही बता दूँ कि संगीन राजनैतिक अपराधों के इस दौर में राजनीति इसी बात का लाभ उठा रही है कि उन्होंने जनता को आपस में लड़ना सिखा दिया है।
किसी ने कोई बयान दे दिया, किसी ने उसका खंडन कर दिया, किसी ने स्याही फेंक दी, किसी ने चप्पल फेंक दी… हम देश की राजधानी में जीवन यापन कर रहे हैं। राजनीति जहाँ श्वास लेती है उस वातावरण से हम भी सिंचित हो रहे हैं। देश भर को प्रभावित करने वाली बौद्धिक तरंगें जब उद्घटित होती हैं तो सर्वप्रथम हमसे टकराती हैं। जब इस दौर से इतिहास प्रश्न करने खड़ा होगा तो उस समय दिल्ली की आम जनता से भी यह पूछा जायेगा कि तुमने क्यों इन सपोलियों को अपने आस-पास पनपने दिया। मैं जानता हूँ कि आप कहेंगे कि हम क्या कर सकते हैं? प्रश्न ये नहीं है कि हम क्या कर सकते हैं; प्रश्न ये है कि हमारी कुछ करने की इच्छाशक्ति कहाँ चली गयी।
चुनाव हो चुका है, 4 दिसम्बर से पहले मैं ये बातें करता तो लोग इसमें किसी पार्टी की महक ढूंढने लगते। इंदिराजी ने सबसे पहले मीडीया की ताक़त को समझा और आपातकाल के दौरान सर्वप्रथम मीडिया को पंगु बना दिया गया। सरकारी मीडिया आज तक उन सरकारी इंगितों का उल्लंघन करने का साहस नहीं जुटा पाया। तब से आज तक टीवी हमें बेवक़ूफ़ बनाता जा रहा है। अब तो राजनैतिक पार्टियों ने बाक़ायदा मीडिया प्रबंधन के लिये प्रकोष्ठ बना दिये हैं। साइबर मैनेजमेंट के लिये कार्यालय खोल दिये हैं। ठीक चुनाव के दिन जबकि चुनाव प्रचार बंद हो चुका है, सुबह-सुबह आपके घर पर एक अख़बार आता है और उसका मुखप्पृष्ठ एक पार्टी विशेष का विज्ञापन कर रहा होता है।
मैं ये नहीं कहता कि इन सब बातों को पढ़कर क्रांति की मशाल उठा लो। इस दौर में क्रांति के लिये घर-बार फूँकना कदाचित् कठिन न हो, लेकिन एक काम तो हम कर ही सकते हैं कि जब इस प्रकार के ढोंगी चैनलों पर राजनेताओं को बिठाकर एक-एक घंटे के बुलेटिन बनाये जा रहे हों तो उस वक़्त अपना चैनल बदल दो। जिस टीआरपी के दम पर ये लोग हमको बेचे जा रहे हैं, उसी टीआरपी को अपनी ताक़त बनाओ। जब इस तरह की बहसों की टीआरपी घटेगी तो कम से कम इन चैनल्स से मिलने वाली फ़ुटेज के दम पर राजनीति करने वाले लोग तो कम होंगे।
किसने क्या बयान दिया, या दिल्ली में किसकी सरकार आयेगी इस पर किस नेता की क्या राय है… इस प्रकार की बहसों से अगर हमने चैनल बदलना सीख लिया तो कम से कम लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की दरारों को भरने में हम कुछ कर सकेंगे।
© चिराग़ जैन
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