लड़ना हमारी पौराणिक परम्परा है। हम सृष्टि के आदि से लड़ते आ रहे हैं। रामायण में लड़े, महाभारत में लड़े, बंगाल में लड़े, पानीपत में लड़े, उत्तर-दक्खिन-पूरब-पश्चिम हर दिशा में हमने किसी न किसी कालखंड में लड़ने की संभावनाएँ तलाश ही लीं। समाज ने शांति के लिये संतों का निर्माण किया, संतों ने आपस में लड़ना शुरू कर दिया।
हमारे इस युद्ध प्रेम को देखकर तुर्कों, मंगोलों और अफ़गानों से लेकर अंग्रेजों, पुर्तगालियों और फ़्रांसिसियों तक ने अपने निठल्ले बैठे लड़ाके हमारी ओर रवाना किये। किसी से सत्रह बार हारे तो किसी को सत्रह बार हराया।
अंग्रेज़ बेचारे यहाँ व्यापार करने के उद्देश्य से आये, लेकिन यहाँ की लड़ाका प्रतिभा को देखकर अपने मूल उद्देश्य से पथभ्रष्ट होकर ऊलजलूल लड़ाइयों में फँस गये। हमने उनसे कहा कि हम लड़ लड़ कर अपने देश का नास करेंगे। ये सुनकर वो हमसे लड़ने लगे और बोले, ऐसे कैसे नास करोगे। हमारे रहते तुम नास नहीं कर सकते। …बस इसी भावना से प्रेरित होकर वो यहाँ रेललाइनें बनाने लगे, पुल बनाने लगे, शहर बसाने लगे। हमें लगा कि नास और विकास की लड़ाई में हम हारे जा रहे हैं। बस फिर क्या था, हमने ज़ोर की लड़ाई की और अंग्रेज़ों को देश से बाहर खदेड़ दिया।
उनके जाते ही हम बँटवारे के नाम पर लड़े। फिर हैदराबाद, कश्मीर, जूनागढ़, बांग्लादेश, अरुणाचल और मुम्बई ने समय समय पर लड़ाई का मुद्दआ बनकर इस देश की परम्परा की रक्षा की।
नेहरू जी ने चीन के प्रधानमंत्री को एक बार इस मिट्टी का भोजन कराया, अपने बग़ीचे की हवा खिलाई, भाई इस हद तक प्रभावित हुआ कि चीन लौटते ही कर्ज़ चुका दिया। शास्त्री जी ने ताशकंद जाकर शांति समझौता किया, हमने उनसे लड़ाई कर ली कि आपकी हिम्मत कैसे हुई शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने की। उनकी हालत से सबक लेकर इंदिरा जी ने पाकिस्तान से लड़ाई की तो हम इंदिरा जी पर राशन पानी लेकर चढ़ गये, कि लड़ने की क्या ज़रूरत थी। उनको अपनी भूल का एहसास हुआ, उन्होंने तुरंत शिमला समझौता कर लिया तो हम उनसे फिर लड़े कि ये क्या बात हुई, पहले लड़ी फिर समझौता कर लिया।
तब से राजनेताओं ने सबक ले लिया ,वज़ह मत तलाशो, बस लड़ते रहो …अब इसने कुछ कहा है …चलो लड़ते हैं, अब इसने कुछ नहीं कहा है …चलो लड़ते हैं। लड़ाई का ये अनवरत क्रम देश के अस्तित्व का आधार बन गया है।
सीमा पर पाकिस्तान ने हमारे सैनिकों से लड़ाई की। ख़बर मिलते ही सरकार और विपक्ष संसद में लड़ने लगे। चैनल आपस में लड़ने लगे कि ख़बर किसने सबसे पहले दी। एक ने कहा मैंने सबसे पहले बताया कि पाँच सैनिक मरे हैं। दूसरे ने कहा, मैंने तो पहले के मरते ही न्यूज़ फ़्लैश कर दी थी कि पाँच मरेंगे। तीसरे ने कहा, मैंने तो सुबह ही ज्योतिषि से बुलवा दिया था कि शाम तक पाँच मरेंगे। एक ने संवेदनशील होते हुए कहा, ये पाँचों जब सेना में भर्ती हो रहे थे, तभी हमने घोषणा कर दी थी कि इनका मरना तय है।
बहरहाल, ख़बर तो आ चुकी है। अब संसद इस विषय पर लड़ रही है कि आगे किस तरह लड़ना है। किसी का कहना है कि गोले-बारूद से लड़ो, किसी की सलाह है कि बातचीत में लड़ो। किसी विद्वान ने सलाह दी है कि लड़ो मत, लड़ने की चर्चा करते रहो। इससे लड़ाई का माहौल बना रहता है और लड़ाकों का हौंसला भी बना रहता है।
महापुरुषों के कथन काम आ रहे हैं- हार मत मानो, जीवन एक युद्ध है, जीवन एक रणक्षेत्र है, अपने हक़ के लिये लड़ो, सच के लिये लड़ो, लड़ते रहो, भिड़ते रहो, मरते रहो, मारते रहो… उस मसख़रे को भूल जाओ जिसने कहा था- जीवन एक रंगमंच है, इस सत्य को याद रखो कि तुम्हारा जीवन एक एक्शन फ़िल्म है… सेंसर की परवाह मत करो, लड़ो, लड़ो, मारो वरना मारे जाओगे।
© चिराग़ जैन
No comments:
Post a Comment