सारा शहर
सज उठा है तुमसे
बरसात नहीं हुई
तो भी…
मायावी हो तुम बोगनवेलिया
कभी कतार बाँध कर खड़े हो जाते हो
तेज़ दौड़ती सड़क के दोनों ओर
कभी लिपट जाते हो किसी वृक्ष से
और कभी
ऐसे ही
बस उग आते हो
निरुद्देश्य
जहाँ-तहाँ
तुम ऊँच-नीच नहीं जानते
छोटा-बड़ा भी नहीं
भाषा-धर्म
समझते ही नहीं हो
सेक्यूलर कहीं के!
पसर जाते हो
कहीं भी
कैसे भी
कितने रँग भरे हैं तुममें
आदमी होते
तो रँगभेद के दंगे कराने के काम आते
बाग़ की दीवारों की बाड़ हो तुम
बिछे जाते हो मॉर्निंग वॉक वालों की
हाँफ़ती रफ़्तार के बीच
सूरज चिलचिलाता है
तुम्हारे रँगों के चटकने पर
तुम और गहरा उठते हो
और गहरा जाते हैं तुम्हारे रँग
और भारी हो जाते हैं तुम्हारे बूटे
बचपन में माँ ने बताया था-
"इन फूलों से काग़ज़ बनता है"
तब से लगातार देखता आया हुँ तुम्हें
काग़ज़ बनते
……सूखकर।
कोई नहीं आयेगा कभी
तुम्हारा शुक्रिया अदा करने
हम फ़ॉर ग्रांटेड लेते हैं उन्हें
जो जताना नहीं जानते।
शिक़ायत करो बोगनवेलिया
रूठना सीखो
मुस्कुराहटों के पीछे झाँकती उम्मीदें
हम अन्देखी कर देते हैं बोगनवेलिया
क्योंकि हम बोगनवेलिया नहीं हैं
हम तो इन्सान हैं
…वो भी शहरी!
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Monday, June 30, 2014
Friday, June 20, 2014
विरोध
देर तक खड़ा
रिरियाता रहा बादल
लेकिन नीम
रूठा ही रहा
न तो पाथेय दिया
निंबोरी का
न ही आंगन सँवारा
नीमपुष्प से।
लेट आए हो ना बदरा
अब भुगतो
भूख सहोगे
तो समझोगे
किसी की प्यास!
© चिराग़ जैन
रिरियाता रहा बादल
लेकिन नीम
रूठा ही रहा
न तो पाथेय दिया
निंबोरी का
न ही आंगन सँवारा
नीमपुष्प से।
लेट आए हो ना बदरा
अब भुगतो
भूख सहोगे
तो समझोगे
किसी की प्यास!
© चिराग़ जैन
Saturday, June 14, 2014
बरसात की एक सुबह
लाजवाब है आज की सुबह
रात भर
धोया गया है सारा शहर
रात भर
धोया गया है सारा शहर
हर पेड़ को
नहलाया गया है रात भर
नहलाया गया है रात भर
उत्सव का
नज़ारा कर रहा हूँ
अपनी बालकॅनी से।
दारू पी है शायद
नीम और पीपल ने।
अभी तक झूम रहे हैं
दोनों याड़ी।
सहजने की फलियाँ
बिछ गई हैं
...मुजरा करने के बाद।
मिट्टी की ख़ुश्बू वाला फ्रेशनर
अभी भी महक रहा है
परिंदे घुस आए हैं
मुफ्त की पार्टी उड़ाने।
एक ख़ूबसूरत-सा अहसास
बौराए जाता है मुझे भी!
© चिराग़ जैन
नज़ारा कर रहा हूँ
अपनी बालकॅनी से।
दारू पी है शायद
नीम और पीपल ने।
अभी तक झूम रहे हैं
दोनों याड़ी।
सहजने की फलियाँ
बिछ गई हैं
...मुजरा करने के बाद।
मिट्टी की ख़ुश्बू वाला फ्रेशनर
अभी भी महक रहा है
परिंदे घुस आए हैं
मुफ्त की पार्टी उड़ाने।
एक ख़ूबसूरत-सा अहसास
बौराए जाता है मुझे भी!
© चिराग़ जैन
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