Thursday, July 31, 2014

पुनरागमन

आज मुद्दत बाद
मेरा गीत मेरे द्वार आया

बात में उसकी कहीं कोई परायापन नहीं था
और मेरी याद से भी थी नदारद हर शिक़ायत
ठीक पहले सी सहजता थी हमारे बीच लेकिन
आँख की इक कोर पर थी सहज होने की क़वायद
आज ख़ुद से मैं उसे ख़ुद को छिपाते देख पाया

आज से पहले उसे छूना हुआ सौ बार लेकिन
आज उसका ग़ैर हो जाना रड़क कर चुभ रहा था
बस रहा था आज भी दिल में उसी के मैं मगर अब
इस बसावट में किसी का डर धड़क कर चुभ रहा था
आज उसका खिलखिलाना एक पल को कँपकँपाया

आज पहली बार था संवाद सपनों से अछूता
आज पहली बार मिलने का बहाना ढूंढना था
आज पहली बार बातें ख़त्म होती दीखती थीं
आज पहली बार बातों में ज़माना ढूंढना था
आज का अख़बार पहली बार अपने बीच पाया

© चिराग़ जैन

Monday, July 28, 2014

चाँद को नहीं पता

कहीं भी तो अंतर नहीं है यार! चांद को नहीं पता कि उसे देखकर कोई रोज़ा, ईद की ख़ुशी में तब्दील होगा या कोई उपवास, महाशिवरात्रि के उल्लास का रूप धरेगा। गाय को भी नहीं पता कि उसके थनों में जो धार उतरी है, वो सेवइयों की मिठास में घुलेगी या शिवलिंग पर ढलक कर पावन होवेगी। यहाँ तक कि सड़क किनारे पट्टा बिछाकर बैठे मेहंदीवाले को भी नहीं पता कि वह अपने सामने पसरा जो हाथ, मेहंदी के बूटों से सिंगार रहा है, वो किसी दुआ को महकायेगा या किसी अर्पण को।
देहरी ने कब पूछा किसी पायल से कि वो अपनी रुनझुन ईद के मेले में बाँटने जायेगी या हरियाली तीज के झूलों में! फिर हमें किसने बता दिया ये सब? उत्सवों की चौपाल में नफ़रतों की सुगबुगाहट फैलानेवाली हवा कौन दिसा से आई रे बटोही। सेवइयाँ खाओ बाबू, अम्मी ने भेजी हैं। और ये भी कहा है, बेर लेता अइयो लौटती बेर, पण्डित जी से।


© चिराग़ जैन

Saturday, July 19, 2014

मन की कविता

कविता मेरे अस्तित्व का आधार है। यदि मुझसे मेरी कविताओं को श्रेणीबद्ध करने को कहा जाए तो मैं अपनी तमाम रचनाओं को दो वर्गों में रखूंगा- एक ‘मंच की कविता’ और दूसरी ‘मन की कविता’। ‘मंच की कविता’ रोज़ रात को कवि-सम्मेलनों में तालियाँ और वाह-वाही लूटती फिरती है। लेकिन ‘मन की कविता’ ऐसा नहीं कर पाती। वह किंचित संकोची है, मेरी तरह। वह मेरे नितान्त एकाकी क्षणों में मेरे चारों ओर लास्य करके संतोष प्राप्त कर लेती है।

यात्राओं से थका-हारा जब बिस्तरानुगामी होता हूँ तो हौले से आकर मेरे सिरहाने बैठ जाती है, कभी नयन कोर पर आ ठहरती है, तो कभी अधरों पर एक मुस्कान का चुंबन जड़ जाती है। इसे शोर-शराबा, हो-हल्ला और भीड़-भाड़ कतई पसंद नहीं। यह तो बेहद सरल शब्दों का चोगा पहने मुहल्ले की उस अनपढ़ गृहिणी सी मेरे साथ चलती है, जिसकी उपस्थिति को तो मैं अनदेखा कर सकता हूँ लेकिन उसकी अनुपस्थिति की ख़लिश को नहीं।

इन कविताओं ने कभी मुझसे झगड़ा नहीं किया, कभी रूठी भी नहीं। लेकिन पिछले कुछ दिनों से एक ख़्वाहिश करने लगी थीं। एक ज़िद्द सी कर रही थीं। मैं इस ज़िद्द से परेशान न हुआ। बल्कि मुझे ऐसा लगा जैसे कोई छोटी सी बच्ची मेरे वक़्त के बटुए में से चार-आठ आने की मांग कर रही हो। तेज़ भागती ज़िन्दगी के बीच भी मुझे यह मांग नाजायज़ न लगी।

बस, यकायक धारणा की कि नया संग्रह प्रकाशित होना है। बेतरतीब सफ़हों पर बिखरा ख़ज़ाना देखते ही देखते किताब की शक़्ल में ढल गया। पुस्तक प्रकाशन के निश्चय से अब तक की यात्रा स्वतः एक कविता में उतर आई है-

आजकल
अपनी ही लिखी हुई
कविताओं से बतियाता हूँ।
सहेजता हूँ उनको
एक-एक कर।

…कई दिन से ज़िद्द किये बैठी थीं
कहती थीं-
"हमें जिल्द में बांधों।"

आख़िर माननी ही पड़ी
उनकी बात।
अब इस पर झगड़ा है
कि पहले कौन?

लड़ाकी हो गई हैं
सारी की सारी।

सोने देती हैं
न बैठने।
…लगाए रखती हैं
हिल्ले से।

सचमुच!
बेटी ब्याहने जैसा काम है
किताब बनाना।

© चिराग़ जैन

# "मन तो गोमुख है" संग्रह की भूमिका 

सनसनीबाज़ पत्रकार

छाप-छूप कर अख़बार
एक सनसनीबाज़ पत्रकार
रात तीन बजे घर आया
तकिये में मुँह छुपाया
और चादार तान के सो गया,
इतनी देर में उसका अख़बार
जनता के हवाले हो गया।

इधर पत्रकार चैन से
खर्राटे भर रहा था,
उधर उसका अख़बार
दुनिया की नाक में दम कर रहा था।

दोपहर की पावन बेला में
जब बिस्तर ने पत्रकार से निज़ात पाई,
तब तक पत्रकार को भूख लग आई।
पत्नी थाली लेकर आई,
तो पत्रकार ने उस पर अपनी खोजी दृष्टि घुमाई।
सबसे पहले उसने माथे से लगाई दाल,
और बड़बड़ाते हुए बोला- "धन्यवाद तरुण तेजपाल"।
फिर रोटी को करते हुए प्रणाम,
नमस्कार की मुद्रा में बोला- "जय हो बाबा आसाराम"।
देख कर थाली में वेज पुलाव,
आकाश की ओर सिर उठाकर बोला-
"धन्य हैं इस देश का साम्प्रदायिक तनाव"।

किसी ने कोई विवादास्पाद बात कही,
इसलिये थाली में शामिल हुआ दही।
फिर से बढ़ने लगा है कोई चुनावी विवाद,
तभी थाली को नसीब हुई है सलाद।
अब बस पाकिस्तान जी थोड़ी सी हैल्प कर दें,
तो बरसों से प्यासा गिलास
व्हिस्की की ख़ुश्बू से भर दें।

कुल मिलाकर
थाली में देश के सारे मुद्दे शामिल थे,
कुछ त्रासदी थे
कुछ अत्याचारी थे
और कुछ क़ातिल थे।
लेकिन पत्रकार
देखते ही देखते
सब कुछ पचा गया,
और शाम होते होते
अगले दिन की थाली सजाने
अख़बार के दफ़्तर में आ गया।

-चिराग़ जैन

Thursday, July 17, 2014

न्यूज़ चैनल्स की रिपोर्ट्स

न्यूज़ चैनल्स की रिपोर्ट्स देख कर लग रहा है कि मोदी जी ब्रिक्स राष्ट्रों से यही पूछने गए थे की दिल्ली में भाजपा की सरकार कैसे बनाई जाए!

© चिराग़ जैन

Wednesday, July 16, 2014

शर्मिंदगी

"ओहो!
कितना कूड़ा हो गया।
आग लगे इस मौसम में।
मार आंधी-तूफ़ान...
सारे आंगन में कीचड़ हो गई।

देखियो,
उधर सारी अंबियाँ झड़ गईं।
कैसी हरी डाल टूट गई नीम की!

...इस रामजी को भी चैन ना है!
कै तो पसीना चुआवै
कै ऐसा तूफान मचावै।"

अपने आपसे बतियाती हुई
पानी सूँत रही है नानी।
और
हौले से सूरज चमका कर
हैल्प कर रहे हैं 
शर्मिंदा रामजी!

© चिराग़ जैन

Sunday, July 13, 2014

ब्लॉगर होगा पहला कवि

युग बीत गये हैं अब
प्रकृति, बरखा
या दर्द
सहायक सामग्री
नहीं है अब
कविता के लिये!
…अब नहीं जन्मती कविता
वियोग या संयोग से!

आजकल
फ़ेसबुकिये हो गये हैं
वाल्मीकि और तुलसीदास!

"ब्लॉगर होगा पहला कवि
पोस्ट से उपजा होगा गान!"

© चिराग़ जैन

ऑडियन्स कैप्चर की शतरंज

बुश बैरॉन का एक टीवी हमारे पास भी था। घर का सबसे स्पेशल कोना सुशोभित होता था उससे। क़माल ये था कि संज्ञा के तौर पर टीवी ने पूरा कमरा हड़प लिया था। टीवीवाला कमरा नाम था उस चुम्बकीय कक्ष का। कुछ अपरिहार्य कर्मों के इतर, लगभग सबके सभी नित्य-अनित्य कर्म उस कमरे में सम्पन्न होते थे।
एंटीने की तकनीकी कमज़ोरी ने हमें बरखा और तेज़ हवा से घृणा करना सिखा दिया था। किसी की पतंग जब एरियल के जंजाल में फँस जाती थी, तो ऐसा लगता था कि परमात्मा ने लोगों का सुख छीनने के उद्देश्य से इस पतंगासुर की रचना की होगी। जी करता था कि पतंग उड़ानेवालों को उन्हीं की सद्दी से फाँसी लगा दें।
‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ सुनने के आदी हो चुके लोग, इसे सुनने के लिये लड़ने लगे। बेशक़ उन्हें पंडित जी के रागों, बहुभाषीय कलाकृति और चेहरे में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन तनुजा, अमिताभ बच्चन और रेखा जैसी सूरतों को बार-बार देखना किसी मंत्रजाप से कम न था। ब्योमकेश बख्शी, मशाल, हम लोग, बुनियाद, जुनून, इम्तिहान, कैप्टन व्योम, चन्द्रकांता और न जाने कितने स्पीड ब्रेकर उग आये थे मुहल्ले की चौपाली संस्कृति तक पहुँचाने वाली सड़क पर। फिर रामानंद सागर ने ऐसा ब्रह्मास्त्र फेंका कि बस मुहल्ला कल्चर पर परमाणु आ गिरा।
स्मिता पाटिल और सलमा सुल्तान के भावविहीन चेहरों से समाचार सुनना सबको भाने लगा। जब कभी एक गंजा-सा आदमी बुलेटिन पढ़ने आ जाता था, तो देखनेवालों के चेहरे पर ऐसे भाव होते थे, जैसे बढ़िया सलाद की आखि़री किश्त में कड़वा खीरा आ गया हो। कृषि दर्शन आये या फ़ीचर फ़िल्म, टेलिविज़न अपने समभाव से चालू रहता।
जो माँ पहले खेलने-कूदने पर धुन देती थी, अब न खेलने पर धुनने लगी। बच्चों का सारा दिन टीवी के आगे बैठे रहना उसे अखरता था। लेकिन टीवी बच्चों का हमजोली बन गया था। माँ चार गाली बच्चों को देती तो दो टीवी को भी पड़ती।
धीरे-धीरे टीवी ने हमें ग़ुलाम बना लिया। रंगोली की हेमामालिनी, सुरभि की रेणुका शहाणे, शक्तिमान के मुकेश खन्ना और फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन की तबस्सुम ने जबसे अपने आपको हमारा ‘दोस्त’ कहना शुरू किया, तब से हमने लंगोटिया यारों का रजिस्ट्रेशन करवाना बंद कर दिया।
तहक़ीक़ात की बीयर से शुरू हुआ शौक़ आज संबंधों की जासूसी के नशे तक पहुँच चुका है। मनोहर श्याम जोशी के ‘हम लोग’ आज परिवार के नाम पर घिनौने और भद्दे संबंधों का नंगा नाच देखकर ख़ुश हैं। स्टोन बॉय की सहृदयता का सिलसिला अब शिनचैन की ढिठाई तक आ पहुँचा है। सफ़र अभी ख़त्म नहीं हुआ है। मुहल्लों को दूरदर्शन खा गया, और दूरदर्शन को केबल, केबल को भी इंटरनेट का ख़ौफ़ हो गया। शेर को सवाशेर मिलता ही है। पर एक बात साफ़ है कि ऑडियन्स कैप्चर की इस शतरंज में मोहरे हैं - ‘हम लोग’!

© चिराग़ जैन

विचार और मूर्त

दिल की ज़मीन पर जो इक बीज पड़ गया है
हर हाल में फलेगा, ये सृष्टि का नियम है
कोई विचार मन में, आकर ठहर गया तो
जन्मों-जनम पलेगा, ये सृष्टि का नियम है

सुख-दुख के चंद पल हैं, जीवन जिसे हैं कहते
युग-युग के चक्करों में, बिन बात फँसते रहते
अज्ञानवश जो अपना गुलशन उजड़ गया है
वो ध्यान से खिलेगा, ये सृष्टि का नियम है

अन्तस् में हो गया जब, विश्वास का उजाला
अमृत बना दिया था, मीरा ने विष का प्याला
वरदान में न रखना, संकोच और शंका
विश्वास से मिलेगा, ये सृष्टि का नियम है

ये स्वर्ग-नर्क की सब, चर्चा उधार की है
जिस पर जहाँ टिका है, ताक़त विचार की है
मस्तिष्क में उपज कर, जो सोच में पला है
सच में वही घटेगा, ये सृष्टि का नियम है

© चिराग़ जैन

Saturday, July 12, 2014

गुरू पूर्णिमा

एक महान आदमी में सीखने की प्रवृत्ति इतनी अधिक थी कि उसने गधे को भी गुरू बना लिया। लेकिन आजकल लोग गुरु को गधा बनाने पर तुले रहते हैं। इसका कारण ये नहीं है कि नयी पीढ़ी उद्दंड है बल्कि सुभद्रा मैया जब पिताजी की डींगों का इम्प्रेशन अभिमन्यु पर झाड़ रही थी तो अभिमन्यु माँ के पेट पर पेट के बल लेटा था।
गुरु पूर्णिमा का पर्व बढ़िया पर्व है। लेकिन गुरू का आकार इतना विशाल है कि पूर्णिमा को गुरु अपने पीछे छिपा लेता है। चेले पूर्णिमा को देख ही नहीं पाते। गुरुर्ब्रह्मा...... टाइप के श्लोक या गुरु गोविन्द दोउ खड़े..... टाइप के दोहे दोहराने में ही उनकी अमावस हो जाती है औरपूर्णिमा गुरू के आभामंडल में समा जाती है। 

© चिराग़ जैन

Friday, July 11, 2014

बदरा

जाने ये कैसा बदरा है
बदरा के भीतर मदिरा है
जब छलकी तो सब झूम उठे
जैसे मृदंग से धूम उठे
पीपल ने छेड़ी तान अलग
बूंदों ने गाया गान अलग
पुरवा ने ऐसा रास रचा
बिजुरी ने जी भर नाच नचा
पंछी कलरव करते डोले
कच्चे स्वप्नों ने पर खोले
बचपन बौराया तब भू पर 
हाथों से बूंदें छू-छू कर 
ऐसा मेघों में रोर हुआ 
इक उत्सव-सा हर ओर हुआ 
धुल गई धरा, खुल गई पवन 
पावन पावन है अंतर्मन 
श्वासों में शीतलता आई 
नयनों में चंचलता छाई 
सब कष्ट ग्रीष्म के भूल गए 
बागों में झूले झूल गए 
जिस क्षण जल से संलिप्त हुई 
वसुधा की तृष्णा तृप्त हुई 
ऐसा मौसम का ज्वर आया 
प्यासों में पानी भर आया 
जाने ऐसा क्या कृत्य करा 
सब कुछ लगता है हरा-हरा

© चिराग़ जैन

Thursday, July 10, 2014

कमर तोड़ महँगाई

सुना है बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री की कमर में दर्द हुआ।
पहली बार किसी वित्त मंत्री ने कमर तोड़ महँगाई को इतनी शिद्दत से महसूस किया है।

© चिराग़ जैन

Sunday, July 6, 2014

मीडिया की आवाज़

लाउड स्पीकर ने धर्मगुरु से पूछा- मैं तो साईं भी नहीं हूँ फिर मुझ पर विवाद क्यों?
धर्मगुरु बोले - क्योंकि तूने हमसे ऊंची आवाज़ में बात की।
लाउड स्पीकर झुक कर बोला - लेकिन मैंने तो आपकी ही आवाज़ बुलंद की हुजूर।
धर्मगुरु मुस्कुराए - ये समझ ले अब तू बेकार हो गया था। मीडिया की आवाज़ तुझसे ज़्यादा बुलंद है और मीडिया की मुंडेर तक पहुँचने के लिए तुझ पर खडा होना ज़रूरी था।

© चिराग़ जैन

Wednesday, July 2, 2014

ठौर ना पाया

कौन कहता है नदी सागर को प्यारी हो गयी
ठौर ना पाया मिठासों में तो खारी हो गयी

टूटकर बिखरी कहीं जब भी, तभी झरना बना
पत्थरों ने गोद में लेकर कहा- ‘मरना मना’
सिर झुकाकर बढ़ चली पर चाल भारी हो गयी
ठौर ना पाया मिठासों में तो खारी हो गयी

घाट तक पहुँची, उलझकर रह गयी संसार में
गाँव-गलियों, मरघटों, नहरों, नलों, घर-बार में
उफ़, बिना मतलब ही खेतों की उधारी हो गयी
ठौर ना पाया मिठासों में तो खारी हो गयी

बांध ने बंदी बनाया, शहर ने शोषण किया
कर्मकाण्डों ने लहू लेकर भरण-पोषण किया
कारख़ानों ने छुआ, घातक बिमारी हो गयी
ठौर ना पाया मिठासों में तो खारी हो गयी

© चिराग़ जैन

Tuesday, July 1, 2014

साईं बाबा

पहले शंकराचार्य जी ने बताया की साईं बाबा हिन्दू नहीं थे
फिर उलेमा साहब ने बताया कि साईं बाबा मुसलमान भी नहीं थे
......तो क्या समझा जाए? क्या साईं बाबा इन्सान थे!

© चिराग़ जैन