Friday, July 11, 2014

बदरा

जाने ये कैसा बदरा है
बदरा के भीतर मदिरा है
जब छलकी तो सब झूम उठे
जैसे मृदंग से धूम उठे
पीपल ने छेड़ी तान अलग
बूंदों ने गाया गान अलग
पुरवा ने ऐसा रास रचा
बिजुरी ने जी भर नाच नचा
पंछी कलरव करते डोले
कच्चे स्वप्नों ने पर खोले
बचपन बौराया तब भू पर 
हाथों से बूंदें छू-छू कर 
ऐसा मेघों में रोर हुआ 
इक उत्सव-सा हर ओर हुआ 
धुल गई धरा, खुल गई पवन 
पावन पावन है अंतर्मन 
श्वासों में शीतलता आई 
नयनों में चंचलता छाई 
सब कष्ट ग्रीष्म के भूल गए 
बागों में झूले झूल गए 
जिस क्षण जल से संलिप्त हुई 
वसुधा की तृष्णा तृप्त हुई 
ऐसा मौसम का ज्वर आया 
प्यासों में पानी भर आया 
जाने ऐसा क्या कृत्य करा 
सब कुछ लगता है हरा-हरा

© चिराग़ जैन

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