फेसबुक पर छा गए लिक्खाड़
लिखते हैं दनादन
हर किसी मुद्दे पे इनकी राय है तैयार
बहुत बेख़ौफ़ लिखते हैं
इन्हें लिखे हुए शब्दों की ताक़त का
कोई आभास तो हो
इन्हें मालूम हो
इनकी बिना सोची हुई हर बात
पल भर में
किसी की साख पर बट्टा लगाती है
हवस-सी हो गई है
सबसे पहले
अपनी एफबी वॉल पर
सबसे ज़ियादा लाइक पाने की
इन्हें मालूम है सब कुछ
विदेशी ताक़तों ने
किस तरह बाज़ार को शैदा किया है
और ये भी इल्म है
कौन किसने कब कहाँ
किस गाँव में पैदा किया है
कौन कब मर जाएगा
कैसे मरेगा
कौन से ट्रक में लदेंगी गाय
कब हिन्दू डरेगा
कोई तो हो, जो इन्हें ये सब
बयां करने से पहले
दो घड़ी को ही
मगर कुछ सोच लेने की
हिदायत दे
ये नहीं कर पाए तो
ये काम कर दे
जब नए युग के ये सारे वर्चुअल भगवान
अपनी वॉल पर
ज़िंदा यूसुफ़ खानों के मरने की
नई तहरीर लिख दें
तो उसे पढ़ कर
युसुफ जी
ख़ुद-ब-ख़ुद उस बात को
सच में बदल डालें
ये नहीं समझेंगे
जब ये लोग
लोहू से रची ग़ज़लेँ चुराकर
पोस्ट करते हैं
तो उन ग़ज़लों पे मिलने वाली हर तारीफ़
उस शाइर के हक़ को
छीन लेती हैं
किसी कविता को
उसके रचयिता के नाम से
महरुम करना
किसी बच्चे को बिन कारण
यतीमी के जहन्नुम में
पटक देने के जैसा है।
इन्हें कोई ज़रा समझाए
चाकू सिर्फ़ इक औजार है
बस सृजन जिसका काम है
इसे हथियार में तब्दील कर देना
गुनाह से भी कहीं ज़्यादा बुरा है
बड़ा इलज़ाम है।
-चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Friday, April 24, 2015
Monday, April 20, 2015
ज़िंदगी
सादगी के आँगन में
चहकी है, खेली है
हाव-भाव बदले तो
ज़िंदगी अकेली है
ओढ़ी हुई बातों से
कष्ट में धकेली है
सहजता सफलता की
पक्की सहेली है
एक तरफ़ जकड़न है
क़ातिल शिकंजा है
नाख़ूनी रंजिश है
नफ़रत है, पंजा है
उसी के ज़रा पीछे
प्यार की हवेली है
सहजता से खुली हुई
गुदगुदी हथेली है
बचपन से सीखा है
उत्तर उन्हीं में है
जिन शब्दों से मिलकर
बनती पहेली है
© चिराग़ जैन
चहकी है, खेली है
हाव-भाव बदले तो
ज़िंदगी अकेली है
ओढ़ी हुई बातों से
कष्ट में धकेली है
सहजता सफलता की
पक्की सहेली है
एक तरफ़ जकड़न है
क़ातिल शिकंजा है
नाख़ूनी रंजिश है
नफ़रत है, पंजा है
उसी के ज़रा पीछे
प्यार की हवेली है
सहजता से खुली हुई
गुदगुदी हथेली है
बचपन से सीखा है
उत्तर उन्हीं में है
जिन शब्दों से मिलकर
बनती पहेली है
© चिराग़ जैन
Monday, April 13, 2015
सवेरों का निरादर
यूँ तो हम युग के शिलालेखों पे अंकित हो गए
जो जिए हमने वो सारे दिन अलंकृत हो गए
किन्तु जब युग की टहनियों पर नई कोंपल उगी
तो हरे पत्ते हवाओं से सशंकित हो गए
जब हमारी श्वास में सरगम सजी आनन्द था
हम उठे, जग ने गई रस्में तजीं आनन्द था
जब हमारी गुनगुनाहट राग बनकर पुज गई
थपकियों से बन गई तालें, अजी आनन्द था
किन्तु जब युग में नई बन्सी बजी तो क्या हुआ
क्यों हमारे पीर वाले तार झंकृत हो गए
कुल मिलाकर ज़िन्दगी है चार पहरों की तरह
हर किसी का वक़्त चढ़ता है दुपहरों की तरह
सांझ को दुल्हन सी सजती है सभी की ज़िन्दगी
और फिर सूरज ढलक जाता है चेहरों की तरह
ब्रह्म की संज्ञा भी दे सकते थे अंतिम प्रहर को
क्यों सवेरों का निरादर कर कलंकित हो गए
© चिराग़ जैन
जो जिए हमने वो सारे दिन अलंकृत हो गए
किन्तु जब युग की टहनियों पर नई कोंपल उगी
तो हरे पत्ते हवाओं से सशंकित हो गए
जब हमारी श्वास में सरगम सजी आनन्द था
हम उठे, जग ने गई रस्में तजीं आनन्द था
जब हमारी गुनगुनाहट राग बनकर पुज गई
थपकियों से बन गई तालें, अजी आनन्द था
किन्तु जब युग में नई बन्सी बजी तो क्या हुआ
क्यों हमारे पीर वाले तार झंकृत हो गए
कुल मिलाकर ज़िन्दगी है चार पहरों की तरह
हर किसी का वक़्त चढ़ता है दुपहरों की तरह
सांझ को दुल्हन सी सजती है सभी की ज़िन्दगी
और फिर सूरज ढलक जाता है चेहरों की तरह
ब्रह्म की संज्ञा भी दे सकते थे अंतिम प्रहर को
क्यों सवेरों का निरादर कर कलंकित हो गए
© चिराग़ जैन
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