यूँ तो हम युग के शिलालेखों पे अंकित हो गए
जो जिए हमने वो सारे दिन अलंकृत हो गए
किन्तु जब युग की टहनियों पर नई कोंपल उगी
तो हरे पत्ते हवाओं से सशंकित हो गए
जब हमारी श्वास में सरगम सजी आनन्द था
हम उठे, जग ने गई रस्में तजीं आनन्द था
जब हमारी गुनगुनाहट राग बनकर पुज गई
थपकियों से बन गई तालें, अजी आनन्द था
किन्तु जब युग में नई बन्सी बजी तो क्या हुआ
क्यों हमारे पीर वाले तार झंकृत हो गए
कुल मिलाकर ज़िन्दगी है चार पहरों की तरह
हर किसी का वक़्त चढ़ता है दुपहरों की तरह
सांझ को दुल्हन सी सजती है सभी की ज़िन्दगी
और फिर सूरज ढलक जाता है चेहरों की तरह
ब्रह्म की संज्ञा भी दे सकते थे अंतिम प्रहर को
क्यों सवेरों का निरादर कर कलंकित हो गए
© चिराग़ जैन
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