Thursday, July 30, 2015

क़लाम साहब नहीं बिके

मन दुखी है
मेरा ही नहीं… सबका
आज सिर्फ़ क़लाम साहब ही 
सुपुर्द-ए-ख़ाक़ नहीं हुए
उनके साथ ही दफ़्न हो गई
ये उम्मीद भी
कि इस देश का मीडिया
कभी ज़िम्मेदार होगा
इस देश का मीडिया
कभी संवेदनशील होगा
इस देश का मीडिया
कभी इस देश का होगा।

मीडिया ने बोला नहीं
पर साफ़-साफ़ बता दिया
याक़ूब ज़्यादा बिकाऊ था…
अच्छा ही हुआ
हमारे क़लाम साहब
नहीं बिके
आख़िरी दिन भी।

© चिराग़ जैन

Monday, July 27, 2015

कलाम साहब नहीं रहे!

आह!
कलाम साहब नहीं रहे!
जीवन की अंतिम श्वास तक
सक्रिय और सकारात्मक रहकर
आप नहीं रहे!!
देह ही हारी होगी
मन तो जीवित ही था आपका
चिकित्सकों ने काश मन टटोला होता
तो कह न पाते कि "ही इज़ नो मोर…"
सुना है "लिवेबल प्लेनेट अर्थ" पर बोल रहे थे आप
महसूस हुआ होगा इस दौरान
कि ये प्लेनेट अब लिवेबल रहा नहीं।
आपने कभी जुड़ने ही नहीं दिया अपने साथ
कोई वाद, कोई धर्म, कोई विशेषण।
आप मानव थे
सिर्फ़ मानव…
भरपूर मानव।
आपने कभी कुछ नहीं लिया इस देश से
आपने कभी कुछ नहीं मांगा इस देश से
यहाँ तक कि
अंतिम समय इतना भी समय नहीं दिया
कि कोई कुछ दे सके आपको।
आपने कभी प्रवचन नहीं दिया
आपका हर आचरण एक संदेश देता था।
एक लम्बे समय बाद बच्चों को कोई ऐसा मिला था
जिसके जैसा बनने के सपने देखे गये।
बच्चों जैसी जो निश्छल खिलखिलाहट आपकी सखी थी
वह आपके अन्तर्मन की जीवंत एक्स-रे थी।
आप राष्ट्रपति ही नहीं थे कलाम साहब
आप तो हृदयाधिपति थे इस देश के
आप धड़कते रहोगे यौवन के सीने में
आप खिलते रहोगे बच्चों की मुस्कान में
आप पुलकते रहोगे उत्सवों में
आप दौड़ते रहोगे धमनियों में
बन्द गले का सूट पहने
जब कोई लम्बे सफ़ेद बालों वाला
खिलखिलायेगा हाथ हिलाकर
तब सब कहेंगे
ये तो कलाम साहब जैसा है यार!

© चिराग़ जैन

Sunday, July 26, 2015

सलमान ख़ान का ट्वीट

इस देश के सभी लोग चाहते हैं कि हम लोग अपने त्यौहार मिल जुलकर मनाएं। अच्छी बात है। मनाने भी चाहियें। लेकिन जब वे ही सब लोग किसी चुनौती से जूझते हैं तो हम साथ खड़े क्यों नहीं दिखाई देते। जब हमारा लचर न्यायतंत्र दशकों की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद किसी कठोर निर्णय पर पहुँचता है तो हम हिन्दू-मुस्लिम हो जाते हैं। जब आप फ़िल्म बनाते हैं तो भेदभाव भूल कर उसमें क़ौमी एकता का मसाला फिट करके हिंदुओं से भी कमाते हैं और मुस्लिमों से भी। लेकिन आधी रात को दारू पी कर जब आप ट्विटर लॉगिन करते हैं तो आपको याद आ जाता है कि इस देश में आपके रहते एक मुस्लिम को फाँसी की सज़ा कैसे सुनाई जा सकती है।

आप नवाज़ शरीफ से दरख्वास्त करते हैं कि प्लीज़ टाइगर को हमें दे दो। हमारा देश बहुत ठाली है। मेमन की फांसी के बाद हमारे पास बावेला उठाने को कोई मुद्दा नहीं बचेगा। हमारे धार्मिक संगठन निकम्मे हो जाएंगे। हमारी अदालतें खंडहर बन जाएंगी। हमारे बुद्धिजीवी बेरोज़गार हो जाएंगे। हमारा देश आप ही के रहमो करम पर है। इसलिए "प्लीज़" टाइगर हमें दे दीजिये। 

....शर्म आनी चाहिए। जिस पाकिस्तान के लोगों की इमेज डैमेज का काम आपने अपनी महान फ़िल्म "बजरंगी भाईजान" से किया है उसी की दी हुई बोटियाँ आपके ट्वीट्स में लार टपकाती नज़र आ रही हैं। हमने कभी आपको पराया नहीं समझा। जब अदालत ने आपको बेल दी तो इस देश के हज़ारों लोग लपक कर आपको बधाई देने पहुंचे थे। इन्हीं लोगों को मौत के घाट उतारने वाले (चाहे वो हिन्दू हों या मुस्लिम) को आप सपोर्ट कर रहे हैं।

आपकी उँगलियाँ नहीं कांपी। आपके ज़मीर ने कोई करवट न ली। आपके दिल से कोई आवाज़ न आई। जिन लोगों ने आपको सर-माथे पर बैठाया उन लोगों के हत्यारों के समर्थन में खड़े होने से आपकी टांगों ने इनकार न किया।

आपकी फिल्मों में कोई स्टोरी हो या न हो; आपकी हरकतों में कोई अभिनय हो या न हो; आपके नृत्य में कोई लरजिश हो या न हो.... केवल आपकी सूरत देखने भर को ये जनता अपनी जेब से सौ-सौ करोड़ रूपये लुटा देती है। और कितनी दौलत चाहिए आपकी हवस को।

सॉरी टू से मिस्टर खान, यू आर सच ए थैंकलेस पर्सन। 

© चिराग़ जैन

Tuesday, July 21, 2015

सांस्कृतिक ह्रास

संस्कार अवरोही हो चुके हैं। मेरे पिता का संहनन मुझमें नहीं है। और मैं इस बात के लिए भी आश्वस्त हूँ कि मेरी संतति मेरे जीवन सिद्धान्तों को पुराना कहकर नकार देगी। पीढ़ियों का यह अनवरत संघर्ष हमें बैलगाड़ियों से अंतरिक्ष यान तक भी लाया है और नाड़ी विज्ञान से पैथोलॉजी लैब तक भी।
संस्कार की पाठशालाएँ बोलती हैं, कि चूल्हे की रोटी में जो स्वाद था वो फाइव स्टार के कैंडल लाइट डिनर में नहीं है लेकिन विकास की ऊँची मचान पर बने एयर कंडिशनड इंस्टिट्यूट्स बोलते हैं कि जब रेडीमेड से काम चल सकता है तो सिलाई मशीन में माँ की आँखें फुड़वाने का क्या तुक है।
यह सवाल ऐसा ही है जैसे बुद्धि और हृदय किसी विषय पर द्विपक्षीय वार्ता कर रहे हों। दिल के तर्क परंपरागत व्यवस्थाओं की तरफ़दारी करते हैं और दिमाग़ पैसे से सारे सुख खरीदने का पक्षधर रहता है। बुखार में माँ की गीली पट्टी मेडिकली शायद शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता न बढ़ाती हो, लेकिन उस स्पर्श से दिल को जो आत्मबल मिलता है, उससे क्रोसिन से थोडा फ़ास्ट ही असर होता है।
सामाजिक दिखावे के चलते हमने अपनी पीढ़ियों को कॉन्वेंट कल्चर में तो ला पटका लेकिन इस बात पर चिंतन न कर सके कि जब नई गाड़ी पर रोली से स्वस्तिक बनाने की बात पर ये पीढ़ी नाक-भौं चढ़ाएगी तो हम अपने उस बचपन को क्या उत्तर देंगे जिसकी हर सुबह पर एक डिठौना जड़ा हुआ है। अपने बच्चों को अच्छी नौकरी दिलाने की चाह में हमने इस बात को बिसार दिया कि इनको मालिक भी बनाया जा सकता है।
हमने अपने हाथ से अपनी संस्कृति की जड़ों में मट्ठा डाला है। इसलिए जर्जर होते इस वटवृक्ष को देखकर दुःखी होने का हमें कोई अधिकार नहीं। सौ साल की सोच रखकर नीम बोनेवाले पुरखों को उनकी पीढ़ियों से साल भर में दम तोड़नेवाली गुलदावरी का उपहार मिल रहा है। करौंदे भी धड़ी के हिसाब से ख़रीदनेवालों के वंशज जब पाव भर सीताफल तुलवाते हैं तो तराजू का पलड़ा ठहाका मारकर हँसता है और चिढ़ाते हुए कहता है कि अहले जहाँ हमारा सदियों दुश्मन रहा तो हमारी हस्ती बच गई लेकिन इस बार हमने ख़ुद ठानी है इस हस्ती से दुश्मनी।

© चिराग़ जैन

Saturday, July 18, 2015

जंग की वजह

कई नस्लों को हमने ख़ुद गुनाहगारों में बदला है
हँसी को टीस में और जश्न को चीखों में बदला है
जिन्हें पुरखों ने ख़ुश होने की खातिर हमको सौंपा था
उन्हीं मौक़ों को हमने जंग की वजहों में बदला है

© चिराग़ जैन

जश्न को चीखों में बदला है

नई नस्लों को हमने ख़ुद गुनहगारों में बदला है
हँसी को टीस में और जश्न को चीखों में बदला है
जिन्हें पुरखों ने ख़ुश होने की ख़ातिर हमको सौंपा था
उन्हीं मौकों को हमने जंग की वजहों में बदला है

© चिराग़ जैन

Friday, July 17, 2015

त्योहार

अपना भी त्योहार है, उनका भी त्योहार।
अब तो मीठा कीजिये, आपस का व्यवहार॥

रथ पर शोभित हो गए, जगन्नाथ महाराज।
उनका रूप निहारने, ईद आई है आज॥

© चिराग़ जैन

Friday, July 10, 2015

ज़िन्दगी का अर्थ

मंज़िल की धुन में राह के मंज़र निकल गये
ख़ुशियों के गाँव आए तो छूकर निकल गये
कुछ लोग ज़िन्दगी का अर्थ बूझते फिरे
कुछ लोग इसे शान से जीकर निकल गये

© चिराग़ जैन