सतपुड़ा के घने जंगलों में माचना नदी के किनारे; जहाँ मोबाइल नेटवर्क भी नहीं पहुँच पाया; वहाँ टिटहरी दल का कलरव और प्रकृति का अछूता स्वरूप देखा। जंगल के भीतर बेशक अनेक प्रकार के भय हों, किन्तु अकारण सताए जाने की आशंका कतई नहीं होती। नदी की धार भी जंगल के निष्पाप आदिवासियों की तरह बहुत सुकून के साथ बह रही है। वृक्ष, नदी, जंतु, पंछी, हवा, बादल और कहीं-कहीं गोंड आदिवासियों के गाँव; सब कुछ एक दूसरे के साथ ऐसे सुरम्य हो जाते हैं, मानो किसी कुशल संगीतज्ञ ने सात सुरों को करीने से गूँथकर किसी आनंदराग की सरगम लिख दी हो। नीला आसमान नदी में झाँककर खिलखिला रहा है और नदी अपने रास्ते में अड़नेवाले पत्थरों की शिक़ायत करने को आसमान की ओर उछल रही है।
मैंने नदी के पानी में पैर डाला तो वह नाराज़ नहीं हुई, उल्टे उसने मेरे पैरों को पखारकर मेरे रोम-रोम को आनंदित कर दिया। नदी से निकला तो मिट्टी स्नेह से भरकर मेरे पैरों से लिपट गई। मैंने नदी के बीच एक छोटी शिला पर बैठकर अपना एक गीत रिकॉर्ड करवाया। गीत की धुन के साथ नदी, हवा, टिटहरी और धूप ने ऐसे तारतम्य बैठा लिया कि गीत ने इनको अलंकार की तरह सजाकर इतराना शुरू कर दिया। रिकॉर्डिंग के समय मैंने महसूस किया कि जंगल के विशाल वृक्ष टकटकी लगाकर बड़े ध्यान से गीत का वैभव देख रहे थे।
दोपहर और सांझ के मिलन का समय था। जंगल में शाम होने लगे तो माहौल शांति का चोगा उतारकर सन्नाटा ओढ़ लेता है। नदी के पानी में पड़नेवाले प्रतिबिम्बों का रंग गहराने लगा था। सूर्य अपना लश्कर समेटकर पश्चिम की ओर बढ़ रहा था। एक कारी बदरिया उसके बिछोह की बात सोच-सोचकर और काली हुई जा रही थी। बदरिया, मनौती करती हुई बार-बार सूरज के आगे अड़ती थी और सूरज, हर बार की तरह इस बार भी उसकी मनुहार को अनदेखा कर पश्चिम में डूबता जाता था।
लाचार बदली हारकर भावनाशून्य चेहरे से अपने प्रीतम को डूबते देखती रह गई। पूरे आसमान में सिंदूर बिखर गया। ऐसा लगा मानो माचना के पानी में बदली का उम्मीद भरा दिल बह निकला हो। बिरहन बदरिया की आँखों से दो बूंदें छलक पड़ीं। मौके का फायदा उठाकर पवन ने उसके आँसू पोंछे और उसका हाथ पकड़कर उसे अपने साथ बहा ले गया।
रात ने पश्चिम में बिखरे सिंदूर पर काली रजाई डाल दी और दूर आसमान से तारे उचक-उचक कर बदरी और सूरज को ढूंढते रह गये।
मैंने उस दिन माचना के किनारे जीवन के हज़ारों रंग, याद के एक ही फ्रेम में कैद कर लिए।
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