Thursday, October 26, 2017

छल का पल

आँखें पलकों की सीमा से बाहर आने को आतुर थीं
कंधे ढूंढ रहे थे कोई एक हथेली धीर बँधाए
रक्त शिराओं के तटबंधों की मर्यादा लांघ रहा था
अपनेपन के छल से आहत दिल ख़ुद को कैसे समझाए

मुट्ठी भींच नहीं सकता था, संबंधों का दम घुँट जाता
और हथेली के खुलते ही भाग्य मुझे उपहास बनाता
किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा मैं सोच रहा था कैसा क्षण है
मेरे तन पर मेरे मन का क्यों कुछ ज़ोर नहीं चल पाता
शब्द गले में मौन पड़े थे, वक़्त थमा-सा था मुँह बाये
अपनेपन के छल से आहत दिल ख़ुद को कैसे समझाए

अपना सुख ईंधन कर डाला, जिसका पथ उज्ज्वल करने में
उसने पल भर भी न विचारा, संबंधों से छल करने में
मैं इस पल भी चाह रहा हूँ, यह कोई झूठा सपना हो
उसके हाथ नहीं काँपे थे, अपनों को घायल करने में
दिल धक से बैठा जाता था, पलकों तक आँसू भी आए
अपनेपन के छल से आहत दिल खुद को कैसे समझाए

इस पल में समझा चेहरे का रंग बदलना क्या होता है
इस पल जाना पाँव तले से ज़मीं खिसकना क्या होता है
विश्वासों की परत चढ़ाकर विष देना किसको कहते हैं
इस पल ही जाना जीते जी, प्राण निकलना क्या होता है
दुनियादारी क्या होती है, इस पल ने सब पाठ पढ़ाए
अपनेपन के छल से आहत दिल खुद को कैसे समझाए

© चिराग़ जैन

Monday, October 23, 2017

बचपन के किस्सों से पूछो

तुम खरगोशों के अनुयायी
मैं हूँ कछुए का पथगामी
बचपन के किस्सों से पूछो
आख़िर में जय किसकी होगी

जब सारस को आमंत्रित कर
खीर परोसी थी थाली में
लम्बी चोंच लिए बेचारा
कैसे जल पीता प्याली में
दृश्य मगर परिवर्तित होगा
सारस का भी दिन आएगा
शर्बत युक्त सुराही होगी
धूर्त देख कर पछताएगा
बंदर को छलने की नीयत
मूर्ख मगर को रिस्की होगी
बचपन के किस्सों से पूछो
आख़िर में जय किसकी होगी

आज कथा का पहला दिन है
आज बया का घर टूटेगा
संत लुटेगा, चोर हँसेगा
पाप अभी चांदी कूटेगा
लेकिन ज्यों ज्यों बात बढ़ेगी
कौआ मीठा जल पाएगा
ऊँची हांडी की खिचड़ी से
बूढ़ा ब्राह्मण फल पाएगा
वैसा हाल बनेगा उसका
जैसी करनी जिसकी होगी
बचपन के किस्सों से पूछो
आख़िर में जय किसकी होगी

ताल किनारे लक्कड़हारा
सच कहने का फल पाएगा
भगत बना बगुला खुद इक दिन
कर्क गरल से छल जाएगा
हाथी को चींटी डस लेगी
सच का मुश्किल पंथ नहीं है
न्याय अगर है न्यून जहाँ तक
वह किस्से का अंत नहीं है
खुद गड्ढे में गिर जाएगा
जिसने भी साजिश की होगी
बचपन के किस्सों से पूछो
आख़िर में जय किसकी होगी

© चिराग़ जैन

Sunday, October 22, 2017

सृजन-पथ

मौन लम्हों को पकड़कर शब्द में साकार करना
भावसागर से अमिय का घट जुटाने-सा कठिन है
कल्पना में कौंधते लाखों विचारों से उलझना
इक उफनती बाढ़ को काबू में लाने-सा कठिन है

राम का दुःख तब कहा जब रह गए तुलसी अकेले
मेघदूतम् के रचयिता ने विरह के कष्ट झेले
कृष्ण की इक बावरी ने विष पिया जीवन गँवाया
सूर के अंधियार में ही रौशनी के खेल खेले
अनुभवों की देह छूकर, शब्द में जीवन पिरोना
साँस से अहसास की क़ीमत चुकाने सा कठिन है

दूसरों को बाँट कर देखो कभी अपना उजाला
क्यों कबीरा ने लुकाठी से घरौंदा फूँक डाला
सीकरी की भेंट ठुकराना निरी दीवानगी है
प्राण से प्यारी सुता खोकर बना कोई निराला
आँसुओं को आँख में ही रोक कर स्याही बनाना
धमनियों में वर्णमाला को बहाने-सा कठिन है

सो गया शहरे-अवध में रोते-रोते मीर कोई
फै़ज़ होने के लिए पहने रहा ज़ंजीर कोई
गै़र मुमकिन है बिना अनुभव के वारिस शाह होना
उस बशर ने खोई होगी ज़िन्दगी में हीर कोई
ज़ख़्म की हर टीस को दिलचस्प-सा क़िस्सा बनाना
चोट खाकर महफ़िलों में खिलखिलाने-सा कठिन है

गीत लिखकर गीत ऋषियों ने असीमित दर्द ढाँपा
शायरों को इल्म है किस शाख़ पर कब फूल काँपा
जेल की दीवार पर अशआर हिम्मत से लिखे पर
पुत्र के सिर का कलेवा कर नहीं पाया बुढ़ापा
भाव, पारे की तरह छूने नहीं देता स्वयं को
काव्य रचना ओसकण से घर बनाने-सा कठिन है

भावनाओं के प्रसव का मिल गया वरदान कवि को
अश्रु पीकर बाँटनी होगी सदा मुस्कान कवि को
मुश्क़िलों की हर परत को खोल कर छूना पड़ेगा
ज़िन्दगी मिलती भला कैसे बहुत आसान कवि को
एक जीवन में सभी की भावना को शब्द देना
हर पहर मरते हुए जीवन बिताने-सा कठिन है

© चिराग़ जैन

Saturday, October 21, 2017

साम्प्रदायिक सद्भाव की बातें

युग बीत गए साम्प्रदायिक सद्भाव की बातें करते हुए। धार्मिक कट्टरता की अग्नि में मानवीय मूल्यों के संरक्षण की संभावनाएँ भस्म हो जाती हैं। पुरानी पुस्तकों के सफ़हे पीले पड़कर झड़ने लगे हैं। उन्हें पुनर्मुद्रित न कराया गया तो उनका नामोनिशान भी न बचेगा। मंदिरों-मस्जिदों ने खंडहर में तब्दील होकर बताया है कि समय-समय पर जीर्णाेद्धार न किया जाए तो सब कुछ विलीन हो जाता है।
मूर्तियाँ खण्डित हो जाएँ तो उन्हें वेदी से हटाकर संग्रहालय में रख लेना आवश्यक हो जाता है। मुस्कुराहट मनुष्य का सहज स्वभाव है। जो संबंध मनुष्य के इस स्वभाव में विघ्न डालेगा; मानव उसे बिसार देगा।
किसी संत, मौलवी या धार्मिक व्यक्ति के कुकृत्य पर शर्मिंदा होने से बेहतर है कि मस्तिष्क और मन की खिड़कियों को खोलकर यह विचार करें कि आख़िर क्या कारण है कि त्याग और आत्म कल्याण के पथ पर बढ़ते साधक को भ्रष्ट होने की परिस्थितियाँ आकृष्ट कर लेती हैं। या फिर हमारी साधना की दिव्य वीथियों में धूर्त मस्तिष्कों के प्रवेश का कौन सा द्वार बन गया है; इसकी पड़ताल करनी होगी। किन्तु यह पड़ताल धर्म के अनुयायी होकर नहीं की जा सकती। इसके लिए धर्म का शुभचिंतक होना होगा।
‘राजनीति धर्म को भ्रष्ट करती है’ -यह वाक्य इस युग का सबसे बड़ा भ्रम है। मानव की आत्मा के विकास का कोई संस्थान राजनीति जैसी किसी क्षणिक बुद्धि से प्रभावित होकर अपने पथ से भटक जाए; इसका अर्थ जिसे आप धर्म कह रहे हैं, वह एक छल है। ध्यान रखना, जो डिग जाए वह धर्म नहीं है।
हम प्रत्येक युग की समाप्ति पर धर्म के परिष्करण हेतु महाकुम्भ का आयोजन करनेवाले भारतीय हैं। हम गुरु परंपरा की शुचिता बनाए रखने के लिए एक ग्रंथ को गुरु मान लेनेवाले भारतीय हैं। हम अपने ही शिष्य को अपने आसन पर विराजित कर उसके चरणों में बैठनेवाले भारतीय हैं। हम राष्ट्रधर्म पर मातृधर्म निछावर करनेवाले भारतीय हैं। हम कलिंग में रक्तस्नान करने के उपरांत धवल वस्त्र दीक्षा धारण करनेवाले भारतीय हैं। हम कुरुक्षेत्र में काल-पात्र-स्थान के अनुरूप क्षण-क्षण नियम बदलनेवाले भारतीय हैं। हम फ़क़ीरों की याद में फूलों की चादरें संजोनेवाले भारतीय हैं।
जिन लोगों को धर्म अपनाना था, वे मौन हो गए। उन्हें शब्द अनावश्यक लगने लगे। उन्हें बखान की ज़रूरत ही महसूस न हुई। लेकिन जिन्हें धर्म भुनाना था, उन्होंने शोर मचाना शुरू किया। नारे लगानेवाले और शोर-शराबा करनेवाले लोग धर्म को भुनानेवाले लोग हैं। किसी भी संप्रदाय के प्रवर्तक ने, किसी भी पंथ के उद्घोषक ने किसी को पकड़कर अपने मार्ग से नहीं जोड़ा। उसके आचरण में ऐसा चुम्बक बन गया कि लोग स्वतः ही खिंचे चले आए। महावीर, बुद्ध, नानक, राम, कृष्ण, पैगम्बर, जीसस, परमहंस और विवेकानंद जैसे लोगों ने मुनादी नहीं करवाई कि उनके पंथ पर चलो, उन्होंने तो बस स्वयं चलना शुरू कर दिया। फिर गाँव के गाँव उनके पीछे हो लिये। उन्होंने कोई पोस्टर नहीं छपवाया कि आज यहाँ प्रवचन होगा। वे तो बस, यकायक बोलने लगे होंगे, ख़ुद से बतियाने लगे होंगे। फिर यह होश ही कहाँ होगा कि हज़ारों लोग सुन रहे हैं या दस-बीस। उन्हें किसी को सुनाना ही न था। वे तो बस बतिया रहे थे स्वयं से। उन्होंने किसी को दिखाना थोड़े ही था, वे तो स्वयं को देखने में व्यस्त रहे।
धर्म का नाम लेने पर अधर खिल जाएँ, आँखें चमक उठें, सीना चौड़ा हो; यह तो ठीक है किंतु उसी नाम पर माथे में बल पड़ जाएँ, चेहरे पर चिंता उभर आए तो स्थिति शोचनीय है। अपने धर्म पर अभिमान करना आस्था है किन्तु अन्य धर्मों को अपमानित करना कट्टरता है। त्रिकूट पर्वत पर खच्चर चलाते मुल्ला जी का परिवार एक हिन्दू देवी की आस्था से पलता है। जिस चद्दर पर बिखरे मोती चुन-चुनकर राखियाँ बुनी जाती हैं उन पर कभी-कभी नमाज़ भी पढ़ी जाती है। जिन बगीचों में मज़ारों पर चढ़नेवाले फूल उगते हैं उन्हीं की कुछ क्यारियाँ रामजी की मूर्ति पर चढ़नेवाली मालाएँ भी उगाती हैं।
हैरत की बात ये है कि कर्बला में मुहम्मद का नवासा जिनसे लड़ रहा था, वे लोग हिन्दू नहीं थे और कुरुक्षेत्र में अभिमन्यु जिनसे जूझ रहा था, वे सातों महारथी मुस्लिम नहीं थे। जो पंचवटी से सीता को चुरा ले गया था, वह शैव ब्राह्मण था और जिन्होंने मीरा को विष का प्याला दिया था वे सब हिन्दू राजपूत थे।
सृष्टि के आदि से चलता आया सुर और असुर संग्राम; रामायण काल का शैव-वैष्णव युद्ध; महाभारत काल का कौरव-पाण्डव संग्राम; जैन-बौद्ध; ब्राह्मण-बौद्ध; मौर्य; चोल; मंगोल ये सब तो लगभग एक ही वृक्ष की शाखाएँ थीं। राजपूतों की आपसी लड़ाइयाँ, रजवाड़ों की निजी मुठभेड़ें; इन सबमें धर्म कहाँ और कब जुड़ गया यह बिंदु इतिहास से नदारद है। सेना में लड़नेवाले बेटे धर्म पूछ कर दुश्मन पर गोली नहीं चलाते।
हम यदि अपने सामाजिक व्यवहार को करुणा और मानवता की छलनी से छान लेंगे तो कोई राजनैतिक अवसरवादी हमें इमारतों की जाति के प्रश्न में उलझाकर थाली से नदारद हुई रोटियों के सवाल से विमुख न कर सकेगा।

© चिराग़ जैन

Thursday, October 19, 2017

भारत की पूर्णता

भारत की पूर्णता का भान करने के लिए
वेद की ऋचाओं का सुज्ञान भी ज़रूरी है
मंदिरों की संध्या आरती के सुर मुख्य हैं तो
मस्जिदों से उठती अजान भी ज़रूरी है
कातिक, असौज, माघ, सावन भी अहम हैं
मीठी ईद वाला रमज़ान भी ज़रूरी है
नानक, कबीर, बुद्ध, महावीर, ईसामसीह
राम भी ज़रूरी, रहमान भी ज़रूरी है

मीरा का मुरारी, जसोदा का नंदलाल और
राधिका के सांवरे से कंत भी समान हैं
जन्म से मरण तक कोई-सा भी पंथ रहे
आदि भी समान और अंत भी समान हैं
बैरागी, फ़क़ीर, ब्रह्मचारी, त्यागी, पीर, बाबा
सिद्ध, ऋषि-मुनि, साधु-संत भी समान हैं
यंत्र भी समान, तंत्र-मंत्र भी समान और
भीतर से सारे धर्मग्रंथ भी समान हैं

झाड़-फूंक वाले टोने-टोटके भी अपने हैं
जड़ी-बूटी वाला वो इलाज भी हमारा है
शंख फूंकने से बाँसुरी की तान तक दक्ष
शस्त्र भी हमारा और साज भी हमारा है
शोणित के पान की परंपरा हमारी ही है
क्षमादान करता रिवाज़ भी हमारा है
गंगा जी का तट मणिकर्णिका हमारा ही है
जमुना किनारे बना ताज भी हमारा है

युध्द से विरक्त हो के संत जो बना था वीर
मौर्यवंशी शासक महान भी हमारा है
भोज, अकबर, शेरशाह, रणजीत, हर्ष,
महाराणा, पौरुष, चौहान भी हमारा है
भारतीय दर्शन जान के सुदर्शन
शून्य पे जो बोला था वो ज्ञान भी हमारा है
भारत हमारा, आर्यावर्त भी हमारा ही है
इंडिया हमारा, हिंदुस्तान भी हमारा है

© चिराग़ जैन

Wednesday, October 18, 2017

दीपावली

उत्सव से ऐसे करो, जीवन का शृंगार।
ज्यों मावस की रात में, दीपक का उजियार।।

© चिराग़ जैन

कामना

नभ तक पसरे अंधियारे में
अनहोनी के भय से आगे
आँखों में बस एक सपन है
इस अंधे दुर्दांत तिमिर में
जिसकी किरण उजाला भर दे
वो दीपक मेरा अपना हो

वृक्ष सभी निस्पंद खड़े हों
निविड़ निशा का सन्नाटा हो
श्वानों का मातम सुन-सुनकर
अंतर्मन बैठा जाता हो
देह गलाती शीतलहर में
झींगुर का स्वर दहलाता हो
भयपीड़ित अस्तित्व सहमकर
दम साधे बढ़ता जाता हो
ऐसी कालनिशा से बचकर
शुभ-वेला का इंगित पाकर
श्वासों में उजियार उगाकर
जो जग के जीवन को स्वर दे
वो कलरव मेरा अपना हो

जीवन रेखा लुप्त हुई हो
शनि रेखा कटती जाती हो
गृह-नक्षत्र विरुद्ध खड़े हों
लग्न अशुभ युति दिखलाती हो
शनि-मंगल की युति वक्री हो
चंद्र ग्रहण हो, सूर्य अस्त हो
गुरु-चाण्डाल त्रिकोण स्थित हो
बुध पीड़ित हो, शुक्र त्रस्त हो
कर्मों के फल की चिंता तज
विधिना के लेखे विस्मृत कर
मेरे हित हर नियम भुला कर
जो धरती को अम्बर कर दे
वो ईश्वर मेरा अपना हो

© चिराग़ जैन

Tuesday, October 10, 2017

साँकल फँस गई है

सूर्य चलकर आ गया है देहरी तक
द्वार की साँकल इसी पल फँस गई है
भाग्य सब वैभव लुटाने को खड़ा है
किसलिए मुट्ठी इसी पल कस गई है

रंग-भू पर जब हुआ अपमान, तब ये आस रक्खी
एक दिन रणक्षेत्र में गाण्डीव भी दो टूक होगा
शर बताएंगे कभी जब गोत्र मेरी वीरता का
राजसी वैभव पगा जयघोष उस क्षण मूक होगा
जब समर में सामने है पार्थ मेरे
क्यों उसी पल भूमि ऐसे धँस गई है

क्या करे जीवट अगर हर आस दामन छोड़ जाए
लड़खड़ाती झांझरों का ताल से संबंध क्या है
ताश के घर से कई सपने संजोए पुतलियों में
धैर्य के क्षण का भला भूचाल से संबंध क्या है
ईश जाने कौन-सी दुर्भाग्य रेखा
आज जीवन रेख के संग बस गई है

© चिराग़ जैन

Saturday, October 7, 2017

कन्या कुँवारी

कन्या एक कुँवारी थी
छू लो तो चिंगारी थी
वैसे तेज कटारी थी
लेकिन मन की प्यारी थी
सखियों से बतियाती थी
शोहदों से घबराती थी
मुझसे कुछ शर्माती थी
बस से कॉलेज आती थी
गोरी नर्म रुई थी वो
मानो छुईमुई थी वो
लड़की एक जादुई थी वो
बिल्कुल ऊई-ऊई थी वो

अंतर्मन डिस्क्लोज किया
इक दिन उसे प्रपोज किया
तबीयत सी नासाज हुई
वो पहले नाराज हुई
फिर बोली ये ठीक नहीं
अपनी ऐसी लीक नहीं
पढ़ने-लिखने के दिन हैं
आगे बढ़ने के दिन है
ये बातें फिर कर लेंगे
इश्क-मुहब्बत पढ़ लेंगे
अभी न मन को हीट करो
एमए तो कंप्लीट करो

उसने यूँ रिस्पांड किया
प्रोपोजल पोस्टपोंड किया
हमसे हिम्मत नहीं हरी
मन में ऊर्जा नई भरी
रात-रात भर पढ़ पढ़ के
नई इबारत गढ़ गढ़ के
ऐसा सबको शॉक दिया
मैंने कॉलेज टॉप किया

अब तो मूड सुहाना था
अब उसने मन जाना था
लेकिन राग पुराना था
फिर एक नया बहाना था
जॉब करो कोई ढंग की
फिर स्टेटस की नौटंकी
कभी कास्ट का पेंच फँसा
कभी बाप को नहीं जँचा

थककर रोज झमेले में
नौचंदी के मेले में
इक दिन जी कैड़ा करके
कहा उसे यूँ जाकर के
जो कह दोगी कर लूंगा
कहो हिमालय चढ़ लूंगा
लेकिन किलियर बात करो
ऐसे ना जज्बात हरो
या तो अब तुम हाँ कर दो
या फिर साफ मना कर दो

सुनकर कन्या मौन हुई
हर चालाकी गौण हुई
तभी नया छल कर लाई
आँख में आँसू भर लाई
हिम्मत को कर ढेर गई
प्रण पर आँसू फेर गई

पुनः प्रपोजल बीट हुआ
नखरा नया रिपीट हुआ
थोड़ा सा तो वेट करो
पहले पतला पेट करो
जॉइन कोई जिम कर लो
तोंद जरा सी डिम कर लो
खुश्बू सी खिल जाऊंगी
मैं तुमको मिल जाऊंगी

तीन साल का वादा कर
निज क्षमता से ज्यादा कर
हीरो जैसी बॉडी से
डैशिंग वाले रोडी से
बेहतर फिजिक बना ना लूँ
छः छः पैक्स बना ना लूँ
तुझको नहीं सताऊंगा
सूरत नहीं दिखाऊंगा
रात और दिन श्रम करके
खाना-पीना कम करके
रूखी-सूखी खा कर के
सरपट दौड़ लगा करके
सोने सी काया कर ली
फिर मन में ऊर्जा भर ली

उसे ढूंढने निकल पड़ा
किन्तु प्रेम में खलल पड़ा
किसी और के छल्ले में
चुन्नी बांध पुछल्ले में
वो जूही की कली गई
किसी और की गली गई
शादी करके चली गई
हाय री किस्मत छली गई

थका-थका हारा हारा
मैं बदकिस्मत बेचारा
पल में दुनिया घूम लिया
हर फंदे पर लूम लिया
अपने आँसू पोछूँगा
कभी मिली तो पूछूंगा
क्यों मेरा दिल तोड़ गई
प्यार जता कर छोड़ गई

कुछ दिन बाद दिखाई दी
वो आवाज सुनाई दी
छोड़ा था नौचंदी में
पाई सब्जी मंडी में
कैसा घूमा लूप सुनो
उसका अनुपम रूप सुनो
वो जो एक छरहरी थी
कंचन देह सुनहरी थी
अब दो की महतारी थी
तीजे की तैयारी थी
फूले-फूले गाल हुए
उलझे-बिखरे बाल हुए
इन बेढंगे हालों ने
दिल के फूटे छालों ने
सपनों में विष घोला था
एक हाथ में झोला था
एक हाथ में मूली थी
खुद भी फूली फूली थी
सब सुंदरता लूली थी
आशा फाँसी झूली थी

वो जो चहका करती थी
हर पल महका करती थी
हिरनी बनी विचरती थी
खुल्ला खर्चा करती थी
वो कितनी लिजलिजी मिली
बारगेनिंग में बिजी मिली

धड़कन थाम निराशा से
गिरकर धाम हताशा से
विधिना के ये खेल कड़े
देख रहा था खड़े खड़े
तभी अचानक सधे हुए
दो बच्चों से लदे हुए
चिकचिक से कुछ थके हुए
बाल वाल भी पके हुए
इक अंकल जी प्रकट हुए
दर्शन इतने विकट हुए
बावन इंची कमरा था
इसी कली का भ्रमरा था

तूफानों ने पाला था
मुझसे ज्यादा काला था
मुझसे अधिक उदास था वो
केवल दसवीं पास था वो
ठगा हुआ सा ठिठक गया
खून के आंसू छिटक गया
रानी साथ मदारी के
फूटे भाग बिचारी के
घूरे मेला लूट गए
तितली के पर टूट गए
रचा स्वयंवर वीरों का
मंडप मांडा जीरो का
गरम तवे पर फैल गई
किस खूसट की गैल गई

बिना मिले वापस आया
कई दिनों तक पछताया
अब भी अक्सर रातों में
कुछ गहरे जज्बातों में
पिछली यादें ढोता हूँ
सबसे छुपकर रोता हूँ
मुझमें क्या कम था ईश्वर
किस्मत में गम था ईश्वर
भाग्य इसी को कहते हैं
अब भी आँसू बहते हैं

© चिराग़ जैन