आँखें पलकों की सीमा से बाहर आने को आतुर थीं
कंधे ढूंढ रहे थे कोई एक हथेली धीर बँधाए
रक्त शिराओं के तटबंधों की मर्यादा लांघ रहा था
अपनेपन के छल से आहत दिल ख़ुद को कैसे समझाए
मुट्ठी भींच नहीं सकता था, संबंधों का दम घुँट जाता
और हथेली के खुलते ही भाग्य मुझे उपहास बनाता
किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा मैं सोच रहा था कैसा क्षण है
मेरे तन पर मेरे मन का क्यों कुछ ज़ोर नहीं चल पाता
शब्द गले में मौन पड़े थे, वक़्त थमा-सा था मुँह बाये
अपनेपन के छल से आहत दिल ख़ुद को कैसे समझाए
अपना सुख ईंधन कर डाला, जिसका पथ उज्ज्वल करने में
उसने पल भर भी न विचारा, संबंधों से छल करने में
मैं इस पल भी चाह रहा हूँ, यह कोई झूठा सपना हो
उसके हाथ नहीं काँपे थे, अपनों को घायल करने में
दिल धक से बैठा जाता था, पलकों तक आँसू भी आए
अपनेपन के छल से आहत दिल खुद को कैसे समझाए
इस पल में समझा चेहरे का रंग बदलना क्या होता है
इस पल जाना पाँव तले से ज़मीं खिसकना क्या होता है
विश्वासों की परत चढ़ाकर विष देना किसको कहते हैं
इस पल ही जाना जीते जी, प्राण निकलना क्या होता है
दुनियादारी क्या होती है, इस पल ने सब पाठ पढ़ाए
अपनेपन के छल से आहत दिल खुद को कैसे समझाए
© चिराग़ जैन
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