Friday, November 29, 2019

समस्या ख़ुद कन्फ़्यूज़्ड है

हम भारतीय लोग ज़रा हटकर सोचते हैं। जैसे ही कोई समस्या हमारे सामने आती है तो हम उसकी ओर देखते ही नहीं। समस्या चिंघाड़ कर कहती है कि मैं तुम्हारा सर्वनाश कर रही हूँ, लेकिन हम उसकी इन बातों को कान न देकर उसके अगल-बगल कुछ टटोलने लगते हैं। बिल्कुल उस पगले की तरह जिसे चोट लग जाए तो वह उसकी मरहम तलाशने की बजाय मरहम लगानेवाले के कपड़े फाड़ देता है। 
समस्या निर्भया का विक्षिप्त शरीर लेकर हमें डराना चाहती है और हम महिला कानूनों को कड़ा करके इतराने लगते हैं। समस्या बुलंदशहर का वह परिवार दिखाती है जिसमें माँ-बेटी को दुनिया के सबसे लाचार पिता की आँखों के सामने रौंदा गया। सुनकर हम एक पल को दहलते हैं, लेकिन अगले ही पल हम सपा, बसपा और भाजपा, कांग्रेस को कोसने लगते हैं। समस्या प्रियंका रेड्डी की अधजली लाश लेकर फिर हमारे सामने आती है और हम इस लाश पर रोने की बजाय इसमें हिन्दू-मुस्लिम ढूंढने लगते हैं। 
समस्या कन्फ्यूज़ हो जाती है कि मैं इस देश को बर्बाद कैसे करूँ, ये तो ख़ुद बर्बाद हो रहे हैं। टीवी चैनल भयंकर टेंशन में हैं। उन्हें इस बात की ग्लानि है कि कभी तो ख़बरों का ऐसा टोटा होता है कि भूत-प्रेत और सास-बहू चला-चलाकर स्लॉट खपाना पड़ता है और अब एकदम से ख़बरों की झड़ी लग गई है। 
समझ नहीं आता कि उद्धव ठाकरे के मंत्रिमंडल की आरती दिखाएँ, प्याज के बढ़े हुए दामों का चटकारा लगाएँ, प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर मज़े लें या हैदराबाद के इस बलात्कार का बुलेटिन बनाएँ। हद्द है। इस देश में घटनाओं का कोई रोस्टर होना चाहिए। पॉलिटिकल पार्टियों में अलग अफ़रा-तफ़री है। हैदराबाद को लेकर इतना कन्फ्यूज़न है कि लीडर समझ नहीं पा रहे कि इस घटना पर स्थानीय सरकार को गाली देनी है, या केवल घटना पर दुख प्रकट करके कन्नी काट लेनी है। 
सोशल मीडिया पर अपराधियों के लिए आक्रोश दिखाई दे रहा है, जिसे देखकर महसूस होता है कि यदि सोशल मीडिया ही जनता हो तो देश में अराजकता फैल चुकी होती। प्रश्न किसी एक घटना का है ही नहीं। 
हमारी न्याय प्रक्रिया, हमारी कार्यपालिका, हमारी विधायिका और हमारी पत्रकारिता एक बार, केवल एक बार यह गंभीरता से विचार करे कि समस्या की आँखों में आँखें डालकर उसका समाधान खोजने की बजाय इधर-उधर झाँकने की अपनी प्रवृत्ति से हम धोखा समस्या को दे रहे हैं या ख़ुद को!

© चिराग़ जैन

Friday, November 22, 2019

राजनीति का निश्छल रूप

मन बहुत भावुक है। जिस देश के सरकारी कर्मचारी दिन में भी काम नहीं करते, उस देश के राजनेता रात भर काम करते रहे। जिन राजनेताओं को हम भ्रष्टाचारी कहते हैं, वे राजनेता महाराष्ट्र में सरकार बनाने की भयंकर आपाधापी के बीच किसानों की समस्याओं पर चर्चा करने के लिए प्रधानमंत्री से मिले। जिन विधायकों को हम शातिर समझते हैं, वे बेचारे तो इतने भोले हैं कि अजित पँवार जैसे घर के भेदी ने ‘चुपके से’ भाजपा के समर्थन पर हस्ताक्षर करवा लिए।
ग़द्दार तो जनता है, जिसने शिवसेना को वोट देकर महाराष्ट्र में ऐसी संकट की स्थिति उत्पन्न कर दी कि शिवसेना भाजपा को ब्लैकमेल करने लगी। यदि भाजपा ने शिवसेना से गठबंधन करके चुनाव लड़ा भी था, तो भी जनता को यह समझना चाहिए था कि उद्धव ठाकरे भाजपा को ब्लैकमेल कर सकते हैं। चला गया सत्तालोलुप ठाकरे भ्रष्ट एनसीपी और देशद्रोही कांग्रेस से मिलकर सरकार बनाने। अब क्या भाजपा चुपचाप बैठी जनता की बर्बादी देखती रहती। महाराष्ट्र में इतना अंधेरा फैल गया था कि पँवार परिवार में आग लगाकर उजाला किया। उस अग्नि में अजित पँवार की अग्निपरीक्षा लेकर उन्हें शुद्ध किया और तब जाकर महाराष्ट्र में लोकतंत्र का उजाला फैल सका।
कांग्रेस के प्रति भी मन श्रद्धा से भर रहा है। जो शिवसेना कांग्रेस की जानी दुश्मन थी, जिस शरद पँवार ने सोनिया गांधी के विरुद्ध प्रोपेगेंडा किया, जिस शरद पँवार को राजीव गांधी ने पॉइज़न कहा था; उनके साथ भी सरकार बनाने को तैयार हो गई ताकि देश की जनता का हित करने का अवसर उसके हाथ से न निकल जाए। यह सब कुछ क्या व्यक्तिगत हित के लिए किया जाता है! डूब मरना चाहिए ऐसा सोचनेवालों को। ये तो बेचारे राष्ट्रहित और लोकहित के लिए दर-दर भटकते फिरते हैं।
यह इस देश की सियासत के पवित्र संस्कार ही तो हैं कि इतने सारे नेता जनता की भलाई का दायित्व उठाने के लिए एक-दूसरे का सिर फोड़ रहे हैं। वो तो भला हो ईडी और सीबीआई का; जो सरकार के पुनीत निस्पृह उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कमज़ोर खिलाड़ियों को धमकाकर राष्ट्रहित की ओर मोड़ देती है। सरकार जानती है कि देशहित के बड़े लक्ष्य की पूर्ति के लिए यदि एकाध गुनहगार को पैरोल देनी पड़े, एकाध चोट्टे को ईडी और सीबीआई के शिकंजे से बचाना पड़े तो यह बलिदान लोकहित के महान लक्ष्य के सामने बहुत बौना है।
सरकार यह भी जानती है कि जिन जीते हुए विधायकों को जीतते ही गोडाउन में बंद कर दिया जाता है, उस माल को कुछ ज़्यादा क़ीमत पर ख़रीदने में भी कोई बुराई नहीं है। डील, ट्रेडिंग, फॉर्मूला जैसे शब्द लोकतंत्र की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं। जनता का वोट ख़रीदने की टुच्ची हरक़त करनेवाली राजनीति से कहीं बेहतर है कि जनता का वोट पानेवाले नेता को ही ख़रीद लिया जाए। हमारी राजनीति रिटेल से होलसेल तक आ गई है।
यह लोकतंत्र का समग्र विकास है। जिन लोगों को अभी भी राजनेताओं की नीयत पर संदेह है, उन्हें सचमुच पाकिस्तान चले जाना चाहिए।

© चिराग़ जैन

Sunday, November 17, 2019

दुःख के दम पर पुजता है तू

दुनिया को भरमाने वाले 
सारा खेल रचाने वाले 
दुःख के दम पर पुजता है तू 
सुख से तुझको डर लगता है 

जग का कर्ता-धर्ता तू है, जग में कष्ट अपार भरे हैं 
पहले तूने पापी भेजे, फिर तूने अवतार धरे हैं 
पहले आग लगाने वाले 
फिर पानी बरसाने वाले 
तेरा, सुख देने के दावा 
कोरा आडम्बर लगता है 
दुःख के दम पर पुजता है तू 
सुख से तुझको डर लगता है 

सब कुछ सहज चले दुनिया में, यह तुझको स्वीकार न होगा 
कष्ट नहीं हो तो दुनिया में, तेरा कारोबार न होगा 
हँसते लोग रुलाने वाले 
दुःख देकर इतराने वाले 
सुख की मांग बढ़ाता फिरता 
तू इक सौदागर लगता है 
दुःख के दम पर पुजता है तू 
सुख से तुझको डर लगता है 

आँसू, पीड़ा, कष्ट, विवशता -इनसे रिश्वत लेता है तू 
सुख के झोला देता है तो, उनमें दुःख रख देता है तू 
सुख के स्वप्न दिखाने वाले 
दुख के पेड़ लगाने वाले 
सबके सुख के परिधानों में 
क्यों दुःख का अस्तर लगता है 
दुःख के दम पर पुजता है तू 
सुख से तुझको डर लगता है 

© चिराग़ जैन

Friday, November 8, 2019

व्यवस्था : एक सर्कस

गांधी परिवार की सुरक्षा में कटौती हुई तो एनएसयूआई के कार्यकर्ता गृहमंत्री के घर के बाहर इकट्ठा हो गए। वकीलों पर आन पड़ी तो वकीलों ने पुलिस मुख्यालय का घेराव कर लिया। सरेआम कहा कि उन्हें थाने की कार्रवाई पर भरोसा नहीं है, इसलिए सीबीआई, विजिलेंस के साथ विशेष जाँच समिति बनवाई जाए।
पुलिस की छवि बचाने की नौबत आई तो शीर्ष नेतृत्व ने आँसू बहाकर बेचारे पुलिसवालों की पतवार थाम ली। इन सब मुआमलों के झरोखे में एक बार उस आम आदमी की भी सुधि ले लेनी चाहिए जिसके पास यह बताने का भी ज़रिया नहीं है कि वह असुरक्षित महसूस कर रहा है। वह सुरक्षा की झोली पसारे थाने चला जाए तो पुलिसवालों का रवैया और भाषा उसे अपमानित करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ती। वह न्याय की उम्मीद लेकर न्यायालय पहुँचता है तो न्याय व्यवस्था की पेचीदगियाँ, न्याय प्रक्रिया की गति और न्याय तंत्र की लाचारियाँ उसके पूरे जीवन को कचहरी के चक्कर लगवाकर नष्ट कर डालती हैं।
किसी सरकारी दफ्तर में आपका काम पड़ जाए तो थोड़ी ही देर में आपके मन में इस देश की व्यवस्था के प्रति घृणा से भर उठता है। रेलवे आरक्षण केंद्र पर मशीनें ख़राब हैं, मैन्युअल टिकट बनाने वाली बीसियों खिड़कियाँ हैं, लेकिन उनमें से दो या तीन पर आदमी मौजूद है। हम सिस्टम से इतने डरे रहते हैं कि बाकी खिड़कियों पर अनुपस्थित कर्मचारी के विषय में प्रश्न करते ही झिड़क दिए जाते हैं। एयरपोर्ट पर अर्द्धसैनिक बल के जवान फ्रीस्किंग की सारी मशीनें चालू नहीं करते, लोग लंबी-लंबी लाइनों में लगे रहते हैं लेकिन बाकी के काउंटर ओपन करने को कह नहीं पाते।
अस्पतालों में डॉक्टर से डरते हैं, दफ़्तरों में क्लर्क से, बैंक में बैंकर से। बस में चढ़ो तो कंडक्टर डाँटता है, बस से उतरो तो ड्राइवर। रेल में टीटी से डर लगता है तो सड़क पर सारजेंट से। थाने और न्यायालय तो हैं ही डाँट-पीट के केंद्र। सरकारी नौकरियों में ज़िन्दगी के तीस-पैंतीस साल बितानेवाले कर्मचारी की पेंशन सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ है, लेकिन दो-ढाई साल विधायकी भोगनेवाले लीडर को पालना सरकार की ज़िम्मेदारी है। किसी विवशता में किसी बीमार को बिना हेलमेट अस्पताल ले जाने लगो तो ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन है, लेकिन किसी मुस्टंडे नेता की रैली में सैंकड़ों दुपहिए तीन-तीन सवारियाँ लादकर बिना हेलमेट अख़बार में छपें तो यह फ़ख़ की बात है।
किस ढोंग को हमने व्यवस्था मान लिया है? व्यवस्था के नाम पर एक सर्कस चल रहा है, जहाँ रंग-बिरंगे जोकर पहले से फिक्स स्क्रिप्ट के अनुसार अपना नकली पेट, नकली हाथ या नकली नाक गिरा देता है, बाकी जोकर उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं। इस खेल में जनता यह भूल जाती है कि वह जनता है, और वह भी तालियाँ बजाकर मज़ाक़ उड़ा रहे जोकरों में शामिल हो जाती है।
कोई भी राजनैतिक दल इस देश के लिए कुछ नहीं कर रहा। सब अपना-अपना सर्कस सजाने में जुटे हैं। हमें लगता है कि हम जोकरों पर हँस रहे हैं, लेकिन वास्तव में हर शो के बाद सारे जोकर हम पर हँसते हैं कि आज फिर हमारी स्क्रिप्ट को सच समझकर लोग तालियाँ पीटते रहे।

© चिराग़ जैन

Wednesday, November 6, 2019

मैं अयोध्या हूँ।

मैं अयोध्या हूँ। 
मेरे स्वभाव में किसी परिस्थिति का सही अंत न तो केवल कौरवों के जीत है, न ही केवल पाण्डवों की जीत। मैंने राम को ख़ुशी-ख़ुशी वन जाते देखा है, मैंने देखा है कि जब राम वन से लौट कर आए तो भरत के मन में राज्य छिनने की पीड़ा नहीं थी, अपितु भाई के लौट आने का हर्ष था। 
आज फिर सरयू के घाट पलकें बिछाए एक फैसले की राह देख रहे हैं। इस फैसले के बाद अगर राम और रहमान दोनों के घर घी के दीपक जगमगा गए तो यह राम के अस्तित्व की सबसे बड़ी गवाही होगी। लेकिन इस फ़ैसले से यदि एक भी मन खिन्न हुआ तो मैं अपने राम को बता दूंगी कि राम, तुम फिर से वन चले जाओ, क्योंकि नगरवासी कुरुक्षेत्र की ओर अग्रसर हो रहे हैं। 

© चिराग़ जैन

Sunday, November 3, 2019

सागर मंथन

सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान से क्यों हैं ....क्योंकि आप दिल्ली में है। जिया जले, जान जले रात भर धुआँ चले ...क्योंकि आप दिल्ली में हैं। सागर मंथन से हलाहल उत्सर्जन की घटना प्रोडक्शन एक्सट्रेक्ट के प्रदूषण का सृष्टि का पहला उदाहरण है। यह साफ़ है कि जब भी प्रकृति का दोहन किया जाएगा, तब-तब प्रदूषण चरम पर जाएगा। इससे जीवन जीना कठिन हो रहा है। सतयुग में शिव ने कालकूट पी लिया था। उन्होंने विष को ग्रहण तो किया लेकिन वह विष उनके गले से नीचे नहीं उतरा।
हमारी स्थिति सतयुग से थोड़ी भिन्न है। हमें कालकूट पीना भी है और राजनेताओं की ढोंगी चिंता को गले से नीचे भी उतारना है। राजनीति चिंतित है। यह प्रदूषण पराली के कारण है या दीवाली के कारण; यह भाजपा के कारण है या आम आदमी पार्टी के कारण; यह केंद्र सरकार के कारण है या दिल्ली सरकार के कारण; अगले चुनाव में इसका लाभ अरविंद केजरीवाल को मिलेगा या मनोज तिवारी को -इन महत्वपूर्ण प्रश्नों को सुलझाना सरकार का पहला दायित्व है।
जनता मुँह पर मास्क पहनकर घूम रही है। मास्क बनानेवाली कम्पनियाँ कह सकती हैं कि जिस सागर मंथन से दिल्लीवालों को कालकूट मिला है, उसी सागर मंथन से मास्क मैन्युफैक्चरिंग कम्पनियों को लक्ष्मी मिली है। धन्वंतरि जी भी इन दिनों खूब चांदी काट रहे हैं। दिल्ली सरकार के ऑड-ईवन फॉर्मूले से ओला-ऊबर को कल्पवृक्ष मिल गया है। कामधेनु भाजपा ले उड़ी है। हाथी पर मायावती का पेटेंट है। घोड़े, रंभा, कौस्तुभमणि और वारुणी के लिए राजनैतिक दल चुनाव लड़ रहे हैं। शारंग आउटडेटेड हो गया है क्योंकि हमने विदेशों से शस्त्र ख़रीदने की कला सीख ली है। जो भी पाञ्चजन्य फूंकता है उसे ध्वनि प्रदूषण फैलाने के जुर्म में पुलिस पकड़ रही है। गंधर्वों के गले चोक हो गए हैं। जनता अमृत मिलने के आश्वासन पर ख़ुशी-ख़ुशी विषपान कर रही है।
दिल्लीवाले बड़े सख़्तजान हैं। जिनको राजनैतिक और सामाजिक प्रदूषण प्रभावित न कर पाया, उन्हें ये धुँए की चादर क्या हिला पाएगी। किसी दिन कोई राजनेता ढिठाई से कह देगा कि दिल्ली गैस चेम्बर बन गई है, तो इसमें बुरा क्या है? लोग चिल्लाते रहते हैं कि गैस महंगी हो रही है। हमने दिल्लीवालों को इस महंगाई से मुक्ति दिला दी है। गैस के लिए अपनी गाड़ी कमाई मत ख़र्चाे, हवा में पाइप लगाओ और मस्ती से खाना पकाओ।
मीडिया किसी इवेंट की तरह इस स्थिति की रिपोर्टिंग कर रही है। सिस्टम और राजनेता, मीडिया को उसी स्टाइल में बयान दे रहे हैं जैसे प्याज़ के दाम बढ़ने पर देते हैं। मीडिया, सिस्टम और सरकारें तत्वज्ञान प्राप्त कर चुके हैं कि जो लोग इस धुँए से बच सकते हैं, वे अगला मुद्दा आते ही इस मुद्दे को भूल जाएंगे; और जो इस धुँए से मर जाएंगे, वे सवाल पूछने नहीं आएंगे। कुछ दिनों में यह धुआँ भी धुआँ हो जाएगा। ...सब धुआँ हो जाएगा, एक वाक़या रह जाएगा।

© चिराग़ जैन