Friday, August 20, 2021

घने जंगल की एक शाम

तंज़ानिया की राजधानी दार-एस-सलाम में शानदार कवि-सम्मेलन सम्पन्न हो चुका था। वहाँ बसे भारतीयों का अपनत्व हमें सहज कर चुका था। यद्यपि इस यात्रा में पाठक जी हमारे मुख्य आयोजक थे लेकिन वहाँ बसे शेष भारतीयों ने भी हमें अकेलापन महसूस नहीं होने दिया।
एक सप्ताह में बेहद खूबसूरत पल जीने को मिले। आयोजकों का अपनत्व, हिंदी के प्रति डी एन पाठक जी का समर्पण, जितेंद्र भारद्वाज का कवि प्रेम, अजय गोयल और शिवि पाठक की काव्य प्रतिभा, पारुल जी की आवाज़, तंज़ानिया में भारत के राजदूत श्री संजीव कोहली जी की सहजता और स्वामी विवेकानन्द सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक संतोष जी की सरलता।
तंज़ानिया स्थित स्वामी विवेकानन्द सांस्कृतिक केंद्र में सविता मौर्या नामक एक महिला तंज़ानिया के स्थानीय बच्चों को हिंदी सिखाती हैं। सविता जी को यदि तंज़ानिया में हिंदी की मदर टेरेसा कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। वे अन्य प्रवासी भारतीयों की तरह अपनी आजीविका और घर-गृहस्थी में व्यस्त हैं, किन्तु इस सब व्यस्तता से बचे सप्ताहांत को वे हिंदी की खेती में उपयोग करती हैं। अनेक वर्ष से यह कार्य अनवरत जारी है। इसके परिणामस्वरूप वहाँ हिंदी बोलने, समझने, लिखने और पढ़ने वाले तंज़ानियन बच्चों का एक समूह तैयार हो गया है। इस महती कार्य को करने वाली सविता जी यह सब अवैतनिक रूप से करती हैं। हाँ, बच्चों के आने-जाने के लिए बस के किराये की व्यवस्था वहाँ के प्रवासियों की श्स्वर्णगंगाश् नामक संस्था करती है और कक्षाओं के लिए स्थान की व्यवस्था स्वामी विवेकानन्द सांस्कृतिक केंद्र में निःशुल्क की गई है।
हमने जब इन बच्चों को हिंदी बोलते सुना, हिंदी के गीतों पर भावपूर्ण नृत्य करते देखा, हिंदी सिनेमा के गाने गाते देखा और हिंदी में इनसे बात की तो लगा जैसे कोई स्वप्न साकार हो गया।
कितना कुछ यादों में क़ैद हो गया है। कवि सम्मेलन से पूर्व जब तंज़ानियन बच्चों ने किशोर कुमार के फिल्मी गाने गाए तो मन झंकृत हो गया। कवि सम्मेलन में सैंकड़ों लोगों ने लगभग दो घण्टे तक मुझे और अरुण जैमिनी जी को सुना और सराहा। हम दोनों को विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर सम्मानित किया गया।
कार्यक्रम के अगले दिन पाठक जी हम दोनों कवियों को लेकर कुंबु-कुंबु सेल्यूस नामक स्थान के लिए रवाना होनेवाले थे। सेल्यूस तंज़ानिया के उस घने जंगल का नाम है जहाँ सैलानी न केवल जंगल सफ़ारी के लिए जाते हैं बल्कि शिकार के शौकीनों के लिए इस क्षेत्र को स्वर्ग कहा जाता है। यह स्थान दार-ए-सलाम से 220 किलोमीटर दूर था।
रवानगी से ही अरुण जैमिनी जी और मैं रोमांचित थे। शिकार की बात सुनकर मन कुछ खिन्न अवश्य हुआ किन्तु इस बात की प्रसन्नता थी कि जिन वन्यजीवों को भारत में देखना सम्भव नहीं था, उन्हें उन्हीं की भूमि पर स्वच्छंद विचरते देख सकेंगे।

रूफीजी मे नौकायन की तैयारी

रास्ता लम्बा, ख़ूबसूरत, ऊबड़-खाबड़ तथा कहीं-कहीं भयानक भी था। कई घण्टे राजमार्ग पर चलने के बाद गाड़ी एक कच्ची-सी सड़क पर उतर गयी। शहर पीछे छूट रहा था और हम गहरे जंगल में समाए जा रहे थे। कच्ची सड़क के दोनों ओर घने पेड़ों के झुरमुठ थे। दिन का समय था लेकिन गाड़ी से उतरने की मनाही थी। मोबाइल का नेटवर्क साथ छोड़ चुका था। जंगल इतना घना था कि रिज़ॉर्ट का मालिक, जिसका नाम ‘अतीत’ था, वह पानी से लेकर बर्फ़ तक हर ज़रूरत की चीज़ गाड़ी में स्टोर करके चला था। वह स्वयं गाड़ी ड्राइव कर रहा था। उसने हमें बताया कि इस ख़राब सड़क पर दो या तीन टूर करने के बाद गाड़ी के काफ़ी सारे पुर्ज़े बदलवाने पड़ते हैं। उसकी बात सुनकर मैंने अरुण जी से आँखों ही आँखों में कहा कि हमें तो इसी टूर के बाद अपने पुर्ज़ों की जाँच करवानी पड़ेगी।
ख़राब सड़क पर रोड़वेज की पुरानी बस में जो खड़खड़ का पार्श्व संगीत बजता रहता है, वही संगीत इस शानदार एक्सयूवी में हमारा सहगामी बना हुआ था। लेकिन हमारा पथ-प्रदर्शक एक गुजराती युवा था जो हमसे अधिक वाचाल, सभ्य तथा उत्सवधर्मी था इसलिए पूरे रास्ते उसने कभी किशोर कुमार के गीतों से तो कभी उस घने जंगल के किस्सों से मन बहलाए रखा।
पाठक जी थोड़े अंतर्मुखी हैं, वे कम बोलते हैं किंतु चिड़चिड़े अभिभावकों की तरह मनोरंजन में व्यवधान उत्पन्न नहीं करते। उल्टे हर गतिविधि में अपने मौन के साथ उपस्थित रहते हैं।
यूँ तो कुंबु-कुंबु रिज़ॉर्ट पहुँचते-पहुँचते दोपहर हो गयी थी लेकिन अतीत भाई के आतिथ्य ने रास्ते भर इतनी आवभगत की थी कि भूख लगभग नदारद थी। लेकिन रसोई में सामर्थ्य हो तो वह अफारे में भी भूख जगा दे। यही हमारे साथ उस दिन हुआ। उस घने जंगल में जहाँ ध्यान भटकाने के लिए मोबाइल नेटवर्क नहीं था, वहाँ ग्रामीण आभा से सुसज्जित उस प्रांगण में ज्यों ही हम खाट पर पसरे, हमारे सामने छाछ के गिलास अवतरित हो गए। सफ़र की थकान में जी भर-भर छाछ गटकने के बाद हम बहुत दिन बाद मोबाइलहीन होकर मनुष्यों से बात कर पा रहे थे।


सुकून के पल

जंगल की दोपहरी, रिजॉर्ट का खुला आंगन, घने वृक्षों की छाँव में बिछी हुई खाटें, दो पेड़ों के तनों से बंधा हुआ आराम झूला और इस माहौल को भोगते हुए हम। दस मिनिट में ही खाना लगा दिया गया। पेट भरा होने के बावजूद इस निर्जन में ऐसी व्यवस्था करने वाले का अनुरोध टाला न जा सका। अचार से लेकर तरकारी तक, सबमें से थोड़ा-थोड़ा थाली में सजाया तो छप्पन भोग जैसा महसूस होने लगा। ‘जंगल में मंगल’ की अवधारणा का कुछ-कुछ अर्थ हमें समझ आ रहा था।
थकान, माहौल और अन्न ग्रहण के उपरांत पलकों ने झपकने की तैयारी कर ली। लेकिन हमारे होस्ट ने शायद हमारे आलस्य की सुपारी ले रखी थी। ज्यों ही हमने सुस्ताने की बात कही, वह बोल उठा कि एक बार रूफिजी का पानी देख लो, फिर सो लेना।

नदी तट का एक मनोरम दृश्य

रूफिजी एक भव्य नदी है, जिसके किनारे यह रिज़ॉर्ट बना हुआ है। यह नदी सेल्यूस के बीच से बहती है। इसमें घड़ियालों और मगरमच्छों के झुंड आसानी से दिखाई दे जाते हैं। हम खाट से उठकर सौ क़दम ही चले होंगे कि हमें इस विशालकाय नदी के दर्शन हुए। प्रकृति को उसका अपना माहौल मिल जाए तो वह कितनी विराट हो जाती है, इस बात का अनुमान हमें नदी के तट पर खड़े होकर हुआ।

क्षितिज सिमट आया कैमरे में

कुछ देर इस नदी के सौंदर्य को निहारने के बाद हम अंततः रिज़ॉर्ट में बने कमरों में आकर पसर ही गए। एकाध घण्टे की नींद; जिसे बेहोशी कहना अधिक समीचीन है; उससे ऊर्जा एकत्रित करके हमने चाय का एक सत्र चलाया। चाय पीते-पीते हमें बताया गया कि अब हम इससे भी ज़्यादा ख़ूबसूरत अनुभव से गुज़रने वाले हैं। हम शहरी लोगों के लिए यही स्थान कुंजवन सरीखा आनन्द उपलब्ध करा रहा था, अब इससे अधिक क्या होगा... यह हमारी समझ से परे था।
शाम हो रही थी... हम चाय की चुस्कियाँ लेते हुए कल्पना कर रहे थे कि अब आगे क्या होगा। उधर रिज़ॉर्ट के कर्मचारियों ने काफ़ी सारा सामान नदी तट पर रखी नाव में जमाना शुरू कर दिया। चाय समाप्त होते ही हमें भी एक दूसरी नाव में सवार कर दिया गया। यह नाव एक जानदार मोटरबोट थी, एक नाव में ढेर सारा सामान एक निश्चित दिशा में चल रहा था और दूसरी नाव में हमारा होस्ट हमें रूफिजी की लहरों पर रोमांच करा रहा था।
घड़ियालों से भरी नदी में सूर्य अस्त होने जा रहा था। हल्के बादलोंवाले आकाश में प्रदूषण से मुक्त संध्या अनगिनत रंग बिखेरकर जो दृश्य उत्पन्न करती है उसी के लिए ‘वर्णनातीत’ शब्द की सर्जना हुई होगी। रूफिजी का पाट इतना चौड़ा है कि एकबारगी समुद्र का भ्रम होने लगता है। हमारी मोटरबोट पूरी गति से डूबते हुए सूर्य की दिशा में दौड़ रही थी। पीछे नदी की लहरें मोटरबोट के वेग से एक विशेष आकार बनाते हुए नृत्य कर रही थीं। मोटरबोट पूरे उत्साह में भरकर डूबते सूरज को छू लेने को तत्पर थी और नदी उस तुच्छ मशीन का हाथ पकड़कर उसे रोक लेने को आतुर थीं। हम लहरों पर सवार थे, आँखों में प्रकृति का अनुपम सौंदर्य चमक रहा था, आगे का कार्यक्रम पता नहीं था इसलिए कहीं पहुँचने की जल्दी भी नहीं थी। जब तक सूर्य अस्त न हो गया तब तक हम इसी आनन्द में मग्न रहे। हमारा मोबाइल केवल कैमरा हो गया था।
इधर अंधेरा उजाले पर हावी होने लगा, और उधर हमारा केवट हमें रिज़ॉर्ट ले जाने की बजाय नदी के बीच उग आए एक रेतीले टापू पर ले आया। हम पहली बार इस तरह के टापू पर आए थे इसलिए टापू पर चढ़ने में हम दोनों को ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी।
रात हो रही थी और हम निर्जन वन के बीच विशाल नदी पर बने एक टापू पर कुर्सी लगाकर बैठे थे। हमारे पैरों के नीचे हाल ही में बने किसी मगरमच्छ के पंजों के निशान थे। नदी में घड़ियालों की आँखें चमक रही थीं। पानी की गति का जो संगीत होता है, उसकी लय पर पूरा वातावरण अस्ताचल से निकलती धीमी रौशनी में नृत्य कर रहा था।
दूसरी नाव में लादकर टापू पर एक लाइव तंदूर (जिसे आजकल बारबिक्युनेशन बोलते हैं) लाया गया था। शाकाहारी स्नेक्स की दर्जनों वैरायटी के साथ सोमरस की भी व्यवस्था की गई थी। हमें बताया गया कि नॉनवेज खानेवालों के लिए नॉनवेज भी बनवाया जाता है। इसलिए हम दोनों के शाकाहारी होने की बात सुनकर हमारा होस्ट काफी निराश था।
बहरहाल, रात का सन्नाटा। और यह सन्नाटा आपकी कल्पना में उतरे किसी भी सन्नाटे से ज़्यादा रोमांचक था। छोटा सा रेत का द्वीप, उसके चारों ओर पूरे वेग से बहती नदी, नदी के चारों ओर अफ्रीका का घना जंगल, नदी के पानी में चमकतीं मगरमच्छ की आँखें, जंगल से आती शेर की आवाज़, चांदनी रात, तारों से भरा आकाश, सामने रखे तंदूरी आलू, हाथ में जाम और बराबर की कुर्सी ओर रखे सारेगामापा कारवां में किशोर दा का गीत- ये शाम मस्तानी...!
अगली सुबह खुली जीप में हम गेम रिज़र्व में दाखि़ल हुए। हमारा राइडर देव एक अफ्रीकी लड़का था, लेकिन उसका स्वभाव बेहद शालीन था। अंग्रेजी उसे समझ आती थी सो संवाद में कोई ख़ास समस्या नहीं हो रही थी। प्रवेश करते ही इम्पाला हिरणों का एक झुंड चौकड़ी भरते हुए हमारे सामने से गुज़रा। उसके बाद जिराफ़, ज़ेब्रा, जंगली सूअर, जंगली भैंसे, साँप, दरियाई घोड़े, सांभर, बंदर, लंगूर और मगरमच्छ देखते हुए तीन घण्टे का समय बीत गया। देव, मुख्य सड़क पर चल ही नहीं रहा था। ऊबड़-खाबड़ धरती पर उसकी लैंड-क्रूज़र शेर की तलाश में झाड़ियों को रौंदती हुई बढ़ रही थी। अचानक देव ने अपनी भाषा में कुछ कहा। उसके चेहरे की रंगत और आँखों की चमक बता रही थी कि हमारी तलाश ख़त्म होने को है। उसने एक छोटे से टीले के ऊपर गाड़ी चढ़ा दी। टीले के ऊपर एक पेड़ था, जिसकी छाया में पाँच शेरनियाँ आराम फरमा रही थीं। देव ने उनसे लगभग तीन फीट दूर गाड़ी रोक दी। अरुण जी और मैं इस खूबसूरत ख़तरे को निहारते रहे। हमने खूब फ़ोटो खींची। शेरनियों के साथ पोज़ बनाकर सेल्फियाँ भी लीं। ऐसा लगा मानो कोई संकल्प पूरा हो गया हो।
शेरनियाँ सुस्ती में सोती रहीं और हम आगे बढ़ गए। थोड़ी दूर पर हमें हाथियों का एक झुंड मिला। यह भी हमसे 10 फीट से ज़्यादा दूर नहीं था। गर्मी से मुक्ति पाने को हाथी अपने ऊपर पानी डालते रहे और हम आराम से उनकी वीडियो बनाते रहे। इसके बाद हमने एक ऐसी जगह पर खाना खाया जहाँ चारों ओर जिराफ़ ही जिराफ़ थे।
सुकून, रोमांच और आंनद जैसे शब्दों के सही मआनी क्या होते हैं; यह बताने में शायद मैं अभी पूरी तरह सफल न होऊँ, लेकिन जब कभी इन शब्दों के बारे में सोचता हूँ तो मेरी कल्पना रूफिजी के बीच बने उस रेतीले टापू पर पहुँचकर घने अंधेरे में गुम हो जाती है।

© चिराग़ जैन

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