कबिरा खड़ा बजार में, मांगे सबकी ख़ैर... अहा! इस पंक्ति को समझने का प्रयास व्यक्ति को कबीर होने का अर्थ बताता है। कबीर इस दोहे में बाज़ार में ही क्यों खड़े हैं? वे मंदिर-मस्जिद; घाट, चौपाल कहीं भी खड़े होकर सबकी ख़ैर मांग सकते थे। बल्कि मंदिर-मस्जिद में मांगना ज़्यादा सम्मानजनक प्रतीत होता। अक्सर बड़े-बड़े सम्मानितों को मंदिर-मस्जिद में मांगते देखा गया है। इसलिए कबीर को भी कुछ मांगना था, तो मंदिर-मस्जिद अधिक उपयुक्त स्थान रहता।
मंदिर-मस्जिद में मांगने का एक लाभ यह भी है कि वहाँ जिससे मांगने जाते हैं; वह किसी को यह नहीं बताने जाता कि अमुक मुझसे फलां चीज़ मांगने आया था। बाक़ी कहीं भी कुछ मांग के देख लेना। तुम्हें वह चीज़ मिले या न मिले, लेकिन तुम्हारी मंगताई का प्रचार ज़रूर हो जाएगा। ईश्वर-अल्लाह के पास इतनी फ़ुरसत ही नहीं है कि वे प्रचार में संलग्न हो सकें। वे तो भाँति-भाँति के मंगतों की दरख़्वास्त और शिक़ायतें निपटाने में ऐसे घिरे हैं कि शायद युगों-युगों से नज़रें उठाकर देख भी न सके हों, कि हमने उनकी दुनिया की सूरत क्या बना दी है।
लेकिन कबीर ने कुछ मांगने के लिए बाज़ार चुना। बाज़ार में मांगने का प्रावधान ही नहीं है। वहाँ तो छीना जा सकता है, ठगा जा सकता है, हड़पा जा सकता है... मांगने की परम्परा बाज़ार की पर्सनेलिटी को सूट नहीं करती। लेकिन कबीर ने उसी बाज़ार को मांगने के लिए चुना। और मांगा भी तो क्या... ‘सबकी ख़ैर!’ यह भी कोई मांगने की चीज़ है भला? लेकिन कबीर मांगते हैं। सर-ए-आम मांगते हैं।
यही कबीर होने का पहला सोपान है। यही कबीर होने की पहली शर्त है। कुछ ऐसा कर गुज़रना, जो परिपाटी ही नहीं है; कुछ ऐसा कर गुज़रना जिसका चलन ही नहीं है। परंपराओं को धता बताकर चलने का जीवट ही कबीर को कबीर बनाता है।
इसीलिए कबीर पहले ही कह देते हैं कि कबिरा खड़ा बजार में...! अब ‘कबीर’ महत्त्वपूर्ण हैं। कबीर बाज़ार को चेतावनी दे रहे हैं कि जो बाज़ार में खड़ा है वह ‘कबीर’ है। यदि इस पंक्ति में ‘बाज़ार’ को प्रमुख समझ लिया जावे तो कबीर को गौण होना पड़ेगा। इसलिए कबीर स्पष्ट कहते हैं कि अब बाज़ार में ‘कबीर’ खड़ा है। इसलिए बाज़ार को गौण होना होगा। अब बाज़ार में ‘सबकी’ ख़ैर मांगी जाएगी।
‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ -इस व्यक्तित्व के साथ ही कोई कबीर हो सकता है। और अपने भीतर के इसी कबीर को जीवित रखने में सफल होना किसी मनुष्य के मनुष्यत्व का द्विगुणित हो जाना सुनिश्चित कर देता है।
बाज़ार में प्रविष्ट होते ही ‘अर्थ’ मुखर हो जाता है। वहाँ पहुँचकर बड़े से बड़े फ़क़ीर भी व्यापारी होते देखे गए हैं। इसीलिए कबीर के पहले और कबीर के बाद किसी साधु-महात्मा-फ़क़ीर ने यह घोषणा नहीं की कि वह बाज़ार में खड़ा है। यह जोख़िम कबीर ही उठा सके। और कबीर भी यह जोख़िम इसीलिए उठा सके कि उन्होंने कभी स्वयं के फ़क़ीर होने की भी कोई घोषणा नहीं की।
यदि कबीर ने अपने आईकार्ड में ओक्यूपेशन ‘फ़क़ीर’ या ‘संत’ लिखवा लिया होता... तो वे भी अपने बाज़ार में खड़े होने का ऐसा ढिंढोरा न पीट पाते।
लेकिन कबीर तो कबीर थे। वे वैरागी होकर बाज़ार में खड़े नहीं हुए, बल्कि बाज़ार में खड़े होकर वैरागी हो गये। ...ना काहू से दोस्ती। कितने अनुभवी थे कबीर। बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में बताया कि उनकी किसी से दोस्ती भी नहीं है और वैर भी नहीं है। यदि वे आधी पंक्ति लिखकर छोड़ देते तो उसका इंटरप्रिटेशन ‘यूँ’ किया जा सकता था कि किसी से दोस्ती न होने का अर्थ है कि सबसे दुश्मनी है। जैसे हमसे कोई कहे कि वह झूठ नहीं बोलता... तो हम यह स्वयं अर्थ निकाल लेंगे कि वह सच बोलता है। लेकिन कबीर स्पष्ट करते हैं कि झूठ न बोलने का अर्थ सच बोलना नहीं है। किसी से दोस्ती न होने का अर्थ यह नहीं है कि किसी से वैर है या सबसे वैर है। दो विलोमार्थी शब्दों के मध्य भी एक भाव होता है। श्वास और उच्छ्वास के मध्य भी एक निर्वात होता है।
इस निर्वात पर खड़े होकर आप चाहे बाज़ार में जाएँ, मंदिर में जाएँ, मस्जिद में जाएँ, मसान में जाएँ, चाहे वेश्यालय में ही क्यों न जाएँ... यहाँ खड़े व्यक्ति से उसका व्यक्तित्व कोई नहीं छीन सकता। यहाँ खड़ा व्यक्ति अपने वातावरण को प्रभावित कर तो सकता है, किन्तु अपने वातावरण से प्रभावित हो नहीं सकता। यहीं खड़ा व्यक्ति सबकी ख़ैर मांग सकता है, बिना यह ध्यान किये कि उसके इस साहस से बाज़ार की परंपरा ध्वस्त हो रही है और बाज़ार पर शासन करने वाला ‘अर्थ’ कबिरा के शब्दों का ‘अर्थ’ बूझते हुए मुँह बाये खड़ा रह जाता है।
© चिराग़ जैन