Monday, October 25, 2021

बुजुर्गों का रुआब

अभी घर से निकला। एक बुज़ुर्ग महिला सड़क किनारे एक ट्री-गार्ड को पकड़कर खड़ी थी। उन्हें शायद किसी सोसाइटी में जाना था लेकिन बिना सहारे के चलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थीं और ट्री-गार्ड को पकड़े हुए आते-जाते लोगों की ओर कातर दृष्टि से निहार रही थीं।
सोसाइटी के बाहर इस समय बहुत तो नहीं, लेकिन थोड़ी चहल-पहल भी थी। पर अपनी-अपनी व्यस्तता लादे वहाँ से गुज़रनेवाला कोई शख़्स रुककर उस वृद्धा की सहायता न कर सका।
मैं फोन पर ऊबर वाले से कॉर्डिनेट कर रहा था। एक बार मैं भी अपनी कैब पकड़ने के चक्कर में उस कातर दृष्टि को अनदेखा करने की हिम्मत जुटा गया, लेकिन दो-तीन क़दम ही बढ़कर मुझे पलटना पड़ा।
मैंने उनकी ओर हाथ बढाते हुए धीरे से पूछा- ‘आंटी, कहीं छोड़ दूँ?’
उन्होंने मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही मेरी हथेली थाम ली और ट्री-गार्ड छोड़कर मेरी ओर बढ़ आईं। सामनेवाली सोसाइटी के गेट पर गार्ड ने उनका हाथ मेरे हाथ से अपने हाथ में लिया और मुझे कहा कि मैं अम्मा को घर छोड़ दूंगा, आप जाइये।
मैंने वृद्धा की ओर देखा तो उनके चेहरे की घबराहट एक आश्वस्ति में तब्दील हो चुकी थी। मैं आकर अपनी कैब में बैठ गया और सोचने लगा कि क्या कभी वह दुनिया वापस आएगी जब बुजुर्गों को सहायता के लिए कातर दृष्टि की नहीं, आवाज़ के रुआब का प्रयोग करना होगा।
मैंने यह घटना इसलिए नहीं लिखी कि मुझे स्वयं को महान सिद्ध करना है, बल्कि मैं अपने उन दो क़दमों के लिए स्वयं से मुख़ातिब हूँ, जो मैं अपनी व्यस्तता का बहाना करके बढ़ा चुका था।
हम सब अपनी व्यस्तताएँ ओढ़े हुए मनुष्यता की कातर दृष्टि से दो क़दम आगे बढ़ चुके हैं। यदि यहाँ से हम नहीं पलटे तो मनुष्यता किसी सड़क किनारे यूँ ही खड़ी रह जाएगी!

© चिराग़ जैन

Thursday, October 21, 2021

कबिरा खड़ा बजार में...

कबिरा खड़ा बजार में, मांगे सबकी ख़ैर... अहा! इस पंक्ति को समझने का प्रयास व्यक्ति को कबीर होने का अर्थ बताता है। कबीर इस दोहे में बाज़ार में ही क्यों खड़े हैं? वे मंदिर-मस्जिद; घाट, चौपाल कहीं भी खड़े होकर सबकी ख़ैर मांग सकते थे। बल्कि मंदिर-मस्जिद में मांगना ज़्यादा सम्मानजनक प्रतीत होता। अक्सर बड़े-बड़े सम्मानितों को मंदिर-मस्जिद में मांगते देखा गया है। इसलिए कबीर को भी कुछ मांगना था, तो मंदिर-मस्जिद अधिक उपयुक्त स्थान रहता।
मंदिर-मस्जिद में मांगने का एक लाभ यह भी है कि वहाँ जिससे मांगने जाते हैं; वह किसी को यह नहीं बताने जाता कि अमुक मुझसे फलां चीज़ मांगने आया था। बाक़ी कहीं भी कुछ मांग के देख लेना। तुम्हें वह चीज़ मिले या न मिले, लेकिन तुम्हारी मंगताई का प्रचार ज़रूर हो जाएगा। ईश्वर-अल्लाह के पास इतनी फ़ुरसत ही नहीं है कि वे प्रचार में संलग्न हो सकें। वे तो भाँति-भाँति के मंगतों की दरख़्वास्त और शिक़ायतें निपटाने में ऐसे घिरे हैं कि शायद युगों-युगों से नज़रें उठाकर देख भी न सके हों, कि हमने उनकी दुनिया की सूरत क्या बना दी है।
लेकिन कबीर ने कुछ मांगने के लिए बाज़ार चुना। बाज़ार में मांगने का प्रावधान ही नहीं है। वहाँ तो छीना जा सकता है, ठगा जा सकता है, हड़पा जा सकता है... मांगने की परम्परा बाज़ार की पर्सनेलिटी को सूट नहीं करती। लेकिन कबीर ने उसी बाज़ार को मांगने के लिए चुना। और मांगा भी तो क्या... ‘सबकी ख़ैर!’ यह भी कोई मांगने की चीज़ है भला? लेकिन कबीर मांगते हैं। सर-ए-आम मांगते हैं।
यही कबीर होने का पहला सोपान है। यही कबीर होने की पहली शर्त है। कुछ ऐसा कर गुज़रना, जो परिपाटी ही नहीं है; कुछ ऐसा कर गुज़रना जिसका चलन ही नहीं है। परंपराओं को धता बताकर चलने का जीवट ही कबीर को कबीर बनाता है।
इसीलिए कबीर पहले ही कह देते हैं कि कबिरा खड़ा बजार में...! अब ‘कबीर’ महत्त्वपूर्ण हैं। कबीर बाज़ार को चेतावनी दे रहे हैं कि जो बाज़ार में खड़ा है वह ‘कबीर’ है। यदि इस पंक्ति में ‘बाज़ार’ को प्रमुख समझ लिया जावे तो कबीर को गौण होना पड़ेगा। इसलिए कबीर स्पष्ट कहते हैं कि अब बाज़ार में ‘कबीर’ खड़ा है। इसलिए बाज़ार को गौण होना होगा। अब बाज़ार में ‘सबकी’ ख़ैर मांगी जाएगी।
‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ -इस व्यक्तित्व के साथ ही कोई कबीर हो सकता है। और अपने भीतर के इसी कबीर को जीवित रखने में सफल होना किसी मनुष्य के मनुष्यत्व का द्विगुणित हो जाना सुनिश्चित कर देता है।
बाज़ार में प्रविष्ट होते ही ‘अर्थ’ मुखर हो जाता है। वहाँ पहुँचकर बड़े से बड़े फ़क़ीर भी व्यापारी होते देखे गए हैं। इसीलिए कबीर के पहले और कबीर के बाद किसी साधु-महात्मा-फ़क़ीर ने यह घोषणा नहीं की कि वह बाज़ार में खड़ा है। यह जोख़िम कबीर ही उठा सके। और कबीर भी यह जोख़िम इसीलिए उठा सके कि उन्होंने कभी स्वयं के फ़क़ीर होने की भी कोई घोषणा नहीं की।
यदि कबीर ने अपने आईकार्ड में ओक्यूपेशन ‘फ़क़ीर’ या ‘संत’ लिखवा लिया होता... तो वे भी अपने बाज़ार में खड़े होने का ऐसा ढिंढोरा न पीट पाते।
लेकिन कबीर तो कबीर थे। वे वैरागी होकर बाज़ार में खड़े नहीं हुए, बल्कि बाज़ार में खड़े होकर वैरागी हो गये। ...ना काहू से दोस्ती। कितने अनुभवी थे कबीर। बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में बताया कि उनकी किसी से दोस्ती भी नहीं है और वैर भी नहीं है। यदि वे आधी पंक्ति लिखकर छोड़ देते तो उसका इंटरप्रिटेशन ‘यूँ’ किया जा सकता था कि किसी से दोस्ती न होने का अर्थ है कि सबसे दुश्मनी है। जैसे हमसे कोई कहे कि वह झूठ नहीं बोलता... तो हम यह स्वयं अर्थ निकाल लेंगे कि वह सच बोलता है। लेकिन कबीर स्पष्ट करते हैं कि झूठ न बोलने का अर्थ सच बोलना नहीं है। किसी से दोस्ती न होने का अर्थ यह नहीं है कि किसी से वैर है या सबसे वैर है। दो विलोमार्थी शब्दों के मध्य भी एक भाव होता है। श्वास और उच्छ्वास के मध्य भी एक निर्वात होता है।
इस निर्वात पर खड़े होकर आप चाहे बाज़ार में जाएँ, मंदिर में जाएँ, मस्जिद में जाएँ, मसान में जाएँ, चाहे वेश्यालय में ही क्यों न जाएँ... यहाँ खड़े व्यक्ति से उसका व्यक्तित्व कोई नहीं छीन सकता। यहाँ खड़ा व्यक्ति अपने वातावरण को प्रभावित कर तो सकता है, किन्तु अपने वातावरण से प्रभावित हो नहीं सकता। यहीं खड़ा व्यक्ति सबकी ख़ैर मांग सकता है, बिना यह ध्यान किये कि उसके इस साहस से बाज़ार की परंपरा ध्वस्त हो रही है और बाज़ार पर शासन करने वाला ‘अर्थ’ कबिरा के शब्दों का ‘अर्थ’ बूझते हुए मुँह बाये खड़ा रह जाता है।

© चिराग़ जैन

Wednesday, October 20, 2021

कविता बुन लेता हूँ

शोर-शराबे में भी दिल की धड़कन सुन लेता हूँ
यूँ कविता बुन लेता हूँ

इस दुनिया के छोटे-छोटे हिस्से घूम रहे हैं
लोग नहीं हैं, दो पैरों पर किस्से घूम रहे हैं
होंठों पर मुस्कान दिखी, मस्तक ग़मगीन दिखे हैं
हर चेहरे को पढ़कर देखो, कितने सीन लिखे हैं
इस सारी सामग्री में से मोती चुन लेता हूँ
यूँ कविता बुन लेता हूँ, यूँ कविता बुन लेता हूँ

देह भले ठहरी है लेकिन मन में चहल-पहल है
मौन धरा है अधरों पर और भीतर कोलाहल है
जिन आँखों में झाँका, उनमें ही संवाद भरा है
जो जितना चुप, उसमें उतना अनहद नाद भरा है
इस सरगम से मैं अपने गीतों की धुन लेता हूँ
यूँ कविता बुन लेता हूँ, यूँ कविता बुन लेता हूँ

मीठी यादों के तकिये पर सिर रखकर सोती है
मन पिघले तो दो आँखों की कोरों को धोती है
ठिठकी हुई खड़ी मिलती है किसी नदी के तीरे
कभी स्वयं ही चलकर आती, मुझ तक धीरे-धीरे
दो शब्दों के बीच जड़ी चुप्पी को सुन लेता हूँ
यूँ कविता बुन लेता हूँ, यूँ कविता बुन लेता हूँ

© चिराग़ जैन

Saturday, October 16, 2021

अनवरत साधना

कवि-सम्मेलन करते हुए दो दशक बीत गये, इन दो दशकों में जिन लोगों को पूंजी की तरह कमाया, उनमें से एक नाम है श्री अमीरचन्द जी का। यह नाम मेरे जीवन में एक ऐसा अध्याय है, जिससे मैंने समर्पित होकर अनवरत साधनारत रहना सीखा। क्रोध तथा मान-अपमान के चिन्तन से विलग रहते हुए अनवरत सामाजिक जीवन कैसे जिया जाता है, यह मैंने अमीरचन्द जी से सीखा।
उनके साथ बिताये हर पल में मैं किसी पाठशाला से गुज़रने जैसा महसूस करता रहा। आज अचानक मेरे जीवन की यह जीवन्त पाठशाला हमेशा के लिये बन्द हो गयी। उफ़! यह अहसास ही कितना हृदय-विदारक है कि अब अमीरचन्द जी कभी नहीं मिलेंगे। खाने की टेबल से लेकर प्रवास तक, उनके पास सुनाने के लिए हमेशा कोई न कोई क़िस्सा ज़रूर होता था। उस क़िस्से की भूमिका बनाते हुए वे एक ब्लॉग का ज़िक्र करते थे कि मेरा एक ब्लॉग है, ‘मेरा गाँव मेरा देश’.... एक दिन मैंने इंटरनेट पर ख़ूब सर्च किया लेकिन मुझे अमीरचन्द जी का ऐसा कोई ब्लॉग नहीं मिला। बाद में पता चला कि जब कोई बैठक या बातचीत विषय से भटकने लगती थी, तो उसे वापस विषय पर लाने के लिए वे इस काल्पनिक ब्लॉग का सहारा लेते थे। ऐसा कोई ब्लॉग न कभी था, न होगा। और जिन क़िस्सों को वे सुनाते थे, वे वहीं उपजकर वहीं समाप्त भी हो जाते थे।
अनुभवों का एक पूरा ग्रंथ थे अमीरचन्द जी। सुबह, दोपहर, रात... हमेशा कार्यरत। जैसे ज़िन्दगी के एक-एक पल को सदुपयोग कर लेने की शर्त लगा रखी हो। ...अब वे निष्क्रिय हैं।
उन्हें याद करते हुए आज आँखें भीग गयी हैं। अनेक विषयों पर मेरा उनसे मतभेद रहता था, लेकिन फिर भी वे किसी श्रेष्ठ अभिभावक की तरह हमेशा मुझे अपने साथ कर लेते थे। मैं कभी उन्हें बता ही नहीं पाया कि मैं उनसे प्रेम भी करता हूँ और सम्मान भी।
मई-जून के बाद से उनसे मिला नहीं था.... और अब कभी मिल भी नहीं पाऊंगा।
आज डॉ. संध्या गर्ग की एक क्षणिका अमीरचन्द जी सरीखे व्यक्तित्व पर सटीक जान पड़ती है-
किसी ने बताया
कि आज शाम को 
उन्होंने अन्तिम साँस ली
मैंने सोचा- 
‘चलो, 
उन्होंने साँस तो ली।’

Monday, October 11, 2021

हरिया और आमबाग़

किसी गाँव में आम का एक पुराना बाग़ था। बाग़ में आम के सैंकड़ों पेड़ थे। लेकिन बाग़ पर किसी की कोई मिल्कियत नहीं थी। जब आम की ऋतु आती थी तो इन पेड़ों पर ख़ूब आम लगते। गाँव के शरारती लड़के, आम से लदी डालियों को बेरहमी से नोच डालते। 
जिसका एक पिता नहीं होता, उसकी सफलता पर उसके अनेक बाप पैदा जाते हैं। यही इस आमबाग़ की स्थिति थी। फल लगने पर पूरा गाँव इस बाग़ के फल खाता, लेकिन इसकी देखभाल करने कभी कोई नहीं आता।
मुद्दतों से बेचारा बाग़ स्वयं ही अपनी देखरेख कर रहा था। फल के मौसम में जो आम स्वतः धरती पर गिर जाते, वे अपने आप ही बरसात के पानी के भरोसे पनप जाते थे। इस तरह बाग़ में नये वृक्ष उगते रहते थे। हाँ, यदि कभी कोई वृक्ष बीमार हुआ तो वह भी इलाज न मिलने के कारण अपने आप ही ठूठ में तब्दील हो गया।
निराई और सफाई के अभाव में बाग़ में उगी खरपतवार भी स्वयं को वृक्ष समझने लगी थी। एक दिन गाँव के एक युवक, हरिया ने इस बाग़ के प्रति कृतज्ञताज्ञापन करने की सोची। उसने स्वतः सिंचित इस बाग़ में सिंचाई के लिए ट्यूबवेल लगवाया। दिन-रात परिश्रम करके निराई, सफाई और छँटाई शुरू की।
लावारिस आम के पेड़ों को इस तरह सँवारते देखा तो गाँववालों ने हरिया पर यह आरोप लगाना शुरू किया कि यह बाग़ पर कब्ज़ा करना चाहता है। इस आरोप की परवाह न करते हुए कर्मठ हरिया खरपतवार हटाते हुए आम के पेड़ों की दशा सुधारने में रत रहा।
कभी किसी ने सरकारी दफ़्तर में जाकर उसकी शिक़ायत की, तो वह कलेक्टर ऑफिस में जाकर अपनी नीयत का स्पष्टीकरण दे आया। किसी ने गाँव के बुजुर्गों को उसके खि़लाफ़ भड़काने का प्रयास किया तो बुज़ुर्ग बाग़ पर आ पहुँचे, लेकिन उसकी लगन और मेहनत देखकर उसे चेतावनी की बजाय शाबासी देकर लौट गये।
हरिया इतने बड़े बाग़ में अकेला जुटा रहा। ज्यों-ज्यों बाग़ की दशा सुधरने लगी, त्यों-त्यों गाँव का एक तबका हरिया की प्रशंसा भी करने लगा। लेकिन बाग़ की डालियाँ नोचनेवाले शरारती लड़कों का अब बाग़ में मनमाना प्रवेश अवरुद्ध हो गया। उधर जो खरपतवार स्वयं को बाग़ का हिस्सा समझने लगी थी, उसे हरिया ने जड़ से उखाड़कर बाग़ से बाहर फेंकना शुरू कर दिया।
आजकल खरपतवार और शरारती लड़कों ने हरिया के विरुद्ध अभियान छेड़ रखा है। मालिकाना हक़ की अफ़वाह झूठ साबित हो जाने के बाद गाँव के लड़के गाँववालों को यह कहकर भड़का रहे हैं ...कि हरिया ने बाग़ के आम खाने के लिए यह सब काम शुरू किया है। ...कि हरिया बाग़ की देखभाल करने के बहाने धंधा कर रहा है।
उधर, बाहर पड़ी खरपतवार उन पेड़ों के कान भर रही है, जो अभी हरिया की साफ-सफाई के दायरे में नहीं आ सके हैं।
गाँव के बुजुर्ग हरिया के अनवरत श्रम में बाग़ का सुव्यवस्थित भविष्य देख पा रहे हैं, लेकिन ज़मीन का शोषण करनेवाली खरपतवार और डालियों को नोचनेवाले अमानुष, हरिया से नाराज़ हैं। उन्हें यह बात समझ ही नहीं आ रही कि आम खाने के लिए किसी को बाग़ में पसीना बहाने की ज़रूरत नहीं थी। यदि हरिया यह सफाई अभियान न छेड़ता, तब भी वह बाग़ के फल तो खा ही रहा था।
हरिया ने बचपन से सुना है कि भले का अंत भला ही होता है, उपद्रवियों ने सुन रखा है कि बार-बार बोला गया झूठ, एक दिन सच साबित हो जाता है। इन दोनों तथ्यों के बीच, हरिया अनवरत आम के पेड़ों को दुलार रहा है। बाग़ हरिया के प्रति कृतज्ञ तो है, लेकिन उस खरपतवार से निगाह नहीं हटा पा रहा है, जो रह-रहकर जड़ों के रास्ते बाग़ में घुसने की जुगत लगाती रहती है। 

© चिराग़ जैन

Tuesday, October 5, 2021

चौर्य प्रवृत्ति

आज पुनः अनुरोध कर रहा हूँ कि किसी रचनाकार की रचना अथवा उसकी रचना का कोई अंश सोशल मीडिया पर पोस्ट करते समय रचनाकार का नाम अवश्य लिखें।
ऐसा न करने की स्थिति में निम्नलिखित स्थितियां उत्पन्न होती हैं :
1) रचना अनाथ हो जाती है, और लोग उसे सोशल मीडिया की रचना कहने लगते हैं। मूल रचनाकार अपनी ही रचना को सुनाते हुए चोर कहलाने लगता है।
2) कोई अन्य व्यक्ति उस अनाथ रचना को अपने नाम से सुनाने या पोस्ट करने लगे तो मूल रचनाकार उसे अपनी सिद्ध करने में थक जाता है।
फेसबुक पर यह विषय कई बार उठाया है लेकिन लोग ज्ञान देते हैं कि अगर कोई आपकी रचना शेयर कर रहा है तो आपको ख़ुशी होनी चाहिए। उल्टे हमें बताया जाता है कि अपनी रचना को अपनी कहने की जो कोशिश हम कर रहे हैं वह हमारी छोटी सोच की परिचायक है।
सो महान सोच वाले इन लोगों से यही कहना चाहूंगा कि रचनाकार की रचना उसकी सन्तान की तरह होती है। यदि किसी के बालक सुन्दर हैं तो उन्हें प्यार करने का हक़ पूरे गाँव को होता है, लेकिन उनका अपहरण कर लेने का अधिकार किसी को नहीं है।
सोशल मीडिया की इन्हीं प्रवृत्तियों का लाभ उठाकर कुछ चोर कवियों ने ख़ूब प्रसिद्ध पंक्तियों को भी जस का तस या एकाध शब्द बदलकर अपने नाम से पोस्ट करने की सिरीज़ चला रखी है। यदि पुण्य-पाप होते हैं तो इन सब चोरियों का पाप उनके खाते में जाएगा, जो किसी की रचना उद्धृत करते समय रचनाकार का नाम लिखना/बोलना आवश्यक नहीं समझते।
इस स्थिति के सुधार के लिए निम्न दो क़दम उठाए जा सकते हैं
1. कोई भी ऐसा मेसेज फॉरवर्ड न करें, जिसमें रचनाकार का नाम न लिखा हो।
2. यदि कहीं किसी जगह ऐसी प्रवृत्ति दिखे तो उसके कमेंट बॉक्स में मूल रचनाकार का नाम अवश्य लिख कर आएं।
सोशल मीडिया की चौर्य प्रवृत्ति को इतना न बढ़ने दें कि मौलिक रचनाकार अपनी पंक्तियाँ पोस्ट करना बन्द कर दें।

~चिराग़ जैन

Monday, October 4, 2021

भयभीत मोड के जीव

मोबाइल फोन की तरह मन भी अलग-अलग परिस्थिति में अलग-अलग मोड पर सैट हो जाता है। सम्भवतः मनोविज्ञान में इसी को मूड कहा जाता हो।
कभी हम बहुत ख़ुश होते हैं, मतलब हम हैप्पी मोड में हैं। ऐसे ही सैड मोड, कन्फ्यूज़्ड मोड और एंग्री मोड भी हम सबके भीतर ऑन-ऑफ होते रहते हैं। यह सहज मानवीय स्वभाव भी है। लेकिन कुछ लोग पूरा जीवन एक ही मोड में बिता देते हैं। इनके सॉफ्टवेयर में बाक़ी किसी मोड पर जाने की वायरिंग ही नहीं होती। आप किसी भी परिस्थिति का वायर छू दो, वह उनके फिक्स मोड को ही पॉवर सप्लाई करेगा।
ऐसा अक्सर भयभीत मोड और चिड़चिड़ा मोड के लोगों के साथ होता है। चिड़चिड़ा मोड के व्यक्ति हमेशा चिड़चिड़ाहट के अलंकार से अपना चेहरा सजाए रखते हैं। जिनका ऊपर का ओंठ कुछ शूकराकार होता हुआ ऊपर उठा रहता है और नासिका के मध्यभाग को सिकोड़ने की कवायद में दोनों नथुने भैंसे के नथुनों से प्रतियोगिता करते रहते हैं। चूँकि भैंसा कभी-कभी थकता भी है, इसलिए वह वर्ष में तीन-चार बार इनसे हार जाता है। इस विजय से इनकी चिड़चिड़ी शिराओं में प्रसन्नता की जो ऊर्जा प्रवाहित होती है, वह भी अंततः चिड़चिड़ाहट में ही परिणत हो जाती है।
लगभग यही स्थिति भयभीत मोड के मनुष्यों की होती है। वे किसी भी बात से भयभीत हो सकते हैं। बल्कि यूँ कहिये कि वे बिना बात के ही भयभीत रहते हैं। आप उनको सामान्य फोन मिलाकर दीपावली की बधाई दें। वे तुरन्त भयभीत हो जाएंगे कि आपको उनसे क्या लोभ है जो आप उन्हें बधाई देने के लिए फोन कर रहे हैं? आप उनकी प्रशंसा करो तो वे भयभीत होकर आपकी प्रशंसा में षड्यंत्र सूंघने लगेंगे। आप उनकी प्रशंसा न करो तो वे आपके भीतर ईर्ष्या के समंदर देख लेंगे।
इनकी स्थिति उस मुर्गे की तरह होती है जो जन्मते ही यह मान बैठता है कि उसका जन्म केवल कटने के लिए हुआ है। इस महान विचार को स्वीकार करने के बाद वह जीवन भर डॉक्टर और कसाई के बीच भेद कर पाने की क्षमता गँवा बैठता है।
संदेह इनकी धमनियों में अनवरत दौड़ता रहता है। इनकी धड़कनों से अहर्निश ‘सावधान-सावधान’ की प्रतिध्वनि मुखरित होती है। सड़क पर चलते हुए दो व्यक्ति यदि हँसते हुए दिख जाएँ तो ये कल्पनाशीलता का प्रयोग करके उनकी सामान्य हँसी को पहले ठहाका और फिर राक्षसी अट्टहास बना लेते हैं। फिर वे दोनों अनजान मनुष्य इन्हें लुटेरे लगने लगते हैं।
इनकी यह असीम प्रतिभा इन्हें कभी चैन से सोने नहीं देती। ये भी किसी तपस्यारत योगी की तरह पूरा जीवन अपनी भय के कबूतर का अपने हृदय के भीतर ही पोषण करते रहते हैं। यदि कभी कोई प्रसन्नता, मेनका बनकर इनकी साधना भंग करने का प्रयास करे तो ये अपने क्रोध की अग्नि से उस प्रसन्नता को उत्पन्न करनेवाले का सुख-चैन भस्म कर देते हैं।
इस मोड के लोगों में यदि ग़लती से स्वयं को समझदार समझने की पैन ड्राइव और लग गयी तो फिर तो इनका पूरा सिस्टम डिस्को करने लगता है। पैन ड्राइव का प्रभाव इनसे समझदार होने का अभिनय करवाता है और इनकी नैसर्गिक मेधा रह-रहकर इनके पर्यायवाची में लगी ‘ऊ’ की मात्रा को लम्बा करती रहती है। अब इनका भय झुंझलाहट के सिंगार से युक्त हो जाता है। झुंझलाहट इसलिए कि पैनड्राइव लगाने के बावजूद कोई इन्हें समझदार मानने को तैयार नहीं होता और ये स्वयं को समझदार मान चुके होते हैं।
इन विरोधाभासी मान्यताओं के बीच ये बेचारे समझदारी के अभिनय का अनुपात बढ़ाते हुए लोगों से सौहार्दपूर्ण व्यवहार का अतिरिक्त प्रयास करने लगते हैं। अपने भयभीत विवेक से ये जिसे ‘सफल’ मान रहे होते हैं, उसकी तरह बैठने लगते हैं, उसकी तरह बोलने का प्रयास करते हैं; लेकिन ज्यों ही कोई इनके अभिनय को सत्य समझकर इनकी समझदारी की प्रशंसा कर देता है, तो इनकी नैसर्गिक प्रतिभा तुरन्त प्रकट हो जाती है और वह उस प्रशंसा में षड्यंत्र सूंघने लगती है।
काश अपनी असुरक्षा-ग्रंथि को पुष्ट करने की बजाय कभी ये लोग यह स्वीकार कर सकें कि हमारे पास है ही क्या जो कोई हमसे छीन लेगा...! काश ये लोग समझ सकें कि ख़ुश रहना बहुत बड़ी कला है, और इस कला पर हर प्रकार का भय स्वाहा किया जा सकता है।

© चिराग़ जैन

ज़ाकिर हुसैन कष्ट में हैं

25 जनवरी का दिन था। उस दिन अमेरिकी राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा को गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि के तौर पर भारत आना था। सुबह-सुबह हमारी मुंबई से दिल्ली की फ्लाइट थी। वीवीआईपी मूवमेंट के कारण हमारी फ्लाइट को जयपुर उतार दिया गया। हालाँकि मेरे लिए यह सुखद रहा क्योंकि मेरा उस दिन का कार्यक्रम लक्ष्मणगढ़ में था, और जयपुर से वहाँ पहुँचना ज़्यादा आसान था। लेकिन ज़ाकिर हुसैन साहब और हरिहरन साहब का कार्यक्रम दिल्ली में था। फ्लाइट डायवर्ट होने के कारण हुई परेशानी के माहौल में ज़ाकिर साहब हमसे नाराज़ होकर दूर इसलिए खड़े हैं कि एक को अपने शब्द ढोने हैं, एक को अपने सुर ढोने हैं। कष्ट में तो अकेले वे हैं जो तबला लेकर दिल्ली तक जाएंगे।

Saturday, October 2, 2021

निकुंज शर्मा

हिन्दी कवि सम्मेलन जगत् ने यश तथा संतुष्टि के साथ मुझे कुछ अनमोल रिश्ते भी दिए हैं। आज से लगभग आठ-नौ साल पहले रीवा कवि सम्मेलन में जाते हुए अनामिका अम्बर के साथ एक बालक से भेंट हुई थी। उस समय तुकबंदियों को कविता माननेवाला वह युवा, आज मेरे सर्वाधिक प्रिय गीतकारों में से एक है। कई बार तो वह इतना श्रेष्ठ लिखता है कि मेरे लिए अनुकरणीय हो जाता है।
मुझे नहीं पता कि शोर-शराबे के इस दौर में इस युवक को कितनी पहचान मिल सकेगी। लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूँ कि यदि नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सुननेवाले कुछ एक कान भी शेष रहेंगे तो निकुंज शर्मा के गीतों की गूंज अनहद नाद से एकाकार होने का सामर्थ्य प्राप्त कर सकेगी।
यदि आप अपने व्हाट्सएप और फेसबुक पर चलताऊ शब्दाडंबरों के बीच शुद्ध गीत तलाशते हैं तो एक बार निकुंज के कुंजवन का विचरण अवश्य करना; मेरा वायदा है कि आपकी संवेदनाओं की साँस-साँस महक उठेगी।
वह अधरों से बाँसुरी में भी संगीत भरना जानता है और उंगलियों से गिटार को भी झंकृत कर देता है। अपने भीतर के कबीर को पोषित करने के लिए वह अपने जीवन की समस्याओं को खाद बना लेता है। मैं निकुंज से मिलता हूँ तो लगता है कि एक सम्पूर्ण कलाकार से मिल रहा हूँ।
आज अचानक यह सब इसलिए लिख रहा हूँ कि आज मेरे इस प्रिय गीतकार का जन्मदिन है।
ईश्वर तुम्हारी प्रतिभा को प्रतियोगिता के अभिशाप से बचाए रखे! ईश्वर तुम्हारी सृजनात्मकता को साधना के आभूषण पहनाए!

Friday, October 1, 2021

अराजकता को साधुवाद

‘नो एफआईआर, नो इन्वेस्टिगेशन, नो चार्जशीट, फैसला ऑन द स्पॉट...’ -ऐसे संवाद फिल्मों में तो बहुत अच्छे लगते हैं, लेकिन असल ज़िन्दगी में इस डायलॉग पर काम करनेवाले कार्यपालक निरंकुश हो जाते हैं।
यह सत्य है कि भारतीय न्याय प्रक्रिया की धीमी गति और लचर व्यवस्था का ही दुष्प्रभाव है कि ‘फ़ैसला ऑन द स्पॉट’ जैसे अराजक संवाद इस देश में ‘लोकप्रिय’ हो जाते हैं। पुलिस की वर्दी पहनकर भी क़ानून को ताक पर रखनेवाले पुलिसवालों को हमने ‘दबंग’; ‘सिंघम’; ‘सिमबा’ और ‘पुलिसगिरी’ जैसी फिल्मों में अराजक होते देखा तो हमने यह कहकर स्वयं को संतुष्ट कर लिया कि इस देश में अपराधियों का यही इलाज है।
यदि डॉक्टर अयोग्य होगा तो कंपाउंडर के हाथ में सर्जिकल नाइफ़ सौंप देंगे क्या? डॉक्टर को कर्मठ और सक्षम बनाने की बजाय हम कंपाउंडर के ऑपरेशन करने को तो जस्टिफाई नहीं किया जा सकता ना! निरंतर डॉक्टरों के साथ रहने का कारण, ऑपरेशन थियेटर में आने-जाने के कारण वार्ड बॉय भी शल्य चिकित्सा की शब्दावली सीख जाता है, लेकिन उसे किसी की सर्जरी करने को तो नहीं कहा जा सकता ना!
न्यायालय किसी लोकतंत्र के शल्य चिकित्सक हैं और पुलिसकर्मी इस अस्पताल का नॉन मेडिकल और पैरा मेडिकल स्टाफ। अस्पताल की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए यह स्टाफ बहुत आवश्यक है, किन्तु सामान्य बुखार में भी कोई टेबलेट लिखने की छूट इस स्टाफ को नहीं दी जा सकती।
हैदराबाद में जब पुलिस ने बलात्कार के आरोपियों का एनकाउंटर किया था तो लोगों को तालियाँ पीटते देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था। मैं यह नहीं जानता कि वह एनकाउंटर झूठा था या बनावटी। लेकिन उस घटना पर पुलिस की पीठ थपथपाने वाले यह ज़रूर मानते थे कि पुलिस ने एनकाउंटर का नाटक करके आरोपियों की हत्या की है। यदि वह एनकाउंटर सत्य भी रहा हो तो भी इलाज के लिए वार्ड से ऑपरेशन थियेटर में ले जाते समय यदि किसी मरीज़ की मौत हो जाए तो उसका श्रेय अथवा दोष वार्ड बॉय को कैसे दिया जा सकता है?
उस दिन हैदराबाद की घटना पर जो सोशल मीडिया ट्रोलिंग हुई थी वह इस देश की संवैधानिक तथा न्यायिक व्यवस्था पर सबसे बड़ा कुठाराघात था। उसके बाद विकास दुबे प्रकरण, फिर मृतका के घरवालों को घर में बंद करके आधी रात को पेट्रोल डालकर शवदाह करने की घटना या कोई भी अन्य नागरिक... ये सब घटनाएँ उस अराजकता का एक झरोखा है, जो हमारे समाज में मूर्खतापूर्ण महत्वाकांक्षाओं के हाथों बोई जा रही है।
मरनेवाले को हिन्दू अथवा मुस्लिम के स्थान पर इस देश के एक नागरिक के रूप में देखेंगे तो आप स्वीकार कर सकेंगे कि उसे अदालत में अपना पक्ष रखने का अवसर मिलना चाहिए था। जिन फिल्मों में हमने पुलिसिया गुंडागर्दी पर तालियाँ बजाई हैं, उन्हीं फिल्मों से यह भी सीखा जा सकता है कि कई बार परिस्थितियाँ और इत्तेफ़ाक किसी निर्दाेष को संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर देते हैं। अदालतें इसी संदेह की पड़ताल करने का माध्यम हैं।
मैं फिर दोहरा रहा हूँ कि न्याय व्यवस्था को आत्मावलोकन करके अपनी गति तथा कार्यप्रणाली को सुधारने की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन जब तक यह काम न हो तब तक भी न्यायालय का विकल्प थाना नहीं हो सकता।
भारतीय लोकतंत्र की एक इकाई होने के नाते प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह व्यवस्था का सम्मान करे। अराजकता किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। व्यवस्था में कोई ख़ामी आई तो उसे सुधारा जा सकता है किंतु अराजकता का चेहरा समाजसेवा, राष्ट्रहित और समाजहित से हू-ब-हू भी मिलता हो तो भी उसके निरंकुश होने की शत-प्रतिशत गारंटी होती है।
आशा है कि भविष्य में किसी कम्पाउंडर को सर्जरी करते देखेंगे तो कम से कम हम तालियाँ तो नहीं पीटेंगे; क्योंकि अगली बार ऑपरेशन टेबल पर हम भी हो सकते हैं।

© चिराग़ जैन