Sunday, May 29, 2022

इधर भी है उधर भी

कुर्सी का घमासान इधर भी है, उधर भी 
दो लोगों का गुणगान इधर भी है, उधर भी 

जो डेडिकेट है वो सिर्फ झंडे उठाए 
दल बदलुओं का मान, इधर भी है उधर भी 

जो हाँ में हाँ मिलाए, वही पद पे रहेगा 
सच कहने में नुक़सान इधर भी है, उधर भी

किस्मत न बदल पाओ तो क्यों दल बदल रहे 
सिद्धू तो परेशान इधर भी है उधर भी 

मुफ्ती, पंवार, ठाकरे, अखिलेश या जयंत 
पंजे के संग कमान इधर भी है, उधर भी 

शाहों की ख्वाहिशों पे ही प्यादे निसार हों 
ये खेल का विधान, इधर भी है उधर भी

जिसकी भी घुड़चढ़ी हो वहीं नाच रहे हैं 
दो-चार पासवान इधर भी हैं, उधर भी 

मैं जिनके साथ हूँ वही ईमानदार हैं 
सिब्बल का ये बयान इधर भी है, उधर भी 

~चिराग़ जैन 

Tuesday, May 17, 2022

घूमर की धुन पर बीहु


दो दिन प्रकृति की गोद में रहकर अब दिल्ली लौट रहा हूँ। ग्रीष्म ऋतु के जिस प्रकोप में दिल्ली से उड़ान भरी थी, उसके परिप्रेक्ष्य में डिब्रूगढ़ उतरते हुए स्वर्ग की अनुभूति हो रही थी। 
पायलट ने लैंडिंग की घोषणा की और हमारा विमान घने बादलों के साम्राज्य में प्रविष्ट हो गया। खिड़की के बाहर बारिश की बूंदों ने अठखेलियाँ शुरू कर दी थी। वैभवशाली मेघों को पार कर ज्यों ही हमें धरती दिखाई दी तो ऐसा लगा ज्यों अचानक किसी ने आँखों में हरा रंग भर दिया हो। रिमझिम बरसात में पुलकता हुआ डिब्रूगढ़ शहर किसी सृजनशील चित्रकार की पेंटिंग जैसा जान पड़ता था। 
जहाज के पहियों ने टच डाउन पॉइन्ट को स्पर्श किया तो गति से उत्पन्न उष्मा ने भीगी हुई धरती में समाकर पानी की फुहारों का एक धुआँ सा उत्पन्न कर दिया। ऐसा लगा ज्यों आसमान का कोई बादल जहाज के किसी पेंच में अटक गया हो, जो अचानक धरती पर गिरने के झटके से छुटकारा पा रहा हो।  
हम भी भौतिक वायुयान से उतर कर मन को उड़न खाटोला बनाने के लिए हवाई अड्डे से बाहर आ गए। बाहर सुमित खेतान जी हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। एयरपोर्ट परिसर से बाहर निकलते ही चाय के बागान सड़क के दोनों ओर बिछने लगे। नहा-धोकर भीगी खड़ी चाय की हरियाली इतनी ख़ूबसूरत हो गयी थी कि बादल रह-रहकर बरखा का वेश बनाकर चाय की पत्तियों को चूमने का बहाना ढूंढता दिखा। प्रेम की इन पसीजी हुई शरारतों में सड़क शर्म से पानी-पानी हुई जाती थी। लहराती हुई सड़क पर हमारी गाड़ी किसी रोमांटिक स्पर्श की तरह दौड़ी चली जाती थी।  
असमिया संस्कृति में साफ़-सफाई और सौंदर्यबोध को खासा स्थान प्राप्त है इसीलिए अनवरत हरे रंग के बीच जहाँ कहीं कोई घर दिखाई देता तो उसका रंग विधान बचपन के खिलौने जैसा आकर्षित करता था। रास्ते की इस ख़ूबसूरती को आँखों में भरते हुए हम तिनसुकिया पहुँच गए। 
आयोजन मंडल के सदस्यों का व्यावहार कंचन में सुगंध का प्रतिमान बन रहा था। उत्तर भारत के शेष क्षेत्र की अपेक्षा इस क्षेत्र में सूर्य काफी पहले उग जाता है इसलिए सूरज की ड्यूटी के घण्टे भी शाम 4-5 बजे तक समाप्त होने लगते हैं। इस स्थिति के कारण कवि-सम्मेलन का समय भी जल्दी का ही था। शहर के एक शानदार हॉल में कवि-सम्मेलन हुआ। हम पाँच कवियों के लिए ढाई घण्टे का कार्यक्रम तय था लेकिन साढ़े तीन घण्टे बाद भी सायास कवि-सम्मेलन समाप्त करना पड़ा। श्रोताओं ने सेल्फियाँ खिंचवाते समय यह सुखद शिकायत की कि मन नहीं भरा!
सफल कार्यक्रम से ऊर्जा द्विगुणित करके भोजन आदि के बाद हम सो गए और अगली सुबह जब आँख खुली तो देखा कि कोई मेरे कमरे की खिड़की पर बूंदों से म्यूरल पैटर्न की चित्रकारी कर गया था। बादलों ने सूर्य की किरणों का रास्ता रोक रखा था लेकिन उजाला, शीशे पर बिखरी बूंदों को यह संदेश सुना रहा था कि दिन निकल आया है। 
बिस्तर पर अलसाया हुआ मैं प्रकृति के इस संचार को भोग ही रहा था कि फोन की घंटी मुझे भौतिक जगत् में लौटा लाई। 
मनोज मोदी जी का फोन था कि होटल से अशोक बाज़ारी 
जी के घर नाश्ता करके, वहीं से घूमने निकलना है। मैं जल्दी से तैयार होकर लॉबी में आया तो दिनेश बावरा पहले से गाड़ी में बैठे थे। वे पर्यटन पर नहीं जा रहे थे ब्लकि नाश्ता करके सीधे एयरपोर्ट की ओर निकलने वाले थे। भुवन मोहिनी जी की फ्लाइट दोपहर में थी इसलिए वे भी थोड़ी देर घूम फिर कर प्रस्थान करने वाली थीं।  
मैं पिछले दो महीने में तीसरी बार इस क्षेत्र में आया था और यहां के मौसम और सौंदर्य से आकृष्ट था इसलिए सोच-समझकर इस बार पर्यटन का प्लान बनाकर आया था। 
अशोक जी के घर बेहतरीन मारवाड़ी नाश्ता करने के बाद मोदी जी मुझे, भुवन को और बाबू जी को अपने घर ले आए। मोदी जी का घर एक अच्छा ख़ासा बंगला है। बाहर गार्डन में सुपारी और आम जैसे वृक्षों के साथ एक मुकम्मल किचन गार्डन था। बरसात लगातार जारी थी सो मौसम और मौके का सम्मान करते हुए मोदी जी ने हमें अपने गार्डन के भुट्टे खिलाए। फिर हमने उनके ख़ूबसूरत बगीचे में खूब फोटोग्राफ़ी की।
यहाँ से हम एक चाय बागान की ओर चले। ढाई फुट के चाय के पौधों की सलीके से लगी हुई क्यारियों के बीच हमने ख़ूब मस्ती की। मैंने चाय की शायरी का प्रयोग करते हुए चाय के महत्व पर एक वीडियो बनाया। अनियोजित वीडियो में सद्य बोला गया वॉयस ओवर चाय पर एक बेहतरीन ललित निबंध जैसा बन गया। 
घड़ी देखी तो भुवन मोहिनी जी को फ्लाइट का टाइम ध्यान आया। बेमन से उन्हें पर्यटन का सुख छोड़कर प्रस्थान करना पड़ा। उनके रवाना होने पर हम मनोज मोदी जी के साथ अरुणाचल प्रदेश के लिए निकल गए। तिनसुकिया से बाहर आते-आते हम एक ऐसी सड़क पकड़ चुके थे जिसके एक और रेल लाइन थी और दूसरी ओर जंगल। जहाँ कहीं बस्ती दिखाई देती वहां जंगल कुछ पीछे चला जाता था लेकिन रेल लाइन ने सड़क का साथ नहीं छोड़ा। 
पचास किलोमीटर के करीब इस अलौकिक सौंदर्य को निहारते हुए हम अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर पहुंच गए। अरुणाचल में देश के अन्य भागों की तरह फ्री एंट्री नहीं है। इस राज्य में प्रवेश करने के लिए अनुमति की कुछ औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ती हैं। मोदी जी गाड़ी से उतरकर यह प्रक्रिया पूरी करके आए और हम सूर्योदय के प्रदेश में प्रविष्ट हो गए। नाप-तोल कर बनाई गई सड़क के दोनों ओर शालीनता से खड़े पेड़ जब ऊपर ही ऊपर एक दूसरे से गले मिलते थे तो सड़क के ऊपर किसी गुफा जैसा दृश्य बन जाता था।  
इस वर्णनातीत दृश्य से गुज़रते हुए हम गोल्डन पैगोडा पहुँचे। मोदी जी पार्किंग में गाड़ी लगा रहे थे और मैं स्वर्णद्वार के सम्मुख खड़े बौद्ध भिक्षुओं को निहार रहा था। छोटे-छोटे बालकों से लेकर कैशोर्य और यौवन की देहरी को छू रहे ये लामा गहरे लाल और गहरे पीले रंग के चोगे में दिव्य लग रहे थे। संन्यास के तेज और तथागत के पथ की शांति से इनका सौंदर्य दिव्य हो गया था। बुद्ध पूर्णिमा के दिन इस स्थान पर आने का संयोग आनंद में वृद्धि कर रहा था। 
हमने टिकट लेकर तीर्थ परिसर में प्रवेश किया। बहुत करीने से संजोए गए बड़े से बगीचे के बीच चारों ओर से एक जैसा दिखने वाला एक विशाल मंदिर था जिसमें बुद्ध का भव्य स्वर्णबिम्ब विद्यमान था। मंदिर के चारों प्रवेश द्वार चीनी शैली के सिंह बिम्ब से अलंकृत थे। बाहर एक बड़े से तालाब में बुद्ध विराजित थे। बारिश की बूँदें जब तालाब के पानी में गिरती थीं तो एक गोल दायरा बनता जो बुद्ध की मूर्ति तक जाकर विलीन हो जाता था। यह दृश्य 'ध्यान' विधि के साकार कर रहा था। विचारों की तरह अनवरत उपजते दायरे निमीलित नयन युक्त ध्यानस्थ योगी तक पहुँच कर विलीन हो रहे थे। मैं अपलक इस दृश्य से बंधने लगा। क्षण भर के लिए बारिश की बूंदों की अनुभूति विस्मृत हो गई थी। क्षण भर के लिए मन विचारशून्य होकर तथागत के बिम्ब का स्पर्श कर आया था। नयन खुले थे किंतु दृश्य गौण हो रहे थे। कान उपस्थित थे किंतु ध्वनि शून्य हो गई थी। देह जिवित थी किंतु स्पर्श विलीन हो गया था... क्षण भर में असीमित ऊर्जा बटोरकर मेरी तन्द्रा टूट गई। 
अनुभव की जिस वीथि में मैं क्षण भर विचरने लगा था, वह लिखने का समय सम्भवतः इस जीवन में मैं न जुटा सकूँगा। बस इतना कह सकता हूँ कि ध्यान के इस स्वर्णिम सम्मोहन ने क्षण भर में मुझसे मेरा मन ठग लिया था। 
स्वयं को संयत करने के उद्देश्य से मैंने वहाँ से एक फेसबुक लाइव किया और इस परिसर को डिजिटल तकनीक में सहेजकर वापिस गाड़ी में आकर बैठ गया। भौगोलिक स्थिति के कारण दोपहर ढल चुकी थी और रात हुई नहीं थी। इतनी लंबी शाम का यह मेरा पहला अनुभव था। पूरा रास्ता शाम में ही बीता। रास्ते में मोदी जी ने अपनी चाय फैक्ट्री दिखाई। चाय बनने की प्रक्रिया जानकर बहुत अच्छा लगा। हरी पत्तियों के काले दानों में बदल जाने की पूरी प्रक्रिया देखकर विकास की आवश्यकता तथा साधना का अर्थ समझ आया। 
तिनसुकिया पहुँचकर हमने सुमित खेतान जी, अशोक बाज़ारी जी और मनोज मोदी जी के साथ स्वादिष्ट भोजन किया, अपनी-अपनी अटैची की क्षमता के अनुसार चायपत्ती के पैकेट बटोरे और सो गए। 
सुबह-सुबह हवाई अड्डे के लिए निकल लिए हैं। असम की संस्कृति, अरुणाचल का सौंदर्य और राजस्थानी लोगों के मीठे अपनत्व की संगत... ऐसा लग रहा है जैसे मेरा मन कालबेलिया की धुन पर बीहु नृत्य करके लौटा हो। 

✍️ चिराग़ जैन 

Thursday, May 5, 2022

शुभचिंतक

एक राजा के दो बेटे थे। एक नाटे कद का था और दूसरा लंबे कद का। बचपन से ही दोनों में तनाव रहता था। जब वे बड़े हुए तो राजा ने राज्य का बंटवारा कर दिया और पूरे देश के अधिकतम नाटे नागरिक नाटे बेटे के देश में चले गए। मूल राज्य में लंबे नागरिक रह गए। लेकिन कुछ नाटे लोग अपना देश छोड़कर नाटे देश में नहीं गए और लंबे राजा के शासन में रहने लगे। 
लंबे राजा ने अपने राज्य में बचे सभी नाटे लोगों को माली, तांगा, मजदूरी, दर्जी, हजामत और अन्य छोटे कामों में लगाए रखा। वे सोचने-समझने का विवेक न हासिल कर लें इसलिए नगर में जगह जगह उनके लिए नाटे बाबा के नाम पर समुदाय केंद्र बना दिये जहां हर ढाई पहर बाद पूरे नाटे समुदाय को इकट्ठा होना अनिवार्य कर दिया। अपने लोगों से उनके बीच यह बात और फैला दी कि वो जितने ज़्यादा बच्चे पैदा करेंगे उतना ही उनका भला होगा। उन्हें यह भी बता दिया कि उनकी किसी भी परम्परा में यदि बदलाव किया गया तो यह उनकी सामुदायिक भावनाओं का अपमान होगा। 
अब लंबे लोग व्यापार करते रहे और नाटे लोग उनके यहां नौकरी करते रहे और बदबूदार परंपराओं को निबाहते हुए जनसंख्या बढाने में लगे रहे। विकासहीन रूढ़ियों में बंधी यह जनसंख्या अपने संकरे मुहल्लों में सीमित रहकर बीमारियों और अशिक्षा का शिकार बनी रही। 
कुछ समय बाद लंबे समुदाय के कुछ लोग नाटे लोगों की इस दशा से द्रवित हुए और उन्होंने स्वयं को लंबे समुदाय का शुभचिंतक घोषित करके राज्य की सत्ता हथिया ली। सत्ता हाथ में आते ही उन नए राजाओं ने सबसे पहले नाटे समुदाय में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करना शुरू किया। उनके समुदाय केंद्र ध्वस्त करने शुरू कर दिए। और अपने लोगों से लंबे समुदाय में यह बात फैला दी कि लंबे लोगों को भी हर ढाई पहर बाद लंबे बाबा के समुदाय केन्द्र पर इकट्ठा होना चाहिए और ज्यादा बच्चे पैदा करने चाहियें।
अब अपने ऊपर अचानक आए संकट से नाटे लोगों का समुदाय जागरुकता की ओर बढ़ने लगा है और शिक्षा, सभ्यता तथा विकास के पथ पर अग्रसर लंबू समुदाय काम-धंधा, रोज़गार, कला, हास्य और उत्सव भुलाकर कट्टरता, घृणा, प्रतिहिंसा, नारेबाजी और उपद्रवों में रुचि लेने लगा है। 
सत्ता में बैठे लोग मन ही मन खुश हैं कि उन्होंने नाटे लोगों के विकास की बाड़ गिरा भी दी और लंबे समुदाय वाले उन्हें अपना शुभचिन्तक भी मान रहे हैं। 

✍️ चिराग़ जैन