एक वर्ष पूर्ण हो गया। आज ही के दिन सुबह दस बजे अपने घर को और घर के दरवाज़े पर खड़ी माँ को जी भरकर निहारने के बाद मैं अस्पताल पहुँच गया था। मेदांता के एक बेड पर मेरा नाम लिख दिया गया था। हाथ पर एक पट्टा बांध दिया गया था, जिसके रहते अस्पताल की अनुमति के बिना सशरीर उस परिसर से बाहर निकलना सम्भव नहीं था।
डॉ अनिल भान ने मेरी रिपोर्ट्स देखकर अगले ही दिन ऑपरेशन करने का निर्णय लिया। अगले दिन ऑपरेशन हो जाए इसके लिए अच्छी-ख़ासी रक़म एडवान्स जमा करनी थी। उस पर भी तकनीक का तुर्रा ये कि अस्पताल केवल क्रेडिट कार्ड के माध्यम से ही राशि स्वीकार करता था। लाखों रुपये यकायक क्रेडिट कार्डस से भुगतान करने के लिए मेरा परिवार एक-एक संपर्क को फोन करने में जुट गया।
अस्पताल प्रशासन को अनुभव था कि जिसका मरीज़ जीवन-मृत्यु के बीच जूझ रहा हो वह पैसा जुटा ही लेगा। सो, परिवारवालों को उनके संघर्ष के भरोसे छोड़कर मेरी आवश्यक जाँच कराने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। व्हीलचेयर पर बैठकर मैं विभाग दर विभाग भटकता रहा। हाथों में इतनी बार सूई चुभ चुकी थी कि अब दर्द होना बंद हो गया था।
परिवार का जो सदस्य मेरे साथ इस परीक्षण-पर्यटन में उपस्थित होता, वह बाहर चल रही आर्थिक कवायद को छुपाने का भरसक प्रयास करता लेकिन भय से भीगी आँखों में उत्पन्न झुंझलाहट में मैं वह सब पढ़ पा रहा था।
मेरी दोनों बहनों और बहनोई ने धरती-अम्बर एक करके रात 2 बजे तक अस्पताल की पेमेंट क्लियर कर दी। इस संघर्ष से पार पाकर जब छोटी बहन मेरे पास आई तो मुझे एंजियोग्राफी के लिए ले जाया जा रहा था। सुबह जिस भाई को स्मार्ट कपड़ों में भर्ती कराया था उसे अस्पताल के ढीले ढाले कपड़ों में नलियों से घिरा देखकर उसके चेहरे का रंग उतर गया। मुझसे नज़रें मिलीं तो अलक तक चढ़ आए आँसू को भीतर धकेलने की हिम्मत दिखाते हुए बोली- ‘सब फिट हो गया, डॉक्टर ने कहा है कल ऑपरेट हो जाएगा। सारे टेस्ट परफेक्ट हैं।’
मैं भी अपने हिस्से का अभिनय करता हुआ हामी भरकर एंजियोग्राफी के लिए चल पड़ा। सुबह से उपवास पर था, और उस पर परीक्षण की भागदौड़ के कारण सामने खड़ी मृत्यु से भयभीत होने की फुर्सत ही नहीं मिली।
जब भी कोई नर्स या डॉक्टर इंजेक्शन लेकर आता तो मैं ‘मंटो’ की ‘खोल दो’ कहानी याद करके हँसते हुए दोनों हाथ आगे कर देता था। अस्पताल के भीतर समय का भान ग़ायब हो गया था।
थकान जब तनाव से लिपट कर सो रही थी, तब मुझे यह सोचने की मोहलत मिली कि शायद अपना सफ़र यहीं तक का था। यह बात सोचकर घबराने ही वाला था कि किसी ने कान में कहा- ‘मूर्ख, विचलित क्यों होता है। यही तो विवेक की परीक्षा है। विपरीत परिस्थिति में सहज रह सके तभी तो पता चलेगा कि स्थितप्रज्ञ क्या होता है।’ नज़र घुमाकर देखा तो कमरे में कोई नहीं था। शायद मैं ख़ुद से बात कर रहा था।
‘समस्या को स्वीकार कर लेना समाधान की ओर पहला क़दम है। जो होगा देखा जाएगा, तू बस इस पूरी प्रक्रिया को साक्षीभाव से देख। अगर जिवित बच गया तो यह अनुभव तेरे सृजन को प्रभावी बना देगा।’
मैंने आँख खोली तो नीले कपड़े पहने एक नर्स अपनी पूरी जान लगाकर मेरे हाथ पर एक पट्टी कस रही थी। कलाई पर जहाँ एंजियोग्राफी का कट लगा था, उस हिस्से पर बिटाडीन जैसी कोई दवाई पुती हुई थी और एक सख़्त-सी चीज़ से कटी हुई नस को दबाकर बहुत टाइट पट्टी बांध दी गई थी। वह सख़्त चीज़ लगातार हाथ को पीड़ा पहुँचा रही थी। पीड़ा का अभ्यास करते हुए जाने कब मुझे नींद आ गई। सुबह आँख खुली तो पूरी कलाई पर नील पड़ गया था। समान्य स्थिति में इतना गहरा नील दिखता तो चिन्ता हो जाती, लेकिन अब एक बड़ी समस्या सामने थी इसलिए इस नील से कोई भय उत्पन्न नहीं हुआ।
कलाई लगातार दुःख रही थी। लेकिन मैं इस प्रक्रिया के अधिकतम कष्ट को स्वीकार कर चुका था, सो यह पीड़ा मेरी भंगिमा को प्रभावित नहीं कर पा रही थी। मुझे समझ आ गया था कि यह जो कुछ हो रहा है इसका न तो कारण मैं हूँ, न ही इसका निवारण मेरे पास है। इसलिए क्षोभ, करुणा, पीड़ा जैसा कोई भाव मुझे स्पर्श नहीं कर पाता था। सृजन का भरपूर सुख भोगा था इसलिए जीवन से कोई शिक़ायत भी नहीं थी। वैभव और सांसारिक कष्ट ख़ूब भोगे थे इसलिए कोई अधूरी इच्छा भी याद नहीं आ रही थी। माता-पिता के बुढ़ापे को सोचकर पलकें भीगी ज़रूर, लेकिन अपनी बहनों के समर्पण और विश्वास का सम्मान रखने के लिए नयन कोर को आँसू के भार से बचाए रखा।
बच्चे याद आए तो भी मन को यह कहकर समझा लिया कि वे अपनी ‘माँ’ के संरक्षण में हैं, इसलिए मेरा अभाव झेल जाएंगे।
मेरी दोनों बहनें और बहनोई मुझे यमराज से छीन लाने की सावित्री साधना कर रहे थे। माँ घर पर रहकर इस संशय से जूझते हुए सबका खाना बनाकर भेजती रही और पिताजी मेरी तरह निःशब्द होकर इस घड़ी के बीत जाने की बाट जोहते रहे।
नर्स ने बताया, पेशेंट को सर्जरी के लिए ले जाना है। जो बहनें इस घड़ी के लिए कल रात तक पैसा जुटा रही थीं, उनका मौन चीख पड़ा। कुछ ही मिनिट बाद मैं सब अपनों से दूर प्री-ओटी में था। यहाँ एक बार फिर ब्लड प्रेशर और स्ट्रेस लेवल की जाँच की गई। रिपोर्ट का हर आँकड़ा परफेक्ट था। मेरी देह और मेरा मानस शल्यक्रिया के लिए तैयार था।
एनेस्थीसिया के डॉक्टर ने मुझे पहचान लिया। वह टीवी पर मुझे देख चुका था। उसने बातचीत करनी शुरू की और मेरी सहजता को और निश्चिंत कर दिया।
मुझे व्हीलचेयर पर बैठकर ऑपरेशन थियेटर तक चलने को कहा गया लेकिन मैंने अनुरोध करके अपने पैरों पर चलकर जाना चाहा। हल्की सी ना-नुकर के बाद डॉक्टर ने मेरा अनुरोध मान लिया। ऐसा मैंने इसलिए किया क्योंकि मैं इस महत्वपूर्ण सफ़र को अपने पैरों से तय करना चाहता था।
मुझे अच्छी तरह याद है, ओटी की ओर जाते समय डॉ भान ने एक दरवाज़े में से झाँककर कहा था- ‘चलो कवि जी, आपसे दिल खोलकर मिलते हैं।’
मुझे उनका हास्यबोध अच्छा लगा। ओटी में स्ट्रेचर पर लेटते ही डॉक्टर्स की एक फौज ने मेरे स्ट्रेचर को घेर लिया। सब तेज़ी से अपने अपने काम में जुट गए। मेरे शरीर पर अलग-अलग नलियाँ लगने लगीं, तरह-तरह की मशीनों से मुझे जोड़ दिया गया। मेरठ के एक डॉक्टर साहब ने मुझसे कविता सुनाने का आग्रह किया। मैं थोड़ा घबराया हुआ था सो उन डॉक्टर साहब की शक्ल देखने लगा। वे मेरी मनोदशा भाँप गए और बोले, चलो मैं सुनाता हूँ। उन्होंने रश्मिरथी का शांतिपर्व पढ़ने की शुरुआत की। ...सह धूप घाम पानी पत्थर ...पाण्डव आए कुछ और निखर ...मेरा भय विलुप्त हो गया। मुझे लगा कि यह शल्यक्रिया मृत्यु की ओर नहीं ब्लकि एक निखरे हुए जीवन की ओर ले जा रही है। मेरी मनोदशा सकारात्मक हो गई।
क्षण भर में मैंने महसूस किया कि देशभर में मेरे अपने मेरे जीवन की दुआ कर रहे हैं। सुरेन्द्र जी, अरुण जी, मनीषा, प्रवीन, देवदत्त, सुष्मीत, पँवार जी... इन सबसे तो मेरी बात हुई थी। सभी की आवाज़ में स्नेहसिक्त चिंता थी। जब इतने सारे लोग चिन्ता करने के लिए उपस्थित हैं तो मैं क्यों चिन्ता करूँ। मैंने रश्मिरथी के पाठ में अपना स्वर मिला दिया। ...मुझमें विलीन झंकार सकल ...मुझमें लय है संसार सकल ...अमरत्व फूलता है मुझमें ...तभी मेरी काया में सूई चुभी और मेरी चेतना लुप्त हो गयी।
इसके बाद किसी ने मेरे गाल थपथपाते हुए मेरा नाम पुकारा। मैंने आँखें खोलीं तो नाक, मुँह और पेट में अलग-अलग तरह की नलियाँ लगी थीं। गाल थपथपाने वाले व्यक्ति ने पूछा- ‘कुछ पिछला याद है?’ मैंने वेंटिलेटर लगे गले से बोलने का प्रयास किया- ‘सब कुछ।’
डॉक्टर- ‘कुछ ऐसा याद करो, जो बचपन में पढ़ा हो।’
मैं- ‘जटाटवीगलज्ज्वल प्रवाहपावितस्थले...’
‘मेमोरी ओके!’ -डॉक्टर ने बीच में ही टोक दिया।
डॉक्टर के चेहरे के एक्सप्रेशन बता रहे थे कि युद्ध जीता जा चुका है, अब ये नलियाँ हटाने की साधना करनी है।
अब तक बाहर खड़े रहकर मेरी मृत्यु से लड़ रहे मेरे अपने आईसीयू के द्वार तक आ पहुँचे थे। मैं उन सबकी हँसती हुई आँखों में वो सारा दर्द देख पा रहा था, जो मेरे दिल की चीर-फाड़ के समय एनेस्थीसिया की ओट में छिप गया था।
एक महीने बाद जब घर लौटा तो घर में घुसते ही मैं बिलखकर रो पड़ा था। मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था कि इस घर में मैं सही-सलामत लौट आया हूँ।
अब वही भागदौड़, वही व्यस्तता, वही आपाधापी फिर से जीवन का हिस्सा बन गई है। इस एक वर्ष में मैंने हर उस दुआ का आभार व्यक्त किया है जो उस समय मेरे जीवन यज्ञ की समिधा बनने को तैयार थी।
अब जब कभी कोई संकट मेरे पास आना चाहता है, तो मैं उसे 6-7 जुलाई 2021 की कहानी सुनाकर ठहाका लगाता हूँ कि कहीं और जा बे, मैं तेरे अब्बा से मिल चुका हूँ!
✍️ चिराग़ जैन