कई बार मैंने महसूस किया है कि पतझर का मौसम अन्य किसी भी मौसम से अधिक कवित्व भरा होता है। ऊँचे दरख्तों से सहसा झरते पीले पत्ते मन में अव्यक्त सी रूमानियत भर जाते हैं। डालियाँ थोड़ी खाली ज़रूर होती हैं लेकिन उन्हें बेनूर नहीं कहा जा सकता।
झरते हुए पत्ते सड़कों का सिंगार करने लगते हैं। किसी बाग की पगडण्डी पर जब दो मुसाफिर इन पत्तों को रौंदते हुए आगे बढ़ते हैं तो ऐसा लगता है ज्यों दोनों सहयात्रियों के पांव में प्रकृति ने पाजेब पहना दी हो।
बगीचों में खाली पड़े बेंच भी नीम के सूखे पत्तों से ऐसे लदे रहते हैं मानो उदासी के रीतेपन को अंगूठा दिखाकर अपने भरे होने का जश्न मना रहे हों।
पार्किंग में खड़ी गाड़ियां कदंब, पीपल, चम्पा और सहजन के पत्तों से घुलने-मिलने लगती हैं तो हवा इस मेलजोल को धूल-धूसरित कर डालती है। रोज़ सुबह गाड़ियां साफ़ करने वाले का चिड़चिड़ापन गाड़ियों की फटकार लगाता है तो शरारत में शामिल वृक्ष पत्रवृष्टि करके उस फटकार के विरुद्ध आंदोलन छेड़ देते हैं।
कंटीले झाड़ यकायक हज़ारों रंग के फूलों से खिल उठते हैं। ग्रीष्म की उमस दस्तक देने लगती है और मिट्टी के भीतर सोया जीवन अंकुरित होने लगता है।
दार्शनिक दृष्टि प्रकृति के इस रूप से जीवन का सार बटोरते हुए आनंद की अनुभूति करती है और आशा, हर टूटते पत्ते के पीछे फूटरही कोंपल को निहारने लगती है। सकारात्मकता पीली खरखराहट के भीतर पीपल की लाल-लाल कोंपलों की खनखन सुन लेती है और उत्साह के वेग से बौराई हवा, बांस के खोखलेपन में सरगम टटोलने लगती है।
प्रकृति की इस पतझरी साधना से प्रसन्न होकर आम की डालियों से मंजरियों का सौभाग्य झाँकने लगता है।
जिन्हें वसंत में गीत दिखते हों, वो देखा करें; मुझे तो पतझर का पूरा मौसम मुक्तछंद की कविता जैसा लगता है!
ज़र्द पत्तों की तरह राह सजाऊँगा तेरी
ले मेरे आख़िरी लम्हे भी तेरे नाम हुए
~चिराग़ जैन
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